फिर वही ढाक के तीन पात!
आपने ये मुहावरा तो सुना ही होगा – वही ढाक के तीन पात। यानी हमेशा एक जैसी दशा में रहना, स्थिति में कभी कोई बदलाव ना आना। कई बार ये दयनीय दशा को भी इंगित करता है। ये कहावत इसलिए मशहूर है क्योंकि ढाक या पलाश के पेड़ के पत्ते हमेशा सिर्फ तीन की संख्या में ही निकलते हैं और इन पत्तों की दशा में भी कोई बदलाव नहीं आता, चाहे वो पेड़ पर लगे हों या धरती पर गिरे हों।
सोमवार को कांग्रेस (congress) की बैठक के बाद जो नतीजा आया, उसे कम शब्दों में… इसी मुहावरे से समझा जा सकता है। सोमवार शाम सात घंटे चली कांग्रेस कार्यसमिति (CWC) की बैठक में आखिरकार यही फैसला हुआ…कि छह महीने बाद फिर से एक बैठक बुलाई जाएगी, और तब तक सोनिया गांधी ही कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनी रहेंगी।
क्या थे मुद्दे?
अंधेरा इसलिए नहीं होता कि अंधकार की ताकत ज्यादा होती है, बल्कि इसलिए होता है कि सूरज कमजोर पड़ जाता है…थककर… शाम के धुंधलके में कहीं छुप जाता है। कांग्रेस को लेकर भी पिछले कुछ सालों से यही स्थिति दिख रही है। कांग्रेस के तमाम पुराने नेता और शुभचिंतक इसकी बदहाली को लेकर चिंता में थे और समय-समय पर दबे स्वर में ही संगठन को मजबूत करने और बचाने की मांग कर रहे थे।
पिछले कुछ सालों में सोनिया गांधी (sonia gandhi) की बिगड़ती तबीयत को देखते हुए उनसे सक्रिय राजनीति की उम्मीद खत्म होती जा रही थी….और राहुल गांधी तमाम प्रयासों के बावजूद पूर्णकालिक सक्रिय राजनीति में उतर नहीं रहे थे। इसी बीच 23 वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी और कांग्रेस को बचाने के लिए… एक सक्रिय अध्यक्ष बनाने और संगठन में ऊपर से लेकर नीचे तक बदलाव की मांग रखी। सोमवार की बैठक में यही एजेंडा था…लेकिन मुद्दा पीछे छूट गया…चमचागिरी आगे निकल गई। कांग्रेस पीछे रह गई….गुटबाजी जीत गई।
बैठक(meeting) में क्या हुआ?
वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से हुई सीडब्ल्यूसी की इस बैठक में सोनिया गांधी फैसले के मूड से आई थीं और उन्होंने बैठक की शुरुआत में ही पद छोड़ने की पेशकश की और कहा कि सीडब्ल्यूसी नया अध्यक्ष चुनने के लिए प्रक्रिया आरंभ करे। लेकिन नेतृत्व के मुद्दे पर कांग्रेस साफ तौर पर दो खेमों में बंटी नजर आई। ऐसी स्थिति बनने पर आखिरकार यही फैसला लिया गया कि अगले छह महीने के बाद फिर से सीडब्ल्यूसी की बैठक बुलाई जाएगीऔर तब तक के लिए सोनिया गांधी ही पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष रहेंगी। हालांकि, रोजाना के कामकाज में सोनिया गांधी की मदद के लिए एक समिति का गठन किया जाएगा।
बैठक में और दो अहम बातें हुईं। सोनिया गांधी ने बैठक के खत्म होने पर कहा कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को पार्टी फोरम पर ही चिंता व्यक्त करनी चाहिए। यानी कांग्रेस का अंदरुनी मामला….अंदर ही रहे…पब्लिक में ना जाए। वहीं, पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने चिट्ठी की टाइमिंग को लेकर सवाल उठाए और इसी बहाने पार्टी में नेतृत्व के मुद्दे पर सोनिया गांधी को पत्र लिखने वाले नेताओं पर निशाना साधा।
इस पर चिट्ठी लिखने में शामिल गुलाम नबी आजाद ने इस्तीफे की पेशकश की। कपिल सिब्बल ने भी इस मुद्दे पर राहुल गांधी(rahul gandhi) को मैसेज कर अपना विरोध जताया। बाद में मामले की लीपापोती कर ‘सब कुछ ठीक है’ का माहौल बनाया गया।
क्यों जरुरी है बदलाव?
इसका जवाब तो उस चिट्ठी (letter) में ही है, जो सोनिया गांधी को भेजा गया था। आईये आपको बताते हैं… उसमें क्या मांग रखी गई थी –
- इसमें केंद्रीय संसदीय बोर्ड के गठन जैसे सुधार लाने बात कही गई है। कांग्रेस में केंद्रीय संसदीय बोर्ड 1970 के दशक तक था, लेकिन उसे बाद में खत्म कर दिया गया।
- इसमें सामूहिक रूप से फैसले लेने पर बल दिया गया है, साथ ही उस प्रक्रिया में गांधी परिवार को ‘अभिन्न हिस्सा’ बनाने की दरख्वास्त की गई है।
- इन नेताओं ने पूर्णकालिक नेतृत्व यानी अध्यक्ष की नियुक्ति की मांग की है, जो सक्रिय हो और जिससे कार्यकर्ता और नेता आसानी से संपर्क कर सकें।
- इसमें पार्टी संगठन में प्रखंड स्तर से लेकर कार्यसमिति के स्तर तक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की भी मांग रखी है।
इसमें भला ऐसी कौन की मांग है, जिस पर किसी पार्टी में बात ना की जा सके? वैसे, इस चिट्ठी में साफ संकेत है कि अगर सोनिया गांधी या राहुल गांधी पूर्णकालिक और सक्रिय अध्यक्ष के तौर पर काम नहीं कर सकें…तो किसी और अध्यक्ष बनाया जाए।
निष्कर्ष क्या निकाला जाए?
बैठक के बाद पार्टी नेता पीएल पूनिया ने कहा, ‘सदस्यों ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी में विश्वास व्यक्त किया और उनसे पार्टी का नेतृत्व जारी रखने के लिए आग्रह किया। इस पर वह सहमत हो गईं।’ सवाल ये है कि अगर यही करना था, तो बैठक बुलाने की जरुरत क्या थी? कुल मिलाकर यानी एक बार फिर कांग्रेस में व्यक्ति-पूजा में शामिल…स्वार्थी तत्व हावी रहे और पार्टी के प्रति वफादार लोगों की आवाज दब गई।
कांग्रेस को जल्द ही ये तय करना होगा कि उनके लिए नेता बड़ा है या पार्टी। और ये फैसला सोनिया गांधी को ही लेना होगा…क्योंकि ना तो किसी दूसरे नेता में ये साहस है और ना ही कांग्रेस के चाटुकारों की फौज किसी को बोलने देगी। ऐसे में देर-सबेर सोनिया गांधी को ये समझना ही होगा कि अगर कांग्रेस का सितारा डूबेगा….तो उसके साथ ही गांधी परिवार का राजनीतिक भविष्य भी। उससे बेहतर तो यही होगा कि कांग्रेस को किसी तरह बचाएं….क्योंकि हो सकता है उसके साथ-साथ राहुल गांधी का भविष्य भी संवर जाए।