बिहार चुनाव (Bihar election): मजदूर बनेंगे मुद्दा?

बिहार चुनाव (Bihar election) में राजनीतिक पार्टियों की बयानबाजी, नेताओं के दल-बदल और जाति-आधारित उम्मीदवारों के चयन और उनकी संभावनाओं पर तो खूब चर्चा हो रही है, लेकिन जनता के असली मुद्दे, ना तो सुर्खियों में हैं और ना ही नेताओं के बयान में।
देखा जाए, तो बिहार में विकास का मुद्दा पुराना पड़ गया है, सड़कों और बिजली के नाम पर नीतीश सरकार पहले ही सत्ता हासिल कर चुकी है। तेजस्वी और तेज प्रताप की संपत्ति और राजनीति कोई नई बात नहीं है, क्योंकि ये सब लालू प्रसाद की कमाई है। लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष अभी भी विकास की सियासत और लालू प्रसाद की विरासत में उलझा हुआ है।

चुनावी हवा बदल सकते हैं प्रवासी मजदूर(Migrant Worker)?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार के चुनाव (Bihar election) में लॉकडाउन के बाद घर लौटे प्रवासी बिहारी मजदूर (Migrant Worker) बड़े गेमचेंजर साबित हो सकते हैं। इसकी एक वजह तो ये है कि लॉकडाउन में वापस आये मजदूरों में कुछ तो काम की तलाश में वापस लौट गये, लेकिन कोरोना की वजह से रोजी-रोटी कमानेवाले कई बिहारी प्रवासी (Migrant Worker) वापस नहीं लौटे हैं। इसके अलावा इस बार मतदाता सूची में भी बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के नाम जोड़े गये हैं । ऐसे में प्रवासी बिहारियों का वोट, कई सीटों पर हार-जीत का गणित बिगाड़ सकता है।
- प्रवासी बिहारी चाहे जहां कहीं भी हों, चुनाव (Bihar election) के समय अपने-अपने गांव जरुर लौट आते हैं, और मनपसंद प्रत्याशी के पक्ष में वोट डालते हैं।
- चुनाव आयोग के मुताबिक 25 सितंबर तक मतदाता सूची में 7 करोड़ 29 लाख 75 हजार 565 मतदाता हैं, जिनमें प्रवासियों की संख्या 16 लाख 24 हजार है।
- इस बार मतदाता सूची में बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के नाम जोड़े गये हैं। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक करीब 67 लाख नए मतदाता बने हैं, जिनमें प्रवासियों की संख्या 16 लाख 24 हजार है।
- बिहार में 50 हजार से अधिक प्रवासी मतदाता वाले 12 जिले हैं। यहां प्रवासी बिहारियों का रुझान, चुनाव परिणाम को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है।
- सबसे अधिक 1 लाख 9 हजार 108 प्रवासी मतदाता पश्चिम चंपारण में हैं। जहानाबाद, अरवल, भागलपुर, मधुबनी, पूर्वी चंपारण, समस्तीपुर और सारण में लौटे सभी प्रवासी मजदूर, मतदाता सूची में शामिल कर लिए गए हैं।
- राज्य में धान की कटाई शुरु होनेवाली है। साथ ही दुर्गापूजा, दीपावली व छठ भी मतदान तिथि के आसपास है। यह समय वैसे भी प्रवासी मजदूरों के लौटने का होता है।
- प्रवासी मजदूरों में ज्यादातर पिछड़े और निम्न मध्यम वर्ग के हैं। अमूमन यह वर्ग चुनाव (Bihar election) और मतदान को लेकर सबसे अधिक जागरूक होता है।
- लॉकडाउन की पीड़ा झेल कर लौटे ये मतदाता इस बार अपने अधिकार और मतदान को लेकर ज्यादा सचेत होंगे और चुनाव (Bihar election) में हिस्सा लेकर बदलाव लाने की कोशिश करेंगे।

सरकार से शिकायत?
बिहार मूल के लगभग 36.06 लाख लोग महाराष्ट्र, यूपी, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब और असम में रहते हैं। उत्तर प्रदेश के बाद बिहार देशभर में सबसे सस्ते मजदूर मुहैया कराने वाला दूसरा बड़ा राज्य है। ये बिहारी मजदूर कई बार दूसरे राज्यों में हिंसा का शिकार हुए या डर कर वापस लौटे, लेकिन बिहार सरकार इनके लिए कोई रोजगार मुहैया नहीं करा सकी। नतीजतन इन्हें कोरोना के दौर में भी वापस उन्हीं राज्यों का रुख करना पड़ा, जहां से ये भागे थे। आइये एक बार फिर आपको याद दिलाएं इन मजदूरों की तकलीफें –
- साल 2018 में जब गुजरात में बिहारियों के खिलाफ हिंसा भड़की थी और ये मवेशियों की ट्रेन में भरकर ये लौटने लगे थे, तब भी सीएम नीतीश कुमार ने कहा था – “मैं गुजरात में रह रहे बिहार के लोगों से अपील करता हूं कि वे जहां हैं, वहीं रहें, भले कोई भी घटना हुई हो।”
- जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद लगे अनिश्चितकालीन कर्फ्यू के चलते घाटी में रहने वाले मजदूर 100-150 किलोमीटर तक पैदल चलकर रेलवे स्टेशनों तक पहुंचे थे और किसी तरह घर लौटे। उस वक्त भी बिहार सरकार ने ना तो उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाने का इंतजाम किया और ना ही रोजगार का आश्वासन दिया।
- कोरोना-काल में लॉकडाउन में फंसे बिहारी कामगारों ने जब बिहार सरकार से मदद की गुहार लगाई तो सरकार ने ये कहकर हाथ खड़े कर दिये कि वे लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन कर दूसरे राज्यों में फंसे लोगों को बिहार नहीं ला सकते हैं।
- इसी बीच सरकार ने अपने कुछ विधायकों, अफसरों और मंत्रियों को अपने बच्चों और अन्य रिश्तेदारों को लाने के लिए सरकारी पास जारी कर दिया। इस वजह से सरकार की काफी भद्द पिटी।
- बिहार सरकार ने मजदूरों के लिए ट्रेन टिकट की लागत का भी सरकारी ख़र्चे से भुगतान करने से इनकार कर दिया। इसे लेकर जमकर सियासत हुई। आरजेडी ने 50 ट्रेनों का किराया तो कांग्रेस ने सभी ट्रेनों के किराए का भुगतान पार्टी फ़ंड से देने की घोषणा कर दी।
- किसी तरह बिहार पहुंच गये प्रवासी मजदूरों को आने के बाद भी तमाम परेशानियां झेलनी पड़ीं। जैसे – मज़दूरों तक सही जानकारी नहीं पहुँचना, कैश हस्तांतरण की समस्या, क्वॉरंटीन सेंटर में सुविधाओं का अभाव, स्वास्थ्य केन्द्रों में जांच की सुविधा का अभाव आदि।

हम बदलेंगे हालात
2015 के विधान सभा चुनाव (Bihar election) में 60 से अधिक सीटों पर हार-जीत का अंतर 8 हजार वोट से कम रहा था। इसलिए प्रवासी बिहारियों की नाराजगी या समर्थन किसी भी राजनीतिक दल के लिए काफी मायने रखती है। लेकिन फिर भी किसी भी पार्टी ने इन मजदूरों की समस्या हल करने के लिए कोई ठोस और विश्वसनीय पहल नहीं की है। इन्हें लगता है कि जनता सिर्फ जाति के चश्मे से देखती है, लुभावने नारों को सुनती है और चुनावी वादों के सब्जबाग में सारे दुख-दर्द भूल जाती है। चुनाव (Bihar election) का नतीजा आने दीजिए, शायद तब राजनीति के इन धृतराष्ट्रों की, आंखों और अक्ल पर पड़ा पर्दा हटे जाए।