किसान आंदोलन: नई उम्मीदें, पुराने मुद्दे!
कड़ाके की ठंड, तमाम परेशानियों और कोविड-19 की आशंकाओं के बावजूद किसानों का आंदोलन (farmers protest) करीब एक महीने से जारी है। वैसे सरकार ने किसानों की पराली और बिजली से जुड़ी दो मांगें मान ली हैं और इन दोनों से जुड़े प्रावधान वापस लेने को सहमत हो गई है। बाकी दो मांगें – कृषि कानून निरस्त करने और MSP पर गारंटी पर 4 जनवरी को चर्चा होगी। यानी नये साल में नई उम्मीदें!
वैसे, 4 जनवरी को किसान संगठनों से होने वाली सातवें दौर की बातचीत को लेकर सरकार ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है। सरकार ने किसानों से MSP गारंटी और कृषि कानूनों को वापस लेने वाली मांगों का विकल्प देने को कहा है। उधर किसान नेताओं का कहना है कि MSP गारंटी और कृषि कानूनों की वापसी का कोई विकल्प ही नहीं है।
farmers protest: आगे कुआं, पीछे खाई
किसानों की सबसे अहम मांग ये है कि कृषि कानूनों को पूरी तरह वापस लिया जाए। अब मोदी सरकार के सामने सांप-छछूंदर वाली स्थिति हो गई है। अगर वो किसानों की मांग मान लेती है, तो इसे सीधे तौर पर मोदी सरकार की हार के रुप में देखा जाएगा। इसका मतलब ये निकलेगा कि सरकार ने बिना सोचे-समझे किसानों के खिलाफ कानून बनाया था। इससे किसानों के आरोप कि मोदी सरकार अंबानी-अदानी के लिए कानून बनाती है, की भी पुष्टि हो जाएगी। वहीं इससे ये संदेश भी जाएगा कि आंदोलन के जरिए सरकार को कभी भी झुकाया जा सकता है, और अपनी मांगें, अपनी शर्तों पर मनवाई जा सकती है। इससे मोदी की मजबूत सरकार वाली छवि को गहरा धक्का लगेगा।
मोदी सरकार अगर किसानों की मांगें मान भी लेती है, तो इसमें उसका कोई फायदा नहीं है। एक महीने से चल रहे आंदोलन (farmers protest) के बाद मांगें मान लेने पर भी किसानों के बीच मोदी की छवि बेहतर होने की गुंजाइश नहीं है। पंजाब-हरियाणा के किसान अगले कुछ सालों तक मोदी या बीजेपी को किसी चुनाव में समर्थन देंगे, इसकी गुंजाइश बहुत कम है। उनका मोदी सरकार से भरोसा टूट चुका है और निकट भविष्य में विश्वास बहाली की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती। वहीं दूसरी तरफ कानून वापस लेने से उद्योगपतियों, निवेशकों में भी गलत संदेश जाएगा और उनका सरकार की नीतियों-घोषणाओं से भरोसा उठ जाएगा। आखिर इस बात की क्या गारंटी है कि मोदी सरकार जब अगला कानून बनाएगी, तो विरोध में कोई गुट खड़ा नहीं होगा और सरकार दबाव में आकर कानून वापस नहीं लेगी?
गुम हो रहा है असली मुद्दा?
किसान आंदोलन (farmers protest) से कई और मुद्दे जुड़े हैं, जिन पर गंभीरता से विचार किया जाना जरुरी है। मोदी सरकार को ये बात समझनी चाहिए कि किसानों का आंदोलन अचानक हवा में नहीं खड़ा हुआ है, इसके पीछे राज्यों की सरकारें, किसानों का असंतोष और कई अन्य फैक्टर शामिल हैं।
- ये क़ानून और उसके प्रावधान बड़ी समस्या नहीं है। समस्या है – विश्वास की कमी। सरकार ने कानून बनाने से पहले किसी से बातचीत नहीं की, संबंधित संगठनों से कोई सलाह-मश्विरा नहीं लिया, और सीधे एक कानून थोप दिया। आपकी नीयत कितनी भी साफ हो, लेकिन अगर आपने पूछना जरुरी नहीं समझा, तो अविश्वास पैदा होना स्वाभाविक है।
- केन्द्र सरकार ने राज्यों के अधिकार क्षेत्र से टैक्सेशन को लगभग खींच लिया है। नये कानून के तहत मंडी के बाहर भी खरीद-बिक्री हो सकती है और उस पर राज्य सरकार टैक्स नहीं लगा सकती। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों से क्रमशः 3500 करोड़ और 1600 करोड़ का टैक्स मिलता था, जो अब बंद हो जाएगा।
- अगर बाहरी मंडियों में टैक्स नहीं लगेगा, तो कारोबारी APMC मंडियों में टैक्स देकर खरीद-बिक्री क्यों करेंगे? ऐसे में मंडियों से बंद होने का अंदेशा गलत नहीं है। अब अगर मंडियां नहीं रहेंगी, तो सरकार अनाज कहां से खरीदेगी और MSP व्यवस्था कैसे बची रहेगी? सरकार को ये सब आशंकाएं दूर करनी होगी।
- अगर कृषि क़ानून स्टेट लिस्ट में आता है तो इसे लागू करने से पहले राज्यों की सहमति क्यों नहीं ली गई? क्या ये हमारे संघीय ढांचा को कमजोर नहीं करता है?
- ये तो सभी मानते हैं कि कृषि की विकास दर 3 फ़ीसदी से भी कम है और इस क्षेत्र में सुधार होना जरुरी है। लेकिन जो सुधार होंगे, उसमें राज्यों की क्या भूमिका होगी? क्या सारे फैसले केन्द्र लेगा या राज्यों के सलाह और सहमति भी ली जाएगी?
- जब से GST लागू हुआ है, तब से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच टैक्सेशन का मुद्दा बढ़ता जा रहा है। अगर राज्यों के टैक्सेशन के अधिकार कम होते हैं तो उससे राज्यों के वर्चस्व कम होता है और वो विरोध करेंगे ही। किसान आंदोलन की जड़ में ये मुद्दा भी है।
हमारे देश में कृषि में सुधार, हमेशा से ओखली में सिर डालने जैसा रहा है। वैसे भी सिर्फ संसद में कानून पारित करने से भारतीय कृषि का कायापलट नहीं हो सकता, भले ही कानून कितना भी अच्छा हो। जरुरत है, भारतीय कृषि की मूलभूत खामियों को दूर करने की। और भारत जैसे विशाल देश में, बिना राज्यों के सहयोग के…किसी भी तरह का परिवर्तन लाना या कानून को लागू करना संभव नहीं है। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस आंदोलन (farmers protest) को हवा देकर यही बात साबित की है। ये और बात है कि अब इसे रोक पाना उनके बस में भी नहीं है।
क्या है उपाय?
फिलहाल दोनों तरफ से मामले का राजनीतिकरण हो रहा है। किसान अपने फायदे की मांगों के बजाए सरकार को झुकाने पर अड़े हैं, और सरकार इसे विपक्ष का खड़ा किया बखेड़ा मान रही है। इसका एक समाधान तो ये है कि सरकार कृषि कानूनों को किसी स्टैंडिंग कमेटी में भेजे, और उसके सुझावों के अनुरूप संशोधन होने के बाद ही लागू करे। दूसरा उपाय ये है कि केन्द्र सरकार इसे राज्य का विषय मानते हुए, कृषि कानूनों को संशोधित करने, नकारने या लागू करने का अधिकार राज्यों को ही सौंप दे।