मुशायरों का लुटेरा!

मुशायरों के मंचों का शहंशाह जब खुदा के दरबार में पहुंचा होगा, तो सबसे पहले खुदा से पूछा होगा:
गुलाब, ख़्वाब, दवा, ज़हर, जाम क्या-क्या है
मैं आ गया हूँ बता, इंतज़ाम क्या-क्या है।

जब वह झूमकर शेर पढ़ते, आसमान की तरफ देखते, तो ऐसा लगता कि वह अवाम से ही नहीं, खुदा से बातें कर रहे हैं। सत्ता को ही नहीं, खुदा को भी ललकारने वाली महफिल की वो बुलंद आवाज, मंगलवार 11 अगस्त को सदा-सदा के लिए खामोश हो गई। करोड़ों दिलों के अज़ीम शायर को मौत ने दो गज़ का जमींदार बना दिया।
दो गज सही, यह मेरी मिल्कियत तो है
ए मौत तूने मुझे ज़मींदार कर दिया।
राहत साहब आपने तो कहा था :
बुलाती है मगर जाने का नईं
वो दुनिया है उधर जाने का नईं।
वबा फैली हुई है हर तरफ़
अभी माहौल मर जाने का नईं।
तो फिर इतनी जल्दी क्यों ? अचानक आपके यूँ गुज़र जाने पर आपके तमाम दीवाने सदमे में हैं। किसी को यकीन नहीं हो रहा कि महफिलों और मुशायरों की रौनक इतनी जल्दी विलुप्त हो चुकी है। बकौल जावेद अख्तर “राहत साहब का निधन समकालीन उर्दू कविता और हमारे समाज के लिए एक अपूरणीय क्षति है। ग़ालिब की तरह वह उन कवियों की तेज़ी से गायब हो रही जमात से थे।”
गुलज़ार साहब ने अपना गम प्रकट करते हुए कहा, “वह अपनी किस्म के एक अलग शायर थे। उनके जाने से उर्दू मुशायरे में एक खाली जगह पैदा हो गई है, जिसे कभी भरा नहीं जा सकता। वो तो लुटेरा था मुशायरों का।”
कहते हैं की तारीखें ख़ास नहीं होतीं। उन्हें ख़ास बनाती हैं उनसे जुड़ी शख्सियतें और घटनाएं। ऐसी ही एक खास तारीख है 1 जनवरी 1950। इसी दिन होल्कर रियासत ने भारत में विलय होने वाले पत्र पर हस्ताक्षर किए थे और इसी दिन अदब की मंचीय दुनिया के नामचीन दस्तखत और मशहूर शायर जनाब राहत इंदौरी पैदा हुए थे। इतिहास में कुछ घटनाएं बहुत ख़ामोशी से घटित हो जाती हैं, लेकिन बाद में बहुत शोर करती हैं। राहत साहब के मुफ़लिस वालिद जब देवास से इंदौर आये थे तब उन्हें इस बात का अन्दाज़ा नहीं होगा कि एक दिन यह शहर उनकी औलाद के नाम से मशहूर होगा। राहत साहब का अपने बचपन की इसी हालत पर लिखा है:
अभी तो कोई तरक़्की नहीं कर सके हम लोग,
वही किराए का टूटा हुआ मकां है मियां।
परिवार चलाने के लिए वह एक ज़माने में पेशेवर साइन बोर्ड पेंटर भी रहे थे। एक दौर यह भी था जब ग्राहक उनकी पेंटिंग पाने के लिए महीनों इंतज़ार करते थे। वो बाद के दिनों में भी पुस्तकों के कवर डिज़ाइन करते थे। इन्हें ‘साहित्य सारस्वत’, ‘यूपी हिंदी उर्दू साहित्य अवार्ड’, ‘कैफ़ी आज़मी अवार्ड’ जैसे दर्जनों सम्मान मिले। पाकिस्तान, सऊदी अरब, अमेरिका समेत कई देशों ने भी उन्हें सम्मानित किया। उनकी मशहूर किताबों में “दो कदम और सही”, “मेरे बाद”, “धूप बहुत है” जैसे किताबें शामिल हैं। उर्दू साहित्य में पीएचडी करने वाले डॉ. राहत इंदौरी ने दर्जनों फिल्मों में गीत भी लिखे जो काफी मशहूर हुए ।
- एम बोले तो मास्टर मैं मास्टर (फ़िल्म- मुन्नाभाई एमबीबीएस)
- चोरी-चोरी जब नजरें मिलीं, चोरी चोरी फिर नींदें उड़ीं (फ़िल्म- करीब)
- बुम्बरो बुम्बरो श्याम रंग बुम्बरो (फ़िल्म- मिशन कश्मीर)
- दिल को हजार बार रोका रोका रोका (फ़िल्म- मर्डर)
- आज हमने दिल का हर किस्सा (फ़िल्म- सर)
- कोई जाए तो ले आए मेरी लाख दुआएं पाए (फ़िल्म- घातक)
- तुमसा कोई प्यारा कोई मासूम नहीं है (फ़िल्म- खुद्दार)
- देखो-देखो जानम हम, दिल अपना तेरे लिए लाए (फ़िल्म- इश्क़)

