बेकार….आप की सरकार!
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दिल की बस्ती पुरानी दिल्ली है,
जो भी गुज़रा है उस ने लूटा है।
बशीर बद्र
दिल्ली के बारे में ये शेर उस दौर की कहानी बयां करता है, जब तमाम हमलावर लूट के इरादे से यहां आते थे। लेकिन अब तो अपना राज है, ‘आप’ का राज है। फिर भी कोरोना के दौर में राजधानी का जो हाल है, वो इस शेर में झलकता है। दिल्ली कमजोर हो या मजबूत, इससे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन दिल्ली में क्या हो रहा है, इसका पूरे देश पर मनोवैज्ञानिक असर होता है। यही वजह है कि कोरोना संकट में दिल्ली की केजरीवाल सरकार, अपनी विफलता के कारण राष्ट्रीय आलोचना का विषय बन गयी है।
दिल्ली सरकार का मोहल्ला क्लीनिक मॉडल काफी प्रभावित करनेवाला रहा है, और इसलिए उम्मीद थी कि केजरीवाल सरकार, देश में सबसे बेहतर तरीके से कोरोना से निपटते हुए एक नयी और प्रेरक राह दिखाएगी। लेकिन आज दिल्ली अजीबोगरीब प्रयोगभूमि बनी हुई है। तमाम कहानियां बताती हैं कि कोरोना पीड़ितों को उसी तरह मरने के लिए छोड़ दिया गया है, जैसे साधनविहीन इलाकों में। यही नहीं, पांच-पांच दिनों तक कोरोना से मरनेवाले लोगों का दाह-संस्कार तक नहीं हो पा रहा है। साधन संपन्नता के बाद भी ऐसी क्या समस्या है कि दिल्ली सरकार के 38 अस्पतालों में से 33 अस्पताल, कोरोना मरीजों का उपचार नहीं कर रहे हैं और मरीजों को लेने से मना कर रहे हैं? बीमार मरीजों से कहा जा रहा है कि इसके लिए बने पांच 5 डेडिकेटेड अस्पतालों में जाइए। इन पांचों अस्पतालों में भी 4,400 बिस्तर हैं, जिसमें भी मात्र 28 फीसदी बिस्तरों पर मरीज हैं और 72 फीसदी खाली हैं। फिर भी जनता को दर-दर भटकना पड़ रहा है।
इसकी तुलना में निजी अस्पतालों में 40 फीसदी बिस्तर खाली हैं। फिर भी मरीजों को भर्ती नहीं किया जा रहा है। जिस तरह से प्राइवेट अस्पतालों में कोरोना के नाम पर लाखों की वसूली हो रही है, उससे इसकी वजह भी साफ समझ में आती है। सरकार की सख्ती भी सिर्फ चुनिंदा मामलों में दिखती है। उदाहरण के लिए, गंगा राम अस्पताल, जिसके केवल 12 फीसदी बेड्स खाली हैं और 88 फीसदी भरे हैं, उन पर तो एफआईआर दर्ज की गयी है, लेकिन बाकी के जो 33 अस्पताल मरीजों को लेने मना कर रहे हैं, उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है।
दिल्ली में भारत सरकार के अधीन सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल जैसे ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (AIIMS), सफदरजंग अस्पताल, लेडी हार्डिंग अस्पताल, डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल आदि मौजूद हैं। भारत सरकार के अधीन कई स्वायत्त संस्थाएं भी स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी हैं। भारत सरकार के पास दिल्ली में 13,200 बिस्तरों वाले अस्पताल हैं, जबकि दिल्ली नगर निगम के पास 3,500 बिस्तरों वाले अस्पताल। यानि दोनों मिलाकर 16,700 बेड्स, लेकिन इनमें से केवल 1,502 बेड्स कोरोना मरीजों के लिए आरक्षित हैं। मतलब भारत सरकार के तहत भी केवल 8 फीसदी बेड्स कोरोना मरीजों के लिए हैं।

दिल्ली सरकार द्वारा 2 जून को गठित डॉ. महेश वर्मा कमेटी ने कहा था कि इस महीने के अंत तक दिल्ली में एक लाख व्यक्ति संक्रमित होंगे। 15 जुलाई तक 42,000 बिस्तरों की दिल्ली में जरूरत होगी जो अभी केवल 8,600 हैं। इस कमेटी ने ये भी कहा कि 20 फीसदी यानि 1700 बेड्स, वेंटिलेटर के साथ गंभीर मरीजों के लिए रिजर्व होने चाहिए। लेकिन आलम यह है कि दिल्ली में अभी सिर्फ 472 बेड्स उपलब्ध हैं, जिनमें वेंटिलेटर की सुविधा है। इनको 15 जुलाई तक 10,500 करना अब किसी के बस की बात नहीं हैं। ये आंकड़े दिल्ली सरकार में मंत्री और विधान सभा अध्यक्ष रहे अजय माकन ने सार्वजनिक किए हैं। वे केंद्रीय गृह राज्यमंत्री भी रहे हैं और होमवर्क करके ही अपनी बात रखते हैं। अगर ऐसी तस्वीर है तो फिर समझा जा सकता है कि दिल्ली किस हाल में है।
महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली को जन-स्वास्थ्य के मामलों में सबसे संपन्न इलाका माना जाता है। वहीं इस मामले में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों काफी बुरी हालत में हैं। लेकिन अभी ईश्वर की कृपा से वहां स्थिति संभली हुई हुई है। ऐसे में जरुरत ये है कि केन्द्र सरकार फौरन मोर्चा संभाले और दिल्ली सरकार, एमसीडी और एनडीएमसी समेत सारी स्वायत्त संस्थाएं….कोरोना से पीड़ित मरीजों के लिए अपने दरवाजे खोलें। वर्ना अगले कुछ हफ्तों में स्थिति भयावह और बेकाबू हो सकती है।

साभार : अरविंद कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक