अपराधी…जाति…और राजनीति!
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कानपुर प्रकरण के बाद अपराधी की जाति और धर्म को लेकर बड़ी चर्चाएंं चली हैं। ये तो सच है कि उसकी जाति भी होती है और धर्म भी…उसका परिवार भी होता है और रिश्तेदार भी….उसकी जाति के नेता भी होते हैं और अफसर भी।
ये भी सच है कि सजातीय लोग उसकी मदद करते हैं, भले ही अपराधी अपनी ही जाति के लोगों की हत्या क्यों न करे। वहीं, पुलिस इस सजातीय व्यवस्था में खाद-पानी डालने का काम करती रही है। पहले डाकुओं के दौर में यह समस्या एक अलग रूप में थी। वह समाप्त या लगभग न के बराबर रह गयी, तो शहरी या देहाती इलाके के सफेदपोश अपराधियों में कहीं और वीभत्स रूप में उभरकर सामने आ गई।
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चंबल घाटी में तमाम डाकू… जातीय गर्व के तौर पर आज भी जनमानस में मौजूद हैं। आखिर क्या वजह है कि आज भी उत्तर प्रदेश के एक छोर पर मान सिंह का मंदिर कायम है, जिसके बेटे तहसीलदार सिंह भाजपा के टिकट पर मुलायम सिंह से चुनाव लड़े थे? वे खुद इस बात की पुष्टि करते थे कि उन्होंने 100 पुलिस वालों को मारा था।
और क्या वजह है कि दूसरे छोर बुंदेलखंड में ददुआ का मंदिर है, जिसके बेटे को समाजवादी पार्टी ने राजनीतिक शक्ति दी? समर्पण के बाद चंबल के कई डाकुओं ने कांग्रेस का भी प्रचार किया। यही नहीं, जब मुलायम सिंह ने फूलन देवी को टिकट दिया था तो भी मिर्जापुर में जाति का गणित ही देखा थी। जाति और धर्म एक सच है। और हर राजनीतिक दल इसमें नंगा है। राष्ट्रीय दल इससे थोड़ा बचे हुए हैं लेकिन क्षेत्रीय दलों के कई नेता तक, दुर्दांत अपराधियों को कुलदीपक जैसा बताने से गुरेज नहीं करते रहे हैंं। क्या कोई सरकार जातीय स्वाभिमान के प्रतीक डाकुओं के सम्मान में बने इन मंदिरों को बंद कराने का साहस कर पाई है?
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अगर चंबल यमुना घाटी से लेकर नारायणी के बीहड़ों के डाकू गिरोहों के इतिहास को टटोलें तो पता चलता है कि दस्यु सरदार डोंगरी बटरी से लेकर मान सिंह, लोकमन दीक्षित, बीहड़ों में मान सिंह, मोहर सिंह, माधो सिंह, छिददा माखन, पान सिंह तोमर, पुतलीबाई, मलखान सिंह, छविराम, विक्रम मल्लाह ,फूलन देवी, ददुआ, ठोकिया, हनुमान कुर्मी, निर्भय गुज्जर जैसे तमाम दुर्दांत डकैत गिरोहों को, जातीय आधार पर राजनेताओं ने संरक्षण दिया। अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री काल में मध्य प्रदेश में रमेश सिकरवार ने आत्मसमर्पण किया तो उसने खुद ही अपने पसंदीदा सिकरवारी इलाके की जेल का चयन किया था, जो राजपूतों की दबंगई के लिए जाना जाता है।
समय बदला तो सफेदपोश अपराधियों ने नए तरीके से निकाल लिए। टिकट पाने से लेकर ठेका पाने तक। लेकिन जब कोई नया अपराधी पैदा होता है तो उसके आसपास सबसे पहले यही सजातीय तत्व सक्रिय हो जाते हैं। अगर नहीं होते हैं तो पुलिस उसके करीबी लोगों, घर-परिवार और सजातीय गांव वालों पर ऐसा ठप्पा लगा देती है कि वे न चाह कर भी उनके साथ खड़े होते हैं, जैसे नक्सलियों के साथ आदिवासी। यानी अगर आदिवासी है, तो नक्सली होगा ही…अपराधी है तो उसकी जाति के लोग अपराधी होंगे ही….या संरक्षण देंगे ही। पुलिस की हिस्ट्रीशीट में संरक्षण देने वाले सजातीय लोगों और गांवों का विवरण होता ही है।
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एक दौर था जबकि अपराध में राजपूत, ब्राह्मण और मुसलमान आगे होते थे। चंबल घाटी को देखें तो 80 के दशक के बाद वे पीछे हो गए और दलित और पिछ़ड़ी जाति के गिरोह सबसे आगे हो गए। यह समस्या समाप्त हुई तो नयी समस्या आ गयी। इस नाते जरूरी है कि अगर कोई अपराधी पैदा हो रहा है तो पुलिस उसकी जाति के लोगों को उसका संरक्षक मान कर सताना बंद करे। अपराधियों को महिमा मंडित करना भी बंद होना चाहिए। और सबसे बड़ी बात. राजनीतिक दल उनको टिकट और शक्ति देना बंद करें। अपराधियों की मदद लेने के बजाय बेहतर होगा कि राजनीतिक दल ग्रामीण इलाकों में नया नेतृत्व पैदा करें और अपना संगठन मजबूत करें। क्योंकि, यही हालत बनी रही तो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेश को बारूद के ढेर पर बैठने से कोई रोक नहीं सकेगा।
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अरविंद कुमार सिंह,पत्रकार एवं लेखक