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#Emergency: क्या इमरजेंसी असंवैधानिक थी?

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#Emergency: क्या इमरजेंसी असंवैधानिक थी?

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12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सांसद के तौर पर निर्वाचन को अवैध करार दिया। 13 दिन बाद 25 जून को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत से देश में359 (1) के तहत अगले 19 महीने तक इमरजेंसी रही। इस दौरान अनुच्छेद 14,21 और 22 निलंबित कर दिए गए थे। अब 45 साल बाद सुप्रीम कोर्ट विचार कर रहा है कि क्या 1975 के आपातकाल को असंवैधानिक करार दिया जा सकता है?

 याचिकाकर्ता की ओर से सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने कहा कि अदालत को इमरजेंसी की वैधता जांच करने का अधिकार है।

#emergency“War crimes issues are still heard. Post world war people are raising issues of holocaust now. It (national emergency) was a fraud on the constitution. We must have this decided by this court. I feel very strongly for this. This is not a matter for political debate. Didn’t we see what happened to prisoners during emergency,”

सुप्रीम कोर्ट को इस ओर आगे नहीं बढ़ना चाहिए

इसकी कई वजहें हैं

सबसे पहली और सबसे बड़ी वजह है इमरजेंसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट का इतिहास।

इमरजेंसी के विरोध में इंडियन एक्सप्रेस ने एडिटोरियल खाली छोड़ा

 एक ओर जहां लाखों लोग इमरजेंसी के खिलाफ सड़कों पर उतर कर कुरबानियां दे रहे थे, लाखों लोग मीसा के तहत गिरफ्तार हुए। टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस समेत कई अखबार बहुत बहादुरी से सरकार के खिलाफ लिखते रहे, तब लोकतंत्र के इतिहास के सबसे बड़े संकट के दौरान कई हाईकोर्ट तो जनता के साथ नजर आए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट नहीं।

abu abraham iconic cartoon on emergency

 12 जून के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट ने चुनौती दी। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी। अदालत ने उन्हें संसद की कार्यवाही में भाग लेने की इजाजत दी, लेकिन वोट देने पर प्रतिबंध लगा दिया।

Justice Iyer ने अपने फैसले में लिखा

 The judicial approach is to stay away from political thickets and new problems with institutionalised blinkers on, so long as the court methodology remains the same. Arguments about political sentiment, political propriety and moral compulsion though relevant at other levels, fall beyond the conventional judicial orbit and the courts have to discriminately shift them while deciding on the grant of stay pending an appeal.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से वो खिड़की खुल गई जिससे हो कर इंदिरा गांधी ने अगले ही दिन देश में इमरजेंसी लगा दी।

इंदिरा शासन में सुप्रीम कोर्ट की ये आखिरी चूक नहीं थी। करीब एक साल बाद वो फैसला आया जिसे सुप्रीम कोर्ट के इतिहास का सबसे विवादित फैसला माना जाता है।

28 अप्रैल 1976 को ADM Jabalpur v Shivkant Shukla case सुप्रीम कोर्ट में आया। दरअसल बीते साल भर से हो ये रहा था कि मीसा के तहत गिरफ्तारियां होती थीं और जब ये मामला हाईकोर्ट में जाता था तो कई मामलों में हाईकोर्ट याचिकाकर्ता को रियायत दे देते थे। लिहाजा इंदिरा सरकार ने इमरजेंसी के तहत habeas corpus को निलंबित रखने  की मांग के साथ इसके विरोध में आए हाईकोर्ट के फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। पांच जचों की बेंच ने  4:1 से ये फैसला सुनाया कि इमरजेंसी के दौरान नागरिकों के मूल अधिकार निलंबित हो गए हैं, लिहाजा उन्हें हाईकोर्ट में habeas corpus फाइल करने का कोई अधिकार नहीं है।

एडवोकेट Sanjay Hegde इस फैसले को -“the highest hallmark of judicial deference to the executive” कहते हैं।

अब 45 साल बाद अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले की वैधानिकता की जांच करेगा तो कठघरे में सिर्फ कार्यपालिका नहीं आएगी, ADM Jabalpur v Shivkant Shukla case में सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी आएगा। इस 4:1 वाले फैसले को जस्टिस एच आर खन्ना के डिसेंट नोट के लिए याद किया जाता है।

  “The Constitution and the laws of India do not permit life and liberty to be at the mercy of the absolute power of the Executive… What is at stake is the rule of law. The question is whether the law speaking through the authority of the court shall be absolutely silenced and rendered mute… Detention without trial is an anathema to all those who love personal liberty.”

