अपमान और जंग…दोनों झेलेगा भारत?

“आपको जंग और अपमान के बीच चुनना था..।” आपने अपमान चुना लेकिन आपको जंग मिलेगी..।”
सितंबर 1938 में म्युनिक समझौता करके लौटे अपने प्रधानमंत्री चेंबरलेन के लिए चर्चिल के यही शब्द थे..। चेंबरलेन समझौते के तहत जर्मनी को चेकोस्लोवाकिया के जर्मन-भाषी इलाकों पर कब्जा करने की रज़ामंदी देकर आए थे..। ये तब था जब 1936 में जर्मनी ने राइनलैंड पर कब्जा कर लिया था और 1938 में ऑस्ट्रिया का जबरन विलय कर लिया था..।
लेकिन ब्रिटेन ने पूरे 30 के दशक में ही जर्मनी को नज़रअंदाज़ करने का काम किया..। इसे तुष्टिकरण की नीति कहा गया..। मकसद सिर्फ एक था, किसी तरह ब्रिटेन को जंग से बचाना..।
नतीजा – मार्च 1939 में जर्मनी ने पूरे चेकोस्लोवाकिया को हड़प लिया..। उसी साल सितंबर में पोलैंड पर कब्जा किया और ब्रिटेन अब दुश्मन के चुने वक्त और शर्तों पर युद्ध के मैदान में था..।

अपने यहां का हालिया इतिहास इससे ज़्यादा नाटकीय है..। साल 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद जिनपिंग से बातचीत प्रधानमंत्री मोदी के पहले कदमों में से एक था..। नतीजा क्या हुआ? दोनों नेताओं के बीच शिखर वार्ता से घंटों पहले ही चीनी सैनिक चुमार में घुस आए..। तुष्टिकरण कहां हुआ..? सरकार ने बातचीत को कामयाब बताया..। हालांकि चीनी अगले कई हफ़्ते तक भारतीय सीमा में बने रहे और तभी हटे जब भारतीय सेना ने अपने रक्षात्मक ठिकाने वहां नष्ट किए..।
अगले साल प्रधानमंत्री बीजिंग गए तो चीनी नागरिकों को भारत पहुंचने पर इलेक्ट्रॉनिक वीज़ा की सुविधा का ऐलान कर दिया..। हालांकि तब तक परमाणु आपूर्ति समूह (एनएसजी) और मौलाना मसूद अज़हर पर बीजिंग का रुख़ जगजाहिर था..। इसके बाद हमारी सरकार ने पीएम ने इसी दौरान चीनी निवेश के लिए नियम आसान बनाए..।

नतीजा – चीनी कंपनियों को सस्ता, घटिया एवं अतिरिक्त उत्पादन भारत में डंप करने का मौका मिल गया..। मोदीजी के ही राज में चीन के साथ भारत का कारोबारी घाटा दोगुने से भी ज़्यादा बढ़कर 60 बिलियन डॉलर हो गया है..। ये लगभग भारत के पूरे रक्षा बजट जितना है..।
चीनी पैसा भारत में लगने से सीमा पर उसकी विस्तारवादी नीतियां बदली नहीं..। 2017 में डोकलाम हुआ..। 73 दिन बाद सरकार ने इसे दोनों देशों के बीच सुलह की प्रक्रिया की जीत बताया..। लेकिन बाद के कई महीनों में चीन की सेना ने डोकलाम में दोबारा पक्का ढांचा खड़ा कर लिया..। सरकार इस पर आंखें मूंदे रही..।
2018 में भारत की सरकार, तिब्बत की निर्वासित सरकार से आधिकारिक संपर्क से मुकर गई..। अब तक की लताड़ें काफी साबित नहीं हुईं..और मोदीजी ने जिनपिंग के साथ अनौपचारिक सम्मेलन का प्रस्ताव रखा..। दोनों देशों के बीच 16 ऐसी मीटिंगों में क्या नाकाफी था जो इसकी ज़रूरत पड़ी ..? क्या पीएमओ अब सिर्फ एक मुल्क ही नहीं, बल्कि एक नेता के भी तुष्टिकरण पर नहीं उतर आया था..? चीन की आर्थिक, सामरिक या विदेश नीति क्या चाय पिलाने, झूला झुलाने या नारियल पानी पिलाने से रत्ती भर भी बदली है..?

पूर्वी चीन सागर हो या दक्षिण चीन सागर, हॉन्गकॉन्ग, ताईवान या फिर दुनिया को चलाने वाली संस्थाएं- इस उम्मीद में कि चीन दुनिया के चले आ रहे सिस्टम का हिस्सा बनेगा- पूरी दुनिया ने उसका तुष्टिकरण किया है..। दूसरी तरफ, कोरोना काल में उसकी नीतियां दूसरे विश्व युद्ध से पहले के जर्मनी की हेकड़ी की याद दिलाती हैं..। चीन के फर्ज़ी साम्यवादी राष्ट्रवाद से नाज़ीवाद के इरादों की बू आती है..। तो क्या इतिहास खुद को दोहराने जा रहा है..?
भारत के हाथ में अब भी कई पत्ते हैं लेकिन अगर दुनिया को टकराव के रास्ते पर बढ़ना होगा तो भारत की हैसियत उसे रोक पाने की नहीं है..। बतौर कौम हमने वो कुव्वत दिखाई ही नहीं कि दुनिया का भाग्य लिखने वाले बनें..। हमें सिर्फ किरदार निभाना होगा..।
दुख है तो सिर्फ एक बात का, कि भारत के नेतृत्व ने खुद को चर्चिल जैसे किरदार की तरह पेश किया, लेकिन वो निकले चेंबरलेन जैसे..। बेशर्म झूठ से सजी सियासत क्या हमें दुनिया के इतिहास के इस अहम मुकाम पर वो सच्ची भूमिका निभाने देगी, जिसका भारत जैसा देश हकदार है..? या फिर हमारे हिस्से भी अपमान और जंग दोनों लिखे हैं.. ?
(युवा लेखक एवं पत्रकार अवर्ण दीपक के फेसबुक वॉल से साभार)