इतिहास के झरोखे से…
आजादी के पहले का सबसे कठिन चुनाव था… छठी सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के अध्यक्ष का। तब अध्यक्ष को स्पीकर की जगह प्रेजिडेंट कहा जाता था। चुनाव 24 जनवरी 1946 को हुआ ये चुनाव क्या…बाकायदा युद्ध था…। इसमें सरकारी पक्ष सर कावसजी जहांगीर के साथ था.. और जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग और तमाम यूरोपीय समूह उनके साथ थे…। कावसजी का नाम लियाक़त अली ने प्रस्तावित किया था जो बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी रहे…। कांग्रेसी उम्मीदवार के तौर पर नेताजी सुभाष चंद्र के बड़े भाई शरत चंद्र बोस ने…. गणेश वासुदेव मावलंकर का नाम प्रस्तावित किया…।
सारे घोड़े खुल गए…तमाम तरह की तिकड़मबाजी हुई, लेकिन जब नतीजा आया तो कावसजी को मिले 63 वोट की तुलना में 66 वोट पाकर मावलंकर जी जीत गए…। सिर्फ तीन वोटों का अंतर था…और इसे लेकर काफ़ी बवाल मचा… लेकिन चुनाव तो हो गया था…। यूरोपीय समूह के सर पर्सीवल ग्रिफिथ ने..ये कहकर हंगामा शांत किया कि आपकी गरिमा का सम्मान कर हम अपनी ही गरिमा की रक्षा करेंगे…।
मावलंकर जी 1945 में उत्तर बम्बई से सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में निर्विरोध चुने गए थे….वे ही 15 अगस्त 1947 तक इसके अध्यक्ष रहे…। भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 के तहत यही सदन भारत की संविधान सभा घोषित हो गया…आजादी की मध्य रात्रि में ये पूर्ण संप्रभु इकाई बन गया और पहले से अस्तित्व में रहे दोनों सदन समाप्त हो गए। वैसे तो भारतीय संविधान सभा… 9 दिसंबर 1946 से ही संविधान बनाने का काम कर रही थी, लेकिन इस घटना के बाद उसे संप्रभु विधायिका का अधिकार भी मिल गया…।
वैसे इसे लेकर संविधान सभा में कई सवाल उठे थे.. इसका निदान भी मावलंकर समिति ने निकाला…वे ही संविधान सभा और फिर भारतीय संविधान के तहत गठित अस्थाई संसद के बीच सेतु बने….। 1952 में मावलंकर जी ही पहली लोक सभा के पहले अध्यक्ष बने….। इन्हें ही लोक सभा का जनक कहा गया…।1956 में उनका निधन हुआ…लेकिन भारतीय संसद के इतिहास में उनका सबसे ऊँचा स्थान है…।
(इसके तथ्य मावलंकरजी पर एम वी कामथ की पुस्तक से लिए गये हैं)
अरविंद कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक