बिहार चुनाव: नतीजों के मायने!
बिहार चुनाव में तमाम पंडितों और एक्ज़िट पोल के नतीजों को धता बताते हुए जनता ने एक बार फिर एनडीए गठबंधन को सत्ता सौंप दी है। लेकिन बात सिर्फ एनडीए या बीजेपी की जीत…या तेजस्वी की हार की नहीं है। दरअसल चुनाव के नतीजों (Bihar election results) के कई गंभीर मायने हैं। जनता ने अपने मतदान के जरिए कई संदेश दिये हैं, जिन्हें समझना हमारे लिए भी उतना ही जरुरी है जितना नेताओं के लिए।
कोउ हो नृप हमें बस हानि!
इस चुनाव में जनता में ये कंफ्यूजन जरुर दिखा कि नीतीश सरकार को वापस लाया जाए, या तेजस्वी यादव को मौका दिया जाए। महागठबंधन को मिली लगभग आधी सीटें इसकी गवाह हैं। वहीं 50 से ज्यादा सीटों पर जीत का अंतर 5 हजार से भी कम है। इसलिए ये बात तो तय है कि जनता का मन और मत दोनों गठबंधनों में विभक्त था। लेकिन सवाल ये है कि जनता ने किसी एक पर पूरा विश्वास क्यों नहीं किया?
इसकी वजह ये है कि ना तो नीतीश जनता की उम्मीदें पूरी कर पाए, और ना ही तेजस्वी कुछ बेहतर करने का विश्वास दिला पाए। ऐसे में जनता को किसी से ज्यादा उम्मीद नहीं थी। बस उन्होंने ये सोचकर मतदान किया कि ऐसी पार्टी को वोट दूं, जिसमें कम से कम नुकसान हो। जिसने एनडीए को वोट दिया उन्हें लगा कि विकास ना भी हो, तो कम से कम लूट तो नहीं मचेगी। और जिन्होंने महागठबंधन को वोट दिया, उन्हें लगा कि शायद बेटे में पिता के अवगुण ना आए हों। ये चयन अच्छे और बुरे के बीच नहीं था, बुरे और ज्यादा बुरे के बीच था।
खत्म नहीं हुआ है लालूराज का डर!
एनडीए की जीत से ये संकेत भी मिलता है कि जनता अभी तक लालूराज की अंधेरगर्दी को भूली नहीं है। वरना तेजस्वी ने कौन-सा घोटाला किया था? उसका दोष बस इतना था कि वो अपने पिता और उनके कर्मों की छाया से बाहर निकल नहीं पाया। वैसे लगभग आधी जनता उसे एक मौका देने के मूड में आ चुकी थी…और शायद आनेवाले चुनाव में उसे अपनी इस इमेज से छुटकारा मिल जाए। लेकिन जनता ने लालटेन-राज को जो सबक सिखाया है, वो भविष्य के नेताओं के लिए भी है।
लोकतंत्र में कमतर नहीं है आधी आबादी!
ज्यादातर पार्टियों और नेताओं ने चुनाव में महिलाओं को अहमियत नहीं दी। किसी महिला को टिकट भी दिया, तो उसके पिता या पति के नाम पर। उनके चुनावी मुद्दे भी पुरुषों की जरुरतों जैसे – रोज़गार और पलायन से जुड़े थे। उनके एजेंडे में महिलाएं कहीं थीं ही नहीं। जबकि नीतीश का फोकस महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर ज्यादा रहा। शराबबंदी, साइकिल, कन्यादान, पेयजल जैसी योजनाओं ने महिलाओं को काफी राहत पहुंचाई। इसके अलावा केन्द्र सरकार की उज्जवला जैसी योजनाओं को जमीनी स्तर पर अमली जामा पहनाया गया।
महिलाओं ने विकास के आंकड़े नहीं देखे, निवेश का हिसाब नहीं देखा। उन्होंने अपनी जिन्दगी देखी, बिजली-पानी-सड़क-शिक्षा की सुविधा देखी। यही वजह है कि आधी आबादी ने अपनी दमदार वोटिंग से एनडीए गठबंधन की साख बचा ली। इसलिए अगली बार विपक्ष के नेताओं को समझना होगा कि महिलाओं और उनसे जुड़े मुद्दों को नज़रअंदाज करना भारी पड़ सकता है।
सरकार बनाओ या दूर रहो!
इस चुनाव में बिहार की जनता ने ये भी साबित किया कि उनका वोटिंग पैटर्न (Bihar election results) काफी सुलझा और समझदारी भरा है। मतदाताओं ने किसी ऐसी पार्टी को तवज्जो नहीं दी, जो सरकार नहीं बना सकती हो। जो भी पार्टियां गठबंधन से बाहर थी, उन्हें कोई खास कामयाबी नहीं मिली। चिराग पासवान तमाम प्रयासों के बावजूद एक भी सीट नहीं जीत पाए। यही हाल JAP या प्लूरल्स जैसी अन्य छिटपुट पार्टियों का रहा। यहां AIMIM की बात अलग है। उन्हें मुस्लिमों और दलितों का पूरा समर्थन मिला, क्योंकि कहीं ना कहीं मतदाताओं को विश्वास था, कि चुनाव परिणामों के बाद ये पार्टी महागठबंधन से हाथ मिला सकती है।
सामाजिक-आर्थिक असमानता भी है मुद्दा!
इस चुनाव में वामदलों की वापसी भी बिहार की राजनीति के लिए शुभ संकेत है। जहां, सालों से जाति और धर्म के आधार पर वोटिंग का इतिहास रहा हो, वहां वाम दलों का 14 सीटें हासिल करना कम बड़ी उपलब्धि नहीं। वैसे इसकी एक वजह ये भी रही, कि इस बार लेफ्ट पार्टियों राजद के विरोध में नहीं, बल्कि उसके साथ लड़ रही थीं। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि मध्य बिहार और दक्षिण बिहार के इलाकों में लेफ़्ट का जनाधार अब भी बचा हुआ है। इसका मतलब ये भी है कि गरीब जनता सामाजिक-आर्थिक विषमता से लड़ने के लिए जाति-धर्म से ऊपर उठकर भी मतदान कर सकती है।