बिहार में का बा?
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बिहार (Bihar) में चुनाव (election) होनेवाले हैं और जनता के सामने असली मुद्दों की कमी नहीं…सच्चे नेताओं की भले ही हो। चुनाव पर बात करने से पहले आईये थोड़ा बिहार को जान लें। सन 1912 में बंगाल के विभाजन के बाद बिहार राज्य अस्तित्व में आया। सन 1935 में उड़ीसा और सन 2000 में झारखंड को बिहार से विभाजित कर दिया गया। भारत के पूर्वी भाग में स्थित बिहार देश का सबसे अधिक आबादी वाला तीसरा राज्य और क्षेत्रफल में 13वां सबसे बड़ा राज्य है। अर्थव्यवस्था के लिहाज से बिहार भारत के गरीब राज्यों की श्रेणी में आता है। ताज़ा आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति आय ₹135 हज़ार है जिसकी बिहार की प्रति व्यक्ति आय मात्र ₹43 हज़ार है। वर्तमान में बिहार में 38 जिले हैं, लोकसभा की 40, राज्यसभा की 16, और विधानसभा की 243 सीटें हैं। प्रकृति ने बिहार को अपनी ओर से खूब धनी बनाया है। गंगा, गंडक, बागमती, कमला, कोशी, फल्गु जैसे नदिया बिहार की भूमि को दुनिया की सबसे उपजाऊ भूमि में से एक बनाती है। लेकिन राज्य की स्थापना से लेकर आज तक बिहार का इतिहास उपेक्षा, पिछड़ेपन, जातिगत संघर्ष, गरीबी, शोषण और उत्पीड़न का इतिहास रहा है।

बिहार का इतिहास स्वर्णिम
‘बिहार’ शब्द संस्कृत और पाली भाषा के शब्द “विहार” से बना है जिसका अर्थ होता है निवास। बिहार नाम की उत्पत्ति बौद्ध संन्यासियों के ठहरने के स्थान “विहार” शब्द से हुई, कालान्तर में जिसका अपभ्रंश रूप “बिहार” ज्यादा प्रचलित हो गया। कहते हैं कि सम्राट अशोक के समय मगध (बिहार) में 19,000 बौद्ध विहार थे। बिहार का प्राचीन इतिहास अत्यंत गौरवशाली और वैभवशाली है। यहां ज्ञान, अध्यात्म व सभ्यता- संस्कृति की ऐसी अविरल धारा प्रवाहित हुई जिससे न केवल भारत अपितु पूरा विश्व लाभान्वित हुआ। बिहार के ऐतिहासिक नगर वैशाली को दुनिया का पहला गणतंत्र माना जाता है। देश का सबसे पुराना हिंदू मंदिर ‘मुंडेश्वरी’ बिहार में ही है। अहिंसा की अवधारणा बिहार की ही देन है। गौतम बुद्ध और भगवान महावीर ने 2600 साल पहले अहिंसा की अवधारणा विकसित की। बिहार जैन और बौद्ध धर्म की जन्मस्थली भी है। बिहार सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह का जन्मस्थान है। सिखों का पवित्र स्थान हरमंदिर तख्त पटना में है। छठ
महापर्व वैदिक काल से ही मनाया जाता है और बिहार की सांस्कृतिक पहचान है। डूबते हुए सूर्य की पूजा का यह पर्व दुनिया में इकलौता उदाहरण है। प्राचीन काल में नालन्दा विश्वविद्यालय शिक्षा, संस्कृति और शक्ति का केंद्र था। बिहारी आज भी गणित में माहिर होते हैं और बिहार आईएएस बनाने की फैक्ट्री माना जाता है।
“कुमार अभिषेक” ने बहुत ही सुंदर शब्दों में बिहार के गौरवशाली इतिहास का चित्र खींचा है ..
चाणक्य की नीति हूँ , आर्यभट्ट का आविष्कार हूँ मैं । महावीर की तपस्या हूँ , बुद्ध का अवतार हूँ मैं।।
अजी हाँ! बिहार हूँ मैं।।
सीता की भूमि हूँ , विद्यापति का संसार हूँ मैं। जनक की नगरी हूँ, माँ गंगा का श्रृंगार हूँ मैं।।
अजी हाँ! बिहार हूँ मैं।।
चंद्रगुप्त का साहस हूँ , अशोक की तलवार हूँ मैं। बिंदुसार का शासन हूँ , मगध का आकार हूँ मैं।।
अजी हाँ! बिहार हूँ मैं।।
दिनकर की कविता हूँ, रेणु का सार हूँ मैं। नालंदा का ज्ञान हूँ, पर्वत मन्धार हूँ मैं।।
अजी हाँ! बिहार हूँ मैं।
वाल्मिकी की रामायण हूँ, मिथिला का संस्कार हूँ मैं। पाणिनी का व्याकरण हूँ , ज्ञान का भण्डार हूँ मैं।।
अजी हाँ! बिहार हूँ मैं।
राजेन्द्र का सपना हूँ, गांधी की हुंकार हूँ मैं। गोविंद सिंह का तेज हूँ , कुंवर सिंह की ललकार हूँ मैं।।
अजी हाँ! बिहार हूँ मैं।।
क्या है आज की स्थिति?
हर बिहारी को अपने इस गौरवशाली अतीत पर गर्व होना चाहिए लेकिन अपनी वर्तमान स्थिति को भी नहीं भूलना चाहिए। हालांकि बिहार और बिहारियों की वर्तमान स्थिति किसी से छिपी नहीं है फिर भी इसको समझने और महसूस करने के लिए कुछ हफ्ते पहले रिलीज, मनोज बाजपेई द्वारा गाया गया एक भोजपुरी गीत “बम्बई में का बा” अवश्य सुनें। लिंक नीचे दिया गया है…
आधुनिक ध्वनियों और रेलवे स्टेशन के बैकग्राउंड में बड़ी सी कुर्सी पर बैठे मनोज बाजपेई का 6:22 मिनट का यह गीत किसी भी प्रवासी बिहारी के मन को अंदर तक झकझोरने और भिगोने की क्षमता रखता है। प्रवासियों की दुर्दशा पर आधारित इस भोजपुरी रैप गीत की पहली लाइन ही किसी भी बिहारी को अपनी लगने लगती है…
दू बिगहा में घर बा, बाकी सूतल बानी टेंपू में
जिनगी इ अझुराइल बा, नून-तेल आ शैंपू में
मनवा हरियर लागे भइया, हाथ लगवते माटी में
मनवा आजुओ अटकल बाटे, गरमे चोखा-बाटी में
जिनगी हम त जियल चाहीं, खेत बगइचा बारी में
छोड़-छाड़ हम आइल बानी, इहवां सब लाचारी में
बंबई में का बा?
यह उत्सव गीत नहीं है, शोक गीत है, चुनौती गीत भी। इसमें पलायन का क्षोभ है, उससे उपजी लाचारी और मजबूरी भी, दुख और दर्द भी, आंसू भी, याद भी… बिहार में 2 बीघा का घर छोड़ कर “कापसहेड़ा” में 10 X 10 वर्ग फुट के सीलन भरे कमरे में 10 बिहारी नौजवान अपना जीवन यापन कर रहे हैं। दूध, माठा, मिश्री, चोखा-बाटी की याद और “छोटकी बुचिया” को अकबारी में भरने की चाहत… उफ्फ, यह सुन कर कौन प्रवासी बिहारी रो नहीं पड़ेगा ?

बिहार में क्या है?
इस गीत की चर्चा इसलिए नहीं की गई कि मुंबई में क्या है? बड़ा सवाल है कि बिहार में क्या है? बिहारी बुनियाद मजबूत है, इतिहास प्रेरणादायक है, पर वर्तमान में बिहार में क्या है? कुमार विश्वास कहते हैं, “हमने लौटाए सिकंदर, सिर झुकाए, मात खाये“। भले ही हमने सिकंदर के विश्व विजेता बनने के सपने को चकनाचूर कर दिया हो, लेकिन आज वही बिहारी अपने ही देश में भेड़ बकरियों की तरह हाँक दिए जाते हैं। कोरोना काल में देश ने बिहारी मजदूरों को 1500 किलोमीटर, अपने परिवार और नौनिहालों के साथ पैदल चलते हुए, उनकी विवशताओं को उनके आंसू और पांव के छालों के रूप में देखा है।
बिहार में ऐसा क्यों है?
बिहार में 2020 के चुनाव का बिगुल बज चुका है। लगभग 7 करोड़ मतदाता 10 नवंबर को नई सरकार का भाग्य तय करेंगे। बिहार से आजादी की जंग आरम्भ करने वाले महात्मा गांधी ने कहा था, “विकास चाहते हो तो सरकार के भरोसे मत रहना।” लोकतंत्र में जनता को चुनाव के द्वारा सरकारों को संदेश देना चाहिए कि उसे चुनावी घोषणाएं, खोखले वादे, स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करने की होड़, व्यक्तिगत लांछन और निम्न स्तर की छींटाकशी, गाली-गलौज वाली भाषा और दंगा-फसाद इत्यादि में कोई दिलचस्पी नहीं है। बिहार के मतदाताओं को समझना होगा कि राजनीतिक पार्टियां उन्हें भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) यादव, कुर्मी, दलित, मुसलमानों में बांट कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। मतदाताओं को बुलंद आवाज में नेताओं से सवाल पूछने होंगे कि वह बिहार के पुराने वैभव और ऐश्वर्य को वापस लाने के लिए उस दिशा में क्या काम कर रहे हैं? नई सरकार को बिहार के नौजवानों के पलायन को रोकना होगा उसे राज्य के अंदर ही सम्मानजनक और योग्यता के अनुसार काम उपलब्ध कराना होगा।

अब तक….कहां तक?
बिहार की जनता 15 साल के “सामाजिक न्याय” और 15 साल का “सुशासन” देख चुकी है। उससे पहले कांग्रेस के शासन में भी विकास की गति बहुत धीमी रही। आज़ादी के 7 दशकों बाद भी सरकारें, राज्य के लोगों को मूलभूत सुविधाएं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, सुरक्षा, बिजली, रोजगार, कृषि इत्यादि भी उपलब्ध न करा सकीं। इन मूलभूत सुविधाओं की वर्तमान दशा और दिशा पर भी दृष्टि डाल लीजिये।
शिक्षा – नालंदा विश्वविद्यालय, उस समय दुनिया भर के लोगों के लिए शिक्षा के लिए आकर्षण का केंद्र हुआ करता था जब दुनिया कबीले में रहती थी। जब बख्तियार खिलजी की फौज ने यहां का पुस्तकालय जलाया था तो इसे पूरा जलने में 3 महीने लगे थे और इसमें 9 लाख महत्वपूर्ण पांडुलिपियां नष्ट हो गई थी। उसी राज्य के विद्यार्थी, आज बनारस, इलाहाबाद और दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए जाने को मजबूर हैं।
स्वास्थ्य – कोरोना काल में पूरे देश ने देखा कि बिहार में पटना मेडिकल कॉलेज और नालंदा मेडिकल कॉलेज जैसे प्रतिष्ठित हॉस्पिटल की क्या दशा है?
सड़क – सड़कों की हालत में थोड़ा सुधार आया है, लेकिन विकास की गति इतनी धीमी है कि ये पड़ोसी राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश से अभी भी बहुत पिछड़ा है।
सुरक्षा – सुरक्षा व्यवस्था की हालत के कारण ही उद्योगपति उद्योग धंधे लगाने की हिम्मत नहीं कर पाते। बिहार में निजी व सरकारी बैंकों का विस्तार बहुत कम हुआ है, इसका कारण भी भय का वातावरण है। शहाबुद्दीन जैसे बाहुबली राजनीति में आश्रय पाकर माननीय बन जाते हैं और जो पुलिस उनके पीछे पड़ी रहती थी, वही उन्हें सुरक्षा प्रदान करती है। सारी पार्टियां ऐसे लोगों को टिकट देने में कोई संकोच नहीं करतीं।
बिजली – बिजली की दिशा में भी अभी बहुत काम होना वाकी है।
रोजगार – रोजगार की स्थिति इतनी खराब है कि शिक्षित हो या मजदूर, युवाओं को रोजी रोटी कमाने के लिए राज्य से पलायन करना ही पड़ता है ।
कृषि – धान, गेहूं, ज्वार, बाजरा, तिलहन, दलहन, आलू, तंबाकू जैसी फसलों का रिकॉर्ड तोड़ उत्पादन करने वाले प्रदेश में आज सरकारी उपेक्षा के कारण किसानों ने खेती करना बंद कर दिया है। कारण है, उचित मूल्य का अभाव और मजदूरों का पलायन, कभी सूखा और कभी बाढ़। बिहार की उपजाऊ भूमि का सदुपयोग नहीं हो पा रहा है। सरकारों ने कृषि को प्रकृति के भरोसे और कृषक के भाग्य पर छोड़ दिया है।

क्या होना चाहिए?
नई सरकार को बिहारियों की खासियत पहचाननी होगी। बिहारियों की पहचान है मेहनतकश, आत्मविश्वास और संतोष। इसका लाभ कितने गुजराती, मारवाड़ी और पंजाबी उद्यमी आजकल उठा रहे हैं। इनकी विशेषताओं का उपयोग बिहार के अंदर ही करना होगा और उसके लिए पलायन रोकना होगा। हर क्षेत्र में नए नियम बनाने होंगे और रोजगार के अवसर प्रदान करने होंगे। एक उदाहरण देता हूं। अभी उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी जी ने दृढ और परिपक्व सोच को दर्शाते हुए ग्रेटर नोएडा में हिंदी फिल्मों के लिए फिल्म सिटी बनाने की घोषणा की है। वैसे ही बिहार के मुख्यमंत्री भोजपुरी फिल्मों के लिए राजगीर में फिल्म सिटी की घोषणा क्यों नहीं कर सकते? भोजपुरी फिल्मों का निर्माण मुंबई में क्यों होता है, कितना पलायन इससे रोका जा सकता है और भोजपुरी फिल्मों का कितना बड़ा योगदान बिहार की अर्थव्यवस्था में हो सकता है, अभी तक यह बात बिहार के सरकारों के जेहन में क्यों नहीं आई? वो सुविधाएं और आधारभूत ढांचा यहां क्यों नहीं दिया जा सकता?
यहां के लोगों की स्थिति दिखाने के लिए कुछ उदाहरण देना चाहूंगा। एक, दशरथ मांझी जिन्होंने पर्वत काटकर सड़क बना दी और अपने गांव वालों की जिंदगी आसान कर दी। दूसरे, लौंगी भुइयाँ जिन्होंने अपने जीवन के 30 साल लगाकर, 3 किलोमीटर लंबी नहर बनाई और अपने खेतों तक पानी पहुंचाया। यह दो नाम ऐसे करोड़ों नामों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो चीख-चीख कर यह बताते हैं जब सरकारें अपना काम भूल जाती हैं तो आम आदमी का जीवन किस कदर प्रभावित होता है। तीसरा नाम है बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी का। पिछले वर्ष वारिश के मौसम में उनके सरकारी आवास में पानी घुस गया था और इनको अपने परिवार सहित विस्थापित होकर कहीं और शरण लेनी पड़ी थी। बिहार की जनता ने और पूरे देश ने हाफ पैंट पहने हुए उप मुख्यमंत्री को टीवी पर हताश और निराश देखा था। जब उपमुख्यमंत्री के घर में और पॉश इलाके में बारिश की पानी से बाढ़ आ जाती है (जोकि आपदा नहीं थी) तो आम आदमी के जीवन में आने वाली समस्याओं को आसानी से समझा जा सकता है। इस चुनाव में उप मुख्यमंत्री के भाषणों को सुनना कितना मनोरंजक होगा कि किस जुबान से और बेशर्मी से वो विकास के लोकलुभावन वादों की घोषणा करते हैं।

जनता ही जनार्दन
बिहार के मतदाताओं को परंपरावादी, आलसी, ढीले- ढाले, बीमार कार्यशैली वाले, क्षमता विहीन, बाहुबली, राजनीतिक अराजकतावादी, लूटमार – गुंडागर्दी – रंगदारी करने वाले, भ्रष्टाचारी, विजन रहित नेताओं को नकार देना चाहिए। इनकी जगह साफ-सुथरे, पढ़े-लिखे, उत्साही नौजवान, कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति वाले, युद्ध स्तर पर कार्य करने की क्षमता वाले, ईमानदार, त्वरित निर्णय लेने की क्षमता वाले, समयबद्ध चहुँओर विकास का सपना देखने वाले, विजनरी नेताओं को अवसर देना चाहिए। इस लीग में प्रशांत किशोर और पुष्पम प्रिया चौधरी जैसे नेता कुछ उम्मीद की किरण जगाते हैं। लेकिन यह कहना शायद जल्दबाजी होगी क्योंकि अभी दोनों नेताओं को जनता का साथ और विश्वास पाने के लिए एक लंबा सफर तय करना होगा। दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में इस तरह के प्रयोग ज्यादा सफल नहीं हो पाये हैं।
उम्मीद तो है….बशर्ते…
जब अशोक और उनके पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार के लिये श्रीनगर, नेपाल, लंका और अफगानिस्तान में अनेकों स्थानों की स्थापना कर सकते हैं, तो आज बिहार के नेता नवीन बिहार का निर्माण क्यों नहीं कर सकते? यह जमीन है अश्वघोष, आम्रपाली, गौतम बुद्ध, राजा जनक, सीता, जरासंध, महावीर, सुश्रुत, वात्स्यायन, कालिदास, वाल्मीकि, गुरूगोविंद सिंह, मजहरुल हक, विद्यापति, कौटिल्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, राहुल सांकृत्यायन, आर्यभट्ट, रामवृक्ष बेनीपुरी, रेणु, शेरशाह, कुंवर सिंह, राजेन्द्र प्रसाद, श्रीकृष्ण सिंह, जयप्रकाश नारायण, दिनकर, नागार्जुन, केदारनाथ, शिवपूजन जैसी विभूतियों की इस जमीन में बहुत ऊर्जा है। आवश्यकता सिर्फ श्री गणेश करने की है। हमें बेहतर भविष्य के लिए उम्मीद का दिया जला कर विश्वास की देहरी पर रखना ही होगा …।

मंजुल मयंक शुक्ल ([email protected])