bihar:चिराग, कुशवाहा और अंतरात्मा की आवाज!
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आरजेडी से 9 सीट कम जीत कर भी अंतरात्मा की आवाज पर 20 नवंबर 2015 को नीतीश कुमार ने संघ मुक्त भारत के संकल्प के साथ पांचवीं बार बिहार (bihar )के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। दो साल बाद…26 जुलाई 2017 को अंतरात्मा की ही आवाज पर आरजेडी से गठबंधन तोड़ लिया। 24 घंटे के अंदर फिर अंतरात्मा की आवाज सुन कर उन्होंने बीजेपी के समर्थन से छठी बार मुख्यमंत्री पद ग्रहण किया था।
बिहार (bihar ) में अंतरात्मा की आवाज को लेकर अभी टफ कंपीटिशन है। नीतीश कुमार की अंतरात्मा चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा की अंतरात्मा से टकरा रही है।
5 अक्टूबर को चिराग की अंतरात्मा ने पुकार कर कहा कि जेडीयू को मिला हर वोट बिहार(bihar ) के बच्चों को पलायन को मजबूर करेगा।
14 दिन में उन्हें यकीन हो गया कि जो उनकी राय है, वही बिहार(bihar ) के जनता की भी राय है। अब 71 विधायकों वाले जेडीयू को 2 विधायकों वाले एलजेपी से कम सीटों पर जीत मिलना तय है।
अब उनका हैशटैग है #असम्भवनीतीश
एलजेपी बिहार(bihar ) की राजनीति का वो शून्य है जिसकी खुद की ताकत भले कुछ नहीं, लेकिन जिस पार्टी के साथ ये जाती है उसकी ताकत दस गुना बढ़ जाती है। यानी इस पार्टी में गजब की वोट ट्रांसफरेबिलिटी है। स्वर्गीय रामविलास पासवान का इसी वजह से बिहार की हर पार्टी बड़ा सम्मान करती थी। रामविलास की बड़ी खूबी ये थी कि वो अपनी सीमाओं से वाकिफ थे। इसीलिए बिहार का सीएम बनने की महत्वाकांक्षा को दफन कर वो अकेले चुनाव लड़ने के बजाय गठबंधन बना कर चुनाव लड़ते थे। लेकिन रिस्क है तो ईश्क है वाले अंदाज में चिराग इस बार एनडीए से अलग हो कर चुनाव लड़ रहे हैं।
बिहार में एलजेपी का जेडीयू के खिलाफ सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने से राज्य में जेडीयू के खिलाफ पहले से मौजूद एंटीइनकमबैंसी की आग में घी गिर गया है, वहीं बीजेपी के रिजेक्ट कैंडिडेट्स को जेडीयू के खिलाफ टिकट देकर चिराग एनडीए के वोटबैंक में ही सेंध लगा रहे हैं। एलजेपी का कैडर पूरे बिहार में इतना मजबूत नहीं है कि वो बीजेपी कैंडिडेट्स को फायदा पहुंचा सके। इस तरह चिराग के होने से सबसे ज्यादा फायदा तेजस्वी यादव को है। शायद यही वजह है कि वो चिराग के लिए सहानुभूति जताने वाले अंदाज में कह रहे हैं कि जेडीयू ने चिराग के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया।
ऐन चुनाव के वक्त मोहभंग होना और अंतरात्मा की आवाज सुनने वालों में एक बड़ा नाम है उपेंद्र कुशवाहा का। अंतरात्मा की आवाज पर, 2019 का लोकसभा चुनाव आया तो उनका एनडीए से और अभी गठबंधन से उनका ताजा-ताजा मोहभंग हुआ है।
बिहार में मुस्लिम और यादव के बाद सबसे बड़ी आबादी कुशवाहा की है। कुर्मी से दोगुनी आबादी कुशवाहा के होने के बाद भी उपेंद्र कुशवाहा को जितनी लानत-मलामत नीतीश के हाथों झेलनी पड़ी है, उसके बाद लव-कुश की इस जोड़ी का टूटना लाजिमी था।
प्रोफेसर कुशवाहा केंद्र में शिक्षा राज्य मंत्री रहते बिहार के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाए, यहां तक कि उनके अपने गांव जावज( जिला-वैशाली, ब्लॉक- महनार) के बच्चे भी हाई स्कूल और इंटर की पढ़ाई के लिए 6 किमी दूर जाते हैं। लेकिन चुनाव में उनकी पार्टी अकेली है जो सबसे ज्यादा जोर शिक्षा पर दे रही है। देश में शिक्षकों के नौ लाख पद खाली हैं, इनमें से एक तिहाई यानी करीब तीन लाख अकेले बिहार में खाली हैं। जाहिर है शिक्षा बिहार की बड़ी चिंता है, लेकिन क्या जनता की बड़ी तस्वीर में कुशवाहा के लिए जगह है ?
इस समुदाय को 15 टिकट दे कर गैर यादव ओबीसी वोट बैंक को बरकरार रखने की नीतीश की रणनीति शायद कारगर साबित न हो। ये संभावना है कि ये समुदाय जेडीयू के खिलाफ मास वोटिंग करेगा, इसका थोड़ा फायदा कुशवाहा के GDSF- Grand Democratic Securlar Front को और ज्यादा फायदा तेजस्वी को होगा, क्योंकि वोट देते वक्त जनता जब किसी पार्टी के खिलाफ वोटिंग का मन बनाती है तो अपना वोट उस पार्टी को देती है जिसके जीतने की ज्यादा संभावना नजर आती है। यही वजह है कि 2012 के यूपी एसेंबली के चुनाव में जहां एसपी 140 से 160 सीटें जीतने की उम्मीद कर रही थी, वहीं बीएसपी के खिलाफ नाराज जनता ने बीएसपी को महज 80 सीटों पर समेट दिया और एसपी को उम्मीद से बहुत ज्यादा 224 सीटें मिलीं।
अतीत का अनुभव बताता है कि जितना भी तीसरा मोर्चा, चौथा मोर्चा बनता है, वो दो में से एक प्रमुख पार्टी के खिलाफ जाता है, जैसे हालिया दिल्ली एसेंबली चुनाव में कांग्रेस की वजह से बीजेपी को 6 और आप को 2 सीटों का नुकसान हुआ, झारखंड में जेवीएम की वजह से गठबंधन को 6 सीटों का नुकसान हुआ, ये सीटें बीजेपी के खाते में गई।
चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा बिहार के दो ऐसे नेता हैं जो खुद सीएम बनना चाहते हैं, लेकिन इस बार इन दोनों की भूमिका शायद बस इतनी ही है कि इनकी वजह से नीतीश कुमार सातवीं बार मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे।