डरबन से चम्पारण : मोहनदास से महात्मा
Share

“यह चंपारण (champaran) ही था, जिसने मुझे भारत से परिचित कराया।”
महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) (मीराबेन को 1921 में लिखे एक पत्र में)
कहते हैं कि इतिहास के कुछ पन्ने ऐसे होते हैं कि वे जब आपको छूते हैं या आप उन्हें पलटते हैं तो वह आपको कुछ नया बना देते हैं। चंपारण का गांधी-अध्याय ऐसे ही वो इतिहास के पृष्ठ हैं जो मोहनदास करमचंद गांधी (Mohandas karanchand Gandhi) को ‘महात्मा’ बनाते हैं… यानी इतिहास ने जिसके लिए उन्हें गढ़ा था। यह सब क्या था और कैसे हुआ था?
कानून की पढ़ाई इंग्लैंड से करने के बाद गाँधी जी सपरिवार दक्षिण अफ्रीका में बस गए थे। वकालत भी अच्छी खासी चल रही थी तभी मोरित्स्वर्ग स्टेशन पर एक मूढ़ मति टिकट चेकर ने उन्हें ट्रेन की प्रथम श्रेणी की बोगी से उतार फेंकने का दुस्साहस कर डाला। उस अंग्रेज टिकट चेकर को बिल्कुल भी यह ज्ञान नहीं था कि जिस काले भारतीय को ट्रेन से नीचे उतार रहा है, वह व्यक्ति एक दिन कभी सूरज अस्त न होने वाली सत्ता को उखाड़ फेंकेगा।

दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के धारदार हथियार का उपयोग कर, रंग और जातीय भेद के खिलाफ संघर्ष को जीतकर, 9 जनवरी 1915 में गांधीजी गोपाल कृष्ण गोखले के आग्रह पर भारत लौटे और गुजरात में साबरमती आश्रम की स्थापना की। फिर अपने राजनीतिक गुरु गोखले की सलाह पर भारत को जानने और जनता के दुख दर्द को समझने के लिए पूरे साल भर तक “आंख खुली मुंह बंद” कर भारत भ्रमण करते रहे। वह रेल में तीसरे दर्जे में यात्रा करते थे, क्योंकि उनका मानना था, “अगर भारत से मिलना है, तो रेल से अच्छा साधन कोई नहीं।” उन्होंने देश देखा, लोग देखे, प्रकृति और मौसम देखे, और देखा जातीय भेदभाव, छुआछूत, महिलाओं की निरीह स्थिति, अमीर और गरीब भारतीय में अंतर, दलितों की स्थिति, जमींदारों, सामंतों और साहूकारों का शोषण,अंग्रेजों का अत्याचार, और हर मान-अपमान को सह कर जीने का गुलाम भारतीय स्वभाव।

चंपारण बिहार के पश्चिमोत्तर भाग में है। उस समय बंगाल के अलावा नील की खेती यहीं होती थी। सन 1916 में लगभग 21,900 एकड़ जमीन पर आसामीबार, जिरात, तीन कठिया आदि प्रथाएं लागू थी। तीन कठिया मतलब हर बीघा में 3 कट्ठा जमीन पर नील की खेती करने को किसान विवश थे। उस समय चंपारण में 70 मील की फैक्ट्री थी और लगभग 30,000 मजदूर फैक्ट्रियों में शोषण के शिकार थे। चंपारण के किसानों से 46 प्रकार के कर वसूले जाते थे। कर वसूलने की प्रक्रिया भी बर्बर और अमानवीय थी। नील की खेती से भूमि बंजर होने का एक अलग भय था। गरीब किसान खाद्यान्न के बजाय नील की खेती करने के लिए बाध्य थे।

चंपारण सत्याग्रह के नायक निस्संदेह गांधीजी थे, परंतु इस आंदोलन के पीछे एक दुबला-पतला और कम पढ़ा-लिखा किसान था, जिसकी जिद ने गांधीजी को चंपारण आने के लिए मजबूर कर दिया था। उन्हें चंपारण लाने वाले इस किसान का नाम था राज कुमार शुक्ल। राजकुमार शुक्ल, शीतल राय, लोभराज सिंह, शेख गुलाब जैसे कुछ किसान नेता मोतिहारी कोर्ट में अंग्रेजों के विरुद्ध मुकदमा लड़ रहे थे। उनके वकीलों ने उन्हें सुझाव दिया कि वह बैरिस्टर गांधी से मिलें जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मूल के लोगों के लिए अंग्रेजो के खिलाफ सफलतापूर्वक न्याय की लड़ाई जीती है।

दिसंबर 1916 में लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में राजकुमार शुक्ल गांधी जी से मिले और अपने इलाके के किसानों की पीड़ा और अंग्रेजों की शोषण की कहानी बताई और इसे दूर करने का आग्रह किया। गांधीजी पहली मुलाकात में इस शख्स से प्रभावित नहीं हुए और अनमने मन से कहा, “मैं चंपारण का भ्रमण करूंगा और एक-दो दिन ठहर कर अपनी नजरों से वहां का हाल भी देखूंगा। बिना देखे इस विषय पर मैं कोई राय नहीं दे सकता।” गांधीजी लखनऊ से कानपुर चले गए तो शुक्ल जी वहां भी पहुंच गये और गांधी जी से सिर्फ एक दिन के लिए चंपारण चलने का आग्रह किया। गांधीजी ने चंपारण जाने का वचन दे तो दे दिया, लेकिन तिथि नहीं बताई। जिद्दी किसान शुक्ल जी अहमदाबाद में उनके आश्रम भी पहुंच गए और जाने की तारीख बताने की जिद की। गांधीजी ने कहा कि वह 7 अप्रैल को कलकत्ता जा रहे हैं, आप भी वहां पर पहुंचें, वहां से मैं आपके साथ चंपारण चलूंगा। गांधी जी ने लिखा है, “इस अपढ़, अनगढ़ लेकिन निश्चयी किसान ने मुझे जीत लिया।”
यदि राजकुमार शुक्ल और उनकी जिद न होती तो चंपारण आंदोलन से गांधी का जुड़ाव शायद ही संभव हो पाता। अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ के पांचवें भाग के बारहवें अध्याय ‘नील का दाग’ में गांधी जी लिखते हैं, “लखनऊ कांग्रेस में जाने से पहले तक मैं चंपारण का नाम तक न जानता था। नील की खेती होती है, इसका तो ख्याल भी न के बराबर था। इसके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी भी मुझे कोई जानकारी न थी।” उन्होंने आगे लिखा है, “राजकुमार शुक्ल नाम के चंपारण के एक किसान ने वहां मेरा पीछा पकड़ा। वकील बाबू (ब्रजकिशोर प्रसाद, बिहार के उस समय के नामी वकील और जयप्रकाश नारायण के ससुर) आपको सब हाल बताएंगे, कहकर वे मेरा पीछा करते जाते और मुझे अपने यहां आने का निमंत्रण देते जाते।”

गांधी जी ने 10 अप्रैल 1917 को पहली बार बिहार की धरती पर पांव रखे थे। दिन के पहले पहर पटना रेलवे स्टेशन पर चंपारण के किसान नेता राजकुमार शुक्ल के साथ उतरे थे। हालांकि तब उन्हें बिहार में इक्का-दुक्का लोग ही जानते थे…. वह भी सिर्फ नाम से। इसलिए उस दिन गांधीजी को लेने स्टेशन पर कोई आया भी नहीं था। गांधी राज कुमार शुक्ल के साथ पटना स्टेशन पर उतर तो जाते हैं लेकिन शुक्ल को समझ नहीं आता कि रात में गांधी को ठहराए कहाँ? उनका मुकदमा लड़ रहे एक वकील पटना में रहते हैं। वो गाँधीजी को उनके यहाँ ले जाते हैं। जब वो उनकी कोठी पर पहुंचते हैं तो बाहर एक नेम प्लेट देखते हैं जिस पर राजेंद्र प्रसाद लिखा हुआ है। वे बिल्कुल आम आदमी की तरह डॉ राजेंद्र प्रसाद के बुद्ध मार्ग स्थित आवास पर पहुंचे। पता चलता है कि राजेंद्र प्रसाद तो घर पर नहीं हैं, पुरी गए हुए हैं। जब शुक्ल कहते हैं कि ये हमारे मेहमान हैं। उनको यहाँ ठहराना है तो नौकर लोग बरामदे में उस जगह उन्हें बिस्तर बिछाने की जगह दे देते हैं, जहाँ मुवक्किलों को ठहराया जाता है।
गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी उनकी जीवनी ‘मोहन दास’ में लिखते हैं, “राजेंद्र प्रसाद के नौकरों को गांधी वेशभूषा से संभ्रांत व्यक्ति नहीं लगे। इसलिए वो गांधी को न तो कुंए से पानी निकालने की इजाज़त देते हैं और न ही घर के अंदर का शौचालय इस्तेमाल करने देते हैं। तभी गांधी को ध्यान में आता है कि उनके साथ लंदन में पढ़ने वाले मज़हरुल हक़ इसी शहर में रहते हैं। वो उन तक संदेशा भिजवाते हैं और वो खुद उन्हें लेने अपनी कार में पहुंचते हैं।” मज़हरुल हक ही गांधी को मुज़फ़्फ़रपुर जाने वाली ट्रेन में बैठाते हैं। 10 अप्रैल की शाम को ही वे मुजफ्फरपुर के लिए रवाना हो गए।

गांधीजी जब मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर उतरे तब रात हो चुकी थी। एल एस कालेज के उस समय के प्रिंसिपल आचार्य जे बी कृपलानी और उनके विद्यार्थियों ने उनका स्वागत किया। स्टेशन से ड्यूक हॉस्टल तक गांधीजी एक बग्घी में आये, जिसे विद्यार्थियों ने खुद खींचा था। गांधीजी वहां 5 दिनों तक रुके और स्थानीय कांग्रेस नेताओं व स्वतंत्रता सेनानियों से मिले। यहीं पर गांधीजी की मुलाकात बृजकिशोर प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण, बाबू गया प्रसाद सिंह, रामनवमी प्रसाद, जे बी कृपलानी इत्यादि प्रसिद्ध वकीलों और नेताओं से हुई।
गांधी जी चंपारण के ज़िला मुख्यालय मोतिहारी स्टेशन पर 15 अप्रैल 1917 को तीन बजे दोपहर में उतरे, जहां सैकड़ों किसानों ने उनका स्वागत किया। वहां बाबू गोरख प्रसाद के घर पर उन्हें ठहराया गया। सभी जानने को उत्सुक थे की गांधीजी का अगला कदम क्या होगा। तभी पट्टी-जसौली गाँव के एक किसान लोमराज सिंह के यहां अत्याचार की ताज़ा खबर आयी। सुबह गांधी पट्टी-जसौली जाने के लिए तैयार। धरणीधर बाबू और रामनवमी बाबू साथ निकले। सवारी मंगाई गई हाथी। जलता हुआ सूरज सिर पर है और गर्म हवा झुलसा रही थी। गांधी ने कभी हाथी की सवारी की नहीं थी और वह भी तीन आदमी एक साथ। लगभग टंगी हुई हालत में सफर शुरू।
प्रशासन भी तैयार था। रास्ते में हाथी से उतर कर बैलगाड़ी, बैलगाड़ी से उतर कर इक्का और इक्का से उतर कर टमटम की यात्रा करवाता है और फिर जिला छोड़ कर चले जाने का फरमान थमा देता है। “मुझे इसका अंदेशा तो था ही।” कह कर गांधी चंपारण के जिलाधिकारी का आदेशपत्र लेते हैं। लिखा है, “आपसे अशांति का खतरा है।” गांधी यह आदेश मानने से सीधे इनकार कर देते हैं। वे अपने साथियों में पहले से बना कर लाया वह हिदायतनामा बांट देते हैं, जिसमें लिखा है कि अगर उनकी गिरफ्तारी होती है तो किसे क्या करना है। यह सब तो अभूतपूर्व था।

अगले दिन, 18 अप्रैल 1917 को गांधीजी मोतिहारी जिला न्यायालय में पेश हुए। बात सारे चंपारण में फैल गई थी कि अब गांधीजी का चमत्कार होगा। कचहरी में किसानों का रेला उमड़ पड़ा था। जज जॉर्ज चन्दर ने पूछा कि गांधी साहब आपका वकील कौन है, तो गांधीजी ने जवाब दिया कोई भी नहीं। गांधी बोले, “मैंने जिलाधिकारी के नोटिस का जवाब भेज दिया है। जज बोला, “वह जवाब अदालत में पहुंचा नहीं है।” गांधीजी ने अपने जवाब का कागज निकाला और पढ़ना शुरू कर दिया।
कचहरी में इतना सन्नाटा था कि गांधीजी के हाथ की सरसरहाट तक सुनाई दे रही थी। और उन्होंने कहा, “अपने देश में कहीं भी आने-जाने और काम करने की आजादी पर वे किसी की, कैसी भी बंदिश कबूल नहीं करेंगे। हां, जिलाधिकारी के ऐसे आदेश को न मानने का अपराध मैं स्वीकार करता हूं और उसके लिए सजा की मांग भी करता हूं।” न्यायालय ने ऐसा अपराधी नहीं देखा था जो बचने की कोशिश ही नहीं कर रहा था। जज ने कहा कि 100 रूपये से जमानत ले लो तो जवाब मिला, “मेरे पास जमानत भरने के पैसे नहीं हैं।” जज ने फिर कहा कि बस इतना कह दो कि तुम जिला छोड़ दोगे और फिर यहां नहीं आओगे तो हम मुकदमा बंद कर देंगे। गांधीजी ने कहा, “यह कैसे हो सकता है? आपने जेल दी तो उससे छूटने के बाद मैं स्थाई रूप से यही चंपारण में अपना घर बना लूंगा।”

यह सब चला और फिर कहीं दिल्ली से निर्देश आया कि इस आदमी से उलझो मत, मामले को आगे मत बढ़ाओ और गांधी को अपना काम करने दो। बस, यही सरकारी आदेश वह कुंजी बन गई, जिससे सत्याग्रह का ताला खुलता है। ताला क्या खुलता है सारे वकील, प्रोफेसर, युवा, किसान-मजदूर सब खिंचते चले आए और जितने लोग उनके करीब आए, सभी बदल गये, उनरे रंग में रंग गये।
बिहार और उड़ीसा के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने मजबूर होकर ऍफ़ जी सलाय के नेतृत्व में चम्पारण जाँच आयोग नियुक्त किया एवं गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया। आयोग ने 8000 से ज्यादा किसानों और मजदूरों के बयान रिकार्ड किये और 3 अक्टूबर १९१७ को रिपोर्ट सरकर को प्रस्तुत की। बिहार की विधान परिषद् ने कानून बनाकर तीन कठिया और सभी गलत प्रथाओं को समाप्त कर दिया। जमींदार के लाभ के लिए नील की खेती करने वाले किसान अब अपने जमीन के मालिक बने। गांधीजी ने भारत में सत्याग्रह की पहली विजय का शंख फूँका। चम्पारण ही भारत में सत्याग्रह की जन्म स्थली बना। गांधी शाँति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशाँत बताते हैं, “वैसे देखा जाये तो चंपारण में दरअसल सत्याग्रह तो हुआ ही नहीं था। एक भी जुलूस नहीं निकला। एक भी धरना नहीं हुआ। कहीं नारा लगाने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी।“

भारत की आज़ादी की लड़ाई में चंपारण सत्याग्रह को मील का पत्थर माना जाता है। इसी आंदोलन की वजह से भारतवासियों ने मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा के तौर पर पहचाना। यही वो जगह थी जहाँ गांधी ने अहिंसा और सत्याग्रह को एक कामयाब विचार के रूप में घर-घर पहुंचाया। आप जीवन में एक ठौर ढ़ूढ़ते हैं, जहाँ पैर टिका कर आगे बढ़ते हैं। चंपारण… गांधीजी के राजनीतिक जीवन का एक ऐसा ही अहम ठौर था।

लेखक – मंजुल मयंक शुक्ल ([email protected])