आपकी मंजिल आ गई है, उतर जाइए!
मैं एक तेज भागती ट्रेन पर सवार था। मेरे सपने थे, योजनाएं थीं, आकांक्षाएं थीं और मैं पूरी तरह इस सब में बिजी था। तभी ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे कंथे पर हाथ रखते हुए मुझे रोका। वह टीसी था – ‘आपका स्टेशन आने वाला है. कृपया नीचे उतर जाएं।’ और फिर 53 साल 3 महीने और 22 दिन बात इरफान की जिंदगी की गाड़ी का अंतिम पड़ाव आ गया।
मौत के ठीक पहले इरफान खान की लिखी चिट्ठी का अंश
इरफान कि यह पूरी चिट्ठी जब आप पढ़ेंगे, तब रोए बिना नहीं रह पाएंगे। कहते हैं ” ज़िन्दगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं “, पर क्या इतनी भी छोटी होनी चाहिए? मौत से बड़ा कोई सच नहीं, लेकिन इरफान का जाना झकझोरता है। सादगी से भरे एक अदाकार, ज़हीन शख़्सियत, रंग-कर्मी, साहित्य के प्रति अभिरुचि रखने वाले इरफान ख़ान का जाना, नीरवता भऱे इस माहौल में एक बड़ा खालीपन दे गया है। इरफान खान का किरदार ही है जो आज हम सबके दिलों में बसा हुआ है और हमेशा इस सच्चाई से वाकिफ़ कराता रहेगा कि….
कदर किरदार की होती है..वरना कद में तो….साया भी इंसान से बड़ा होता है…!!!
लाइफ ऑफ पाई का एक सीन है जो सबसे अंत में आता है। नाव किनारे पहुंचती है और रिचर्ड पार्कर चुपचाप नाव से उतरता हुआ जंगलों की तरफ चलता है। वो एक बार भी मुड़ के नहीं देखता। फिर इरफान का संवाद आता है -” जिंदगी में एक न एक दिन तो सबको जाना है, मगर जो चीज सबसे दुखदायी होती है, वो होती है किसी को समय रहते अलविदा न कह पाना”। इरफान ने भी कहाँ अलविदा कह पाने का मौका दिया? वो तो बस यूं ही चले गए जैसे गए ही न हों। आप सिर्फ़ अमर हो सकते हैं इरफान, मर नहीं सकते।
आचार्य भरतमुनि नाट्यशास्त्र में कहते हैं कि सर्वश्रेष्ठ सात्विकअभिनव वह होता है जो आंखों से किया जाए, बिना संवाद बोले। अगर अभिनय का आदर्श यह है, तो इरफान दुनिया के चुनिंदा अभिनेताओं में से एक है। आपने मूक अभिनय वाले इरफान को देखा है – लंचबॉक्स वाले इरफान, मक़बूल वाले इरफान, पीकू वाले इरफान। उनकी अंतिम समय की मोटी मोटी आंखों का जीवंत अभिनय जिसने देखा होगा, उसने जरूर चिल्ला कर कहा होगा “अब उठो, एक्टिंग बहुत हो गई”। जब रोग फिल्म के लिए नीलेश मिश्रा ने यह गीत लिखा होगा तो शायद उन्हें भी पता नहीं होगा कि यह गीत इरफान के लिए आत्मकथ्य हो जाएगा…
मैंने दिल से कहा ढूंढ लाना खुशी,
नासमझ लाया गम तो यह गम ही सही ।।
इरफान साहब, आपसे बेहिसाब प्रेम कभी थम नहीं सकता, ना ही ख़त्म हो सकता है। आपका होना हमारे दिलों में, हमारी यादों और हिंदी सिनेमा पर विश्वास में, जिसे आपके अभिनय, फिल्मों ने क़ायम रक्खा…अब जब जब आपकी याद आएगी, अपने फ़ोन, लैपटॉप पर चला लिया करूंगा ‘द नेमसेक’ और उस अशोक के मासूम और सरल व्यक्तित्व पर फिऱ से प्यार लुटाऊंगा। कभी कभी हो आऊंगा ‘मदारी’ के ज़िन्दगी से रू-ब-रु और जब जब सिस्टम के बर्बाद होने पर दुःखी होंगे आप, आपके साथ मैं भी दुःखी हो लूंगा। फ़िर ‘पान सिंह तोमर’ के उस मुस्कान के साथ मरने पर उसी तरह फूट फूट कर रो लूंगा, जिस तरह सबसे पहले देखने पर रोया था। ‘लंचबॉक्स’ के साजन फर्नांडिस का वो शांत चेहरा, जो चिट्ठी के साथ आये लंचबॉक्स को देखते ही मुस्कराहट में बदल जाता था, फिर उस सीन को देखते ही दिल कुलांचे भरेगा। हँसते-हँसते रो पडूंगा, जब ‘लाइफ़ इन अ मेट्रो’ का एकदम ही बावला मोंटी, श्रुति के अचानक से शादी के लिए राज़ी होने पर घोड़े को भगाता-भगाता ये कहता है कि “ब्लाउज़ पेटीकोट तो सब उसी के नाप का सिलवा लिया है!” और ‘मक़बूल’ देख आऊंगा कभी और उसमें मक़बूल का निम्मी को प्यार से देखना, उसे बाहों में समेट कर झुमका पहनाना..ऐसे इश्क़ को देख कर जो गुदगुदी, ख़ुशी मन में उपजती है, उसका अहसास फ़िर कर आऊंगा। आपकी बहुमुखी प्रतिभा को देख कर लगता भी नहीं था कि आप एक हक़ीक़त हो सकते हैं…पर आप हिंदी सिनेमा के सबसे, सबसे ख़ूबसूरत हक़ीक़त थे, हैं, और रहेंगे। यूँ आपका “वेट, फ़ॉर मी” कह कर सदा के लिए चले जाना ठीक नहीं है, इरफ़ान साहब।
किसी इंटरव्यू में मैंने सुना था जिसमें इरफ़ान ने कहा था कि धर्म बेहद निजी वस्तु है यह तो मेरे और मेरे भगवान के अलावा किसी को पता ही नहीं होनी चाहिए। इरफ़ान के जैसा ख़ूबसूरत इंसान ही यह पूछे जाने पर कि-
“तुम शिया हो या सुन्नी?” कह सकता है कि-
दरिया भी मैं, दरख़्त भी मैं
झेलम भी मैं, चिनार भी मैं
दैर भी हूँ, हरम भी हूँ,
शिया भी हूँ, सुन्नी भी हूँ
मैं हूँ पंडित
मैं था, मैं हूँ और मैं ही रहूँगा..
अलविदा कहने के वक्त कैफी साहब की नज्में कुछ यूं याद आई
“रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई
तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई
इक बार तो ख़ुद मौत भी घबरा गई होगी
यूँ मौत को सीने से लगाता नहीं कोई.. ”
तुम सदा दिल में रहोगे – साहबजादे इरफान अली खान !
श्रद्धांजलि।
अलविदा…
साभार : मंजुल मयंक शुक्ला, लेखक (manjul.shukla@gmail.com )