#FarmerProtest: क्यों सरकार से ज्यादा सुप्रीम कोर्ट को चिंता होनी चाहिए?
प्रेस ने उन्हें( #FarmerProtest)खालिस्तानी, पाकिस्तानी, चीनी साबित कर दिया है…इंटरनेशनल फंडिंग पर भी लोग यकीन कर रहे हैं, अब ये भी किसी से छिपा नहीं रहा कि देश के खिलाफ सिर्फ और सिर्फ पंजाब के आढ़तियों की ये साजिश है…इसके बावजूद ऐसा क्यों है कि सरकार करीब-करीब सारे कानून बदलने को तैयार है, लेकिन किसान नहीं मान रहे। बीते छह सालों में न सरकार किसी के आगे इतना झुकी थी, न कोई विरोध आज तक इतना ताकतवर नजर आया था। किसानों को न सरकार की खास चिंता है न संसद की, उन्हें न सुप्रीम कोर्ट की ज्यादा परवाह है न प्रेस या पुलिस की। वैसे देखा जाए तो किसान के आंदोलन से अगर किसी को सबसे ज्यादा फिक्र होनी चाहिए तो वो है सुप्रीम कोर्ट को। किसान दिल्ली आ कर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष से मिल कर लौट जाते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का रुख नहीं करते। न अपील… न दलील… ऐसा क्यों लग रहा है, जैसे किसानों के रडार में सुप्रीम कोर्ट है ही नहीं।
साल भर पहले CAA के खिलाफ शाहीनबाग का आंदोलन चल रहा था, अभी किसान आंदोलन कर रहे हैं। तब से अब तक क्या बदला है? जो सबसे बड़ा बदलाव आया है वो है अदालतों को लेकर आम जनता की सोच में। बात किसी कानून की हो या सरकार के फैसलों की, आम जनता को हमेशा यकीन रहा है कि चाहे जो हो जाए, उसे अदालत से जरूर इन्साफ मिलेगा। इस साल इस विश्वास पर गहरी चोट लगी है।
मूल अधिकारों के संरक्षक के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासी मजदूरों को काफी निराश किया। ऐसे वक्त जबकि टीवी पर चौबीसों घंटे भूखे प्यासे प्रवासी मजदूरों को चलते देख आम लोगों का दिल बैठ रहा था, तब solicitor general तुषार मेहता ने 31 मार्च 2020 को भारत सरकार की ओर से एफिडेविट दे कर कहा
8 मई को औरंगाबाद में रेल पटरी पर सोए 16 मजदूरों की मौत मामले में जब वकील Alakh Alok Srivastava ने सरकार को मजदूरों के लिए फ्री ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था करने की गुहार लगाई तो 15 मई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा
एक जज ने याचिकाकर्ता से पूछा
whether he was willing to go and implement government directives if the Court grants him special pass”
इसके बाद जब मजदूरों और वकीलों ने अदालत की ओर पीठ कर ली, तब 11 दिन बाद, अदालत ने स्वत: संज्ञान लिया और सरकार से मजदूरों की घर वापसी के लिए व्यवस्था करने को कहा। अदालत ने सेंट्रल विस्टा पर स्वत: संज्ञान लिया, लेकिन किसानों के मसले पर नहीं लिया। अगर ये मसला सिर्फ किसानों की जिंदगी का न होकर, मुंबई में आरे के पेड़ों की तरह पर्यावरण का होता, गांव के गरीबों के बजाय महानगर के फेफड़ों के लिए जरूरी ऑक्सीजन का होता, तब क्या सुप्रीम कोर्ट स्वत: संज्ञान लेता?
गौर कीजिए, CAA, 370, सबरीमाला, इलेक्टोरल बांड जैसे मुद्दों पर लोग सुप्रीम कोर्ट गए, लेकिन किसान सुप्रीम कोर्ट नहीं गए। ऐसा नहीं कि उनके पास मुद्दा नहीं था। राज्य सूची के विषय पर केंद्र ने कानून बनाया है, समवर्ती सूची के प्वाइंट 33 के तहत किसानी को कारोबार मान कर कांट्रैक्ट से जोड़ा गया। मार्केटिंग और कांट्रैक्ट का फर्क किसान समझते हैं। लेकिन किसानों ने सुप्रीम कोर्ट या संसद में अपनी बात रखने के बजाय अपनी बात रखने के लिए सड़क को चुना। ये इसलिए भी खास है क्योंकि महज दो महीने पहले 7 अक्टूब 2020 को शाहीनबाग मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विरोध प्रदर्शन के हक को आम नागरिकों के सड़क से गुजरने के अधिकार से जोड़ कर देखा था।
दिल्ली पुलिस ने किसानों को बुराड़ी मैदान में विरोध प्रदर्शन करने को कहा, लेकिन शाहीनबाग फैसले के बाद पहली बार कोई बड़ा विरोध किसानों के जरिए सामने आया तो प्रशासन की ओर से तय किए गए जगह पर नहीं, किसानों ने अपने विरोध का मंच बनाया हाईवे को यानी सड़क को।
किसानों ने सरकार से, संसद से, सुप्रीम कोर्ट से और प्रेस से पीठ कर ली है, क्या आपको चिंता होनी चाहिए?