 24 August 2017 को case of Justice K.S. Puttaswamy (Retd) and another vs Union of India and others मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यों की बेंच ने ADM Jabalpur v Shivkant Shukla case फैसले को पलटते हुए जस्टिस एच आर खन्ना के मत को मान्यता दी। ADM Jabalpur v Shivkant Shukla case में सरकार के पक्ष में फैसला देने वाले चार जजों में से एक थे जस्टिस Y.V. Chandrachud, जबकि Puttaswamy केस में इसे पलटने वाला फैसला लिखने वाले जज हैं उनके बेटे जस्टिस D.Y. Chandrachud  

एक अहम मसला ये है कि बीते कम से कम साल भर से सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक मसलों की सुनवाई एक तरह से स्थगित है। इनमें राज्य सभा में संदिग्ध बहुमत की आशंका से मनी बिल के तहत इलेक्टोरल बांड को लोकसभा से पास कराने से लेकर, CAA, 370, सबरीमाला जैसे कई मामले हैं। अब इन मामलों की सुनवाई के पहले अगर इमरजेंसी की संवैधानिकता पर सुनवाई शुरू होती है तो इससे सुप्रीम कोर्ट का मान नहीं बढेगा, बल्कि संदेश ये जाएगा कि वो कार्यपालिका के दबाव में है।

एक महत्वपूर्ण सवाल ये है कि अगर सुप्रीम कोर्ट इमरजेंसी को अवैधानिक घोषित कर देता है तो उसके बाद क्या होगा? यहां से राजनीति की नई राह खुलती है जिस ओर सुप्रीम कोर्ट को नहीं जाना चाहिए। एक बार सुप्रीम कोर्ट ऐलान कर देता है कि इमरजेंसी  संविधान सम्मत नहीं थी तो 1976 में संविधान के 42वें संशोधन का मामला भी अदालत में जा सकता है। इस संशोधन के तहत जिसे मिनी संविधान भी कहा जाता है, प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेकुलर शब्द जोड़े गए थे। इसके बाद कुछ लोग मांग कर सकते हैं कि संविधान को मूल रूप में लौटाया जाए यानी India must once again be a “sovereign, democratic republic”  and not a “sovereign Secular Socialist republic.

ये इसलिए अहम है क्योंकि देश के कानून मंत्री खुद इस बारे में दो बार बयान दे चुके हैं। 2015 में उन्होंने कहा था-

कांग्रेस को विचार करना चाहिए कि नेहरू सेकुलर थे या नहीं, क्योंकि वो और दूसरे नेता जैसे मौलाना आजाद और सरदार पटेल ने संविधान में सेकुलर नहीं जोड़ा था।

तीन साल बाद मई 2018 में उन्होंने कहा कि भारत का संविधान एक हिन्दू धार्मिक दस्तावेज है।

सुप्रीम कोर्ट अगर इमरजेंसी की वैधता और वैधानिकता पर सुनवाई करता है तो सवाल देश के संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति पर भी उठेंगे जिनके अधिकारों की सीमा वहां से शुरू होती है जहां सुप्रीम कोर्ट की खत्म। और अंत में फैसला चाहे जो भी आए, उसे राजनीति के चश्मे से ही देखा जाएगा।  इसके साथ ही आने वाले वक्त में नोटबंदी, देश बंदी और जीएसटी की वैधानिकता को चुनौती देने की राह भी खुल जाएगी।  

Shailendra

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