क्लास ऑफ 83!
इस शुक्रवार नेटफ्लिक्स पर एक और फिल्म रिलीज़ हुई है – ‘क्लास ऑफ 83‘। एस. हुसैन जैदी के नॉन-फिक्शन उपन्यास पर आधारित ये फिल्म 80 के दशक की पृष्ठभूमि पर बनी है, जो दरअसल हमारे सिस्टम की क्लास लेती…सिस्टम की सच्चाई उधेड़ती दिखती है। इस फिल्म को प्रोड्यूस किया है शाहरुख खान की कंपनी रेड चिलीज एंटरटेन्मेन्ट ने और इसके निर्देशक हैं अतुल सबरवाल।
अंडरवर्ल्ड और राजनीति के बीच पिसते पुलिस महकमे और इस पर काबू पाने के लिए अपनाए जाने वाले कानूनी-गैरकानूनी और हिंसक हथकंडों के इर्द-गिर्द, तमाम मुद्दों को छूती…एक सच्ची-सी कहानी है फिल्म ‘क्लास ऑफ 83’।
क्या है कहानी?
नासिक पुलिस अकाडमी में कुछ कैडेट्स हैं….जो बैक-बेंचर्स हैं, पढ़ाई में फिसड्डी हैं…लेकिन ईमानदार और डेयरिंग हैं। उनकी हिम्मत और दोस्ती कुछ ऐसी है कि अकाडमी के डीन भी उन्हें एक और मौका देता है। अकाडमी का डीन विजय सिंह, एक काबिल और ईमानदार पुलिस अधिकारी है, जिसे पनिशमेंट पोस्टिंग के तहत अकाडमी में भेजा गया है। विजय सिंह को इन पांच युवा रंगरुटों में संभावना दिखती है, और वो उन्हें करप्ट सिस्टम में रहते हुए, उससे बचते हुए अपना काम पूरा करने के तरीके सिखाता है। जब ये पुलिस वाले डयूटी ज्वाइन करते हैं, तो विजय सिंह की ट्रेनिंग इनके काम आती है और अधिकारियों-नेताओं की कार्रवाई से बचते हुए ये अपराधियों का सफाया करने में जुट जाते हैं।
लेकिन समय के साथ उनकी दोस्ती में दरार आने लगती है और एनकाउंटर की संख्या और अंडरवर्ल्ड की कमाई को लेकर आपस में होड़ शुरु हो जाती है। इन पर काबू पाने के लिए एक बार फिर डीन विजय सिंह को ड्यूटी पर बुलाया जाता है। क्या डीन विजय सिंह इन नये रंगरुटों को सही राह पर ला पाता है? क्या विजय सिंह अपराधियों के खात्मे की मुहिम में कामयाब हो पाता है? इन सवालों के जवाब के लिए आपको पूरी फिल्म देखनी होगी।
कैसा है अभिनय?
इसमें कोई दो राय नहीं कि यह बॉबी देओल की फिल्म है…। एक दौर था जब बॉबी अपनी बड़े बालों और नशीली आंखों के दम पर फ़िल्में हिट करा देते थे…लेकिन वो दौर गुजर चुका है। 25 सालों के करियर में बॉबी देओल ने पहली बार पुलिस अधिकारी की वर्दी पहनी है…और पहली बार डिजिटल प्लेटफॉर्म पर काम किया है। इसके साथ ही यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘क्लास ऑफ 83’ से एक्टर बॉबी देओल की बॉलीवुड में दूसरी इनिंग शुरू हुई है। यह फ़िल्म उनके करियर को एक नई ऊंचाई दे सकती है।
कई सालों तक फ़िल्म इंडस्ट्री से दूर होने के बाद जब साल 2017 में बॉबी देओल की बड़े पर्दे पर वापसी हुई, तब से उन्हें कोई भी बड़ा रोल नहीं मिला था। अब बॉबी देओल ‘क्लास ऑफ 83’ में एक सशक्त भूमिका में नजर आए हैं…और पूरी फिल्म को उन्होंने अकेले अपने दम पर संभाला है…। एक्शन और इमोशन…दोनों तरह के सीन्स में बॉबी सहज और शानदार लगे हैं।
फिल्म में अनूप सोनी, जॉय सेनगुप्ता, विश्वजीत प्रधान, हितेश भोजराज, समीर परांजपे, निनाद महाजनी और पृथ्विक प्रताप जैसे कलाकार भी अहम भूमिका में हैं। सभी ने अपने रोल के साथ न्याय किया है। इस फिल्म के जरिए तीन नए एक्टर्स हितेश भोजराज, भूपेंद्र जादावत और समीर परांजपे ने डेब्यू किया है, लेकिन उनके काम से ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि ये उनकी पहली फिल्म है।
कैसी है स्क्रिप्ट?
‘क्लास ऑफ़ 83’ की कहानी एस. हुसैन ज़ैदी के उपन्यास ‘क्लास ऑफ़ 83- द पनिशर्स ऑफ़ मुंबई’ से ली गयी है। खोजी पत्रकार रहे ज़ैदी अंडरवर्ल्ड पर किताबें लिखने के माहिर माने जाते हैं।उनकी लिखी किताब ‘डोंगरी टू दुबई’ भी काफी चर्चित रही है। मुंबई धमाकों पर आधारित उनकी किताब ‘ब्लैक फ्राइडे’ पर अनुराग कश्यप ने इसी नाम से फिल्म भी बनायी थी।
फिल्म के लिए स्क्रीनप्ले लिखा है अभिजीत देशपांडे ने। फिल्म की कहानी बैकग्राउंड से बताई गई है और इसकी भाषा और संवाद काफी जानदार है। इसके कुछ डॉयलॉग काफी अच्छे लिखे गये हैं…जैसे ‘हर बॉडी का इम्यून सिस्टम होता है, गवर्नमेंट बॉडी, एजुकेशनल बॉडी, जूडिशियल बॉडी, ये सब मजबूत किले हैं। इनका इम्यून सिस्टम इतना सख्त होता है कि इन्हें बाहर की मार से हिलाया नहीं जा सकता, इन्हें अंदर से बीमारी की तरह सड़ाना पड़ता है…।’
इसी तरह बॉबी देओल का ये डायलॉग – “कोई क्या करे अगर वो अपने आसपास काम करने वालों से बेहतर हो। सिस्टम से बेहतर हो। गला घोंट दे वो अपने टैलेंट का? बन जाए मीडियॉकर किसी 50 करोड़, 100 करोड़ क्लब के मेंबर्स की तरह?…अच्छा हुआ कि तुम लोगों ने जो कुछ मुझसे सीखा, कम से कम मेरा गेम खेलने का तरीका नहीं सीखा।”
कैसा है निर्देशन?
आपको बता दें कि अतुल सभरवाल ने इससे पहले ‘औरंगज़ेब’ निर्देशित की थी। ‘क्लास ऑफ़ 83’ में भी अतुल की पकड़ और संतुलन साफ़ नज़र आता है….लेकिन फिर भी इसमें ‘औरंगजेब’ जैसी बात नहीं है। वैसे अतुल ने कहानी को कहीं भटकने नहीं दिया और सभी कलाकारों का सही इस्तेमाल किया है। लेकिन सेकेंड हाफ में उनकी पकड़ कमजोर होती दिखती है।
कहां रह गई कमी?
मोटे तौर पर यही कहा जा सकता है कि फिल्म अपने सब्जेक्ट के साथ न्याय नहीं कर पाई। फिल्म में एक साथ कई मुद्दों को छूने की कोशिश की गई है…जैसे – मुंबई में अंडरवर्ल्ड का उदय, कॉटन मिल्स की बंदी, कामगारों की हड़ताल, बढ़ती बेरोजगारी और इसके साथ बढ़ता अपराध..। लेकिन किसी मुद्दे को ठीक से रखा या फिल्म से जोड़ा नहीं गया।
फिल्म की कहानी जिस पर आधारित थी, यानी मुंबई पुलिस के पहले स्पेशल सेल (एनकाउंटर स्क्वॉड) की, उसकी कहानी भी आधी-अधूरी रह गई। शायद डेढ़ घंटे की फिल्म में पूरे उपन्यास को समेटने की कोशिश की गई और मुख्य मुद्दा इनमें उलझकर रह गया।
क्यों देखें फिल्म?
फिल्म 80 के दशक की मुंबई पर आधारित है और उसे पूरी मौलिकता से दिखाया गया है। ब्लैक एंड ह्वाइट के ज़माने वाली मुंबई की खूबसूरती आंखों को अच्छी लगती है। पूरी फिल्म में एक एलिगेंस नजर आता है। बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के मिजाज से पूरा मैच करता है। बॉबी देओल सहित तमाम कलाकारों ने बेहतरीन काम किया है, और घिसी-पिटी कहानी होने के बावजूद फिल्म कहीं से बोझिल नहीं लगती।