वो कमाल के शायर रहे हैं। जहाँ जाते महफ़िल लूट लेते। राहत इंदौरी को उनके ग़ज़ल कहने के जुदा अंदाज़ के लिए हमेशा याद किया जाएगा। वो शेर कहते समय इतराते, शर्माते, हाथ घुमाते, मंच पर इधर उधर बैठे शायरों को देखते, ललकारते, दहाड़ते, किसी एक शब्द पर जोर देते, उसे तीन बार बोलते, और आखिर में जब शेर ख़त्म होता तो महफ़िल लूट लेते।
राहत इंदौरी इश्क़ और इंकलाब के शायर हैं:
जनाज़े पर मिरे लिख देना यारों
मोहब्बत करने वाला जा रहा है।
वह युवाओं को भी आकर्षित करना जानते हैं:
चलते फिरते महताब दिखाएँगे तुम्हें
आओ कभी, पंजाब दिखाएंगे तुम्हें।
वह कबीर की तरह फक्कड़ हैं, तो दिनकर की तरह दृढ़ और निर्भीक भी। वो खुलेआम चुनौती देते हैं और उन्हें आती-जाती सरकारों से डर नहीं लगता :
ऊंचे-ऊंचे दरबारों से क्या लेना
नंगे भूखे बेचारों से क्या लेना !
अपना मालिक अपना खालिक तो अल्लाह है
आती-जाती सरकारों से क्या लेना!
संघर्ष ने उनकी शायरी को नये तेवर दिए, इस बात का सबूत उनके इस शेर में मिलता है :
शाखों से टूट जाएं, वो पत्ते नहीं हैं हम
आंधियों से कह दो ज़रा औकात में रहें।
इसी तासीर का उनका एक और शेर है:
आंख में पानी रखो, होंठों पे चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो।
वह चेतावनी के, विरोध के, बगावत के, चुनौती के, व्यंग के और मौज के शायर हैं। उनके कुछ शेर पढ़ें और उनके इन विचारों को समझने का प्रयास करें।
बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए
मैं पीना चाहता हूं पिला देनी चाहिए।
***
अंदर का ज़हर चूम लिया, धुल के आ गए
कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए।
***
दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए।
***
ज़ुबां तो खोल, नज़र तो मिला, जवाब तो दे
मैं कितनी बार लुटा हूं, मुझे हिसाब तो दे।
***
लोग हर मोड़ पे रुक रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं, तो घर से निकलते क्यों हैं।
राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण पर राहत साहब का शेर कितना सटीक है :
बनके एक हादसा बाजार में आ जाएगा,
जो नहीं होगा वह अखबार में आ जाएगा।
चोर, उचक्कों की करो कद्र, कि मालूम नहीं
कौन कब कौन-सी सरकार में आ जाएगा।

उनके कई शेर आंदोलन के मंचों की आवाज़ बने और नारों में भी इस्तेमाल किये गए :
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है,
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं, ज़ाती मकान थोड़ी है,
सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है!
इसी तरह के कुछ शेरों की वजह से उन्हें देश विरोधी साबित करने की कोशिश की गई। लेकिन कहते हैं ना कि शायर किसी क़ौम का नहीं होता, शायर एक काल खंड का होता है। वह अपने वतन से, अपने वतन की मिट्टी से मोहब्बत करने वाले शख्स और शायर थे। उनके कई शेर इस बात की ताकीद करते हैं।
हों लाख ज़ुल्म मगर बद-दुआ’ नहीं देंगे
ज़मीन माँ है, ज़मीं को दग़ा नहीं देंगे।
***
मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना
लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना।
***
ए वतन एक रोज तेरी खाक में खो जाएंगे, सो जाएंगे
मरके भी रिश्ता नहीं टूटेगा वतन से, ईमान से।
वह तो हिन्दू -मुस्लिम भाईचारे को और बढ़ाना चाहते थे:
मेरी ख़्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे
मेरे भाई मेरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले।
वह एक खुद्दार शायर भी थे। नीचे के दो शेर उनकी खुद्दारी को बयां करते हैं :
बादशाहों से भी फेंके हुए सिक्के न लिए
हम ने ख़ैरात भी माँगी है तो ख़ुद्दारी से।
***
प्यास तो अपनी सात समंदर जैसी थी
नाहक हमने बारिश का एहसान लिया।
एहसान तो उन्होंने मौत का भी नहीं लिया। वो मौत से डरते भी नहीं थे, बल्कि वो तो मौत से दोस्ती रखने की बात कहते रहे हैं:
राह में खतरे भी हैं लेकिन ठहरता कौन है,
मौत कल आती है आज आ जाए, डरता कौन है।
***
एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तों
दोस्ताना ज़िंदगी से, मौत से यारी रखो।
मौत ही अंतिम सत्य है। इस दुनियावी ज़ालिम सच्चाई को भी उन्होंने जी भर के गाया :
ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था।
राहत साहब के बेटे सतलज इंदौरी ने उनके कुछ आखिरी शेरों को सोशल साइट्स पर शेयर किया है। देखिये इस उम्दा शायर की आखिरी नज़्म –
नये सफर का जो ऐलान भी नहीं होता
तो जिंदा रहने का अरमान भी नहीं होता।
तमाम फूल वही लोग तोड़ लेते हैं,
जिनके कमरों में गुलदान भी नहीं होता।
खामोशी ओढ़ कर सोई हैं मस्जिदें सारी
किसी के मौत का ऐलान भी नहीं होता।
वबा ने काश हमें भी बुला लिया होता
तो हम पर मौत का अहसान भी नहीं होता।
(वबा-महामारी)
शायद कोरोना महामारी ने भी उनका ये आखिरी शेर सुन लिया और वक्त से पहले बुला लिया। राहत साहब भले ही दुनिया को अलविदा कह गए लेकिन अपने पीछे अदब की वो विरासत छोड़ गए हैं जो नई पीढ़ी के लिए किसी खजाने से कम नहीं है। आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन जब उर्दू की बात होगी, तहजीब की बात होगी, शेरो-शायरी और साहित्य की बात होगी, अपने लेखन से अपनी शायरी से लोगों के लिए लड़ने वालों की बात होगी, तो राहत इंदौरी को जरूर याद किया जाएगा।
“सफर की हद है वहाँ तक कि कुछ निशान रहे,
चले चलो कि जहाँ तक ये आसमान रहे।”
हम फ़ख़्र से कहते रहेंगे हमने राहत को देखा है, सुना है…. आसमान में आपकी चमक बनी रहे…आपकी शायरी से रोशनी बिखरती रहे..
विनम्र श्रद्धांजलि !!!

मंजुल मयंक शुक्ल, लेखक (manjul.shukla@gmail.com)