आखिरी रास्ता
गलवान में चीन को पहली बार पता चला है कि धोखा देने की कीमत भी चुकानी पड़ती है। धोखेबाज चीन अब धोखा-धोखा कह रहा है। बेचैनी में वो कभी पेन्गांग झील पर तो कभी हॉट स्प्रिंग पर घुसपैठ की कोशिश कर रहा है। सवाल है बीमार चीन का इलाज क्या है?
अब तक एक पारंपरिक सोच रही है कि चीन के खिलाफ जरूरी डिटरेन्स बनाया जाए। इसी मकसद से भारत रक्षा पर हैसियत से ज्यादा खर्च करता आया है।
2019 में सबसे ज्यादा रक्षा पर खर्च करने वाले देश
देश | सुरक्षा पर खर्च $बिलियन |
अमेरिका | 732 |
चीन | 261 |
भारत | 71.1 |
स्रोत : https://www.sipri.org/sites/default/files/2020-04/fs_2020_04_milex_0_0.pdf
हम दुनिया की दूसरी सुपर पॉवर रुस से ज्यादा खर्च तो करते ही हैं, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन और जापान जैसे देशों से पचास फीसदी ज्यादा खर्च करते हैं। लेकिन चीन को डर हो, इसके लिए इतना काफी नहीं है। रणनीति के तौर पर चीन की सबसे बड़ी कमजोरी मलक्का की खाड़ी है, लेकिन हम पैदल सेना (56%) और एयरफोर्स (23%) के मुकाबले नौसेना (15%) पर सबसे कम खर्च करते हैं।
कई जानकार चीन के घुसपैठ को 5 अगस्त से जोड़ कर देखते हैं। उन्हें लगता है कि चीन को घुसपैठ के लिए कोई वाजिब वजह चाहिए। हकीकत ये है कि चीन की सीमा 14 देशों से लगती है और वो दावा 23 देशों की जमीन पर करता है।
आज का चीन ईस्ट इंडिया कंपनी है, उसके लिए हर पड़ोसी देश उसकी कॉलोनी है, और अगर नहीं है तो उसे बनया जाना चाहिए।
चीन के समझदार पड़ोसी बनने की उम्मीद करने से बेहतर होगा कि ऐसी सामरिक नीति बनाई जाए जिससे डर जाए चीन।
पहला रास्ता एशिया का नाटो
नाटो के महासचिव Jens Stoltenberg ने बुधवार को इस बात पर चिंता जताई है कि चीन ने बीते एक साल में जितना मिसाइल टेस्ट किया है, उतना बाकी दुनिया ने मिल कर भी नहीं किया है।
China is becoming more and more a global military power with the ability not only to protect their own waters and their own territory, but to project power far beyond China, then it matters what they do. Then they are becoming a global power, which has a global responsibility to engage in global arms control. And especially the fact that they are now planning to double the number of warheads. They have conducted more missile tests than the rest of the world over the last year.
Jens Stoltenberg,नाटो महासचिव
जाहिर है चीन के ग्लोबल मिलिटरी पॉवर बनने से अगर किसी को सबसे ज्यादा चिंता है तो वो है नाटो। 5 जून 2017 को मॉन्टेनिग्रो के बाद, मैसिडोनिया इस साल 27 मार्च को नाटो का मेंबर बना है। मतलब ये कि इस क्लब की मेंबरशिप अभी खत्म नहीं हुई है। भारत को चाहिए कि अमेरिका और ईयू के देशों के साथ अपने बेहतरीन रिश्ते का इस्तेमाल कर एशिया के लिए नाटो बनाने में पहल करे।
सुनने में शायद ये अजीब लगे लेकिन अमेरिका के कई थिंक टैंक इस राय का इजहार कर चुके हैं।
John Mearsheimer की मशहूर किताब The Tragedy of Great Power Politics के आखिरी चैप्टर में कहा गया है –
“There is already substantial evidence that countries like India, Japan, and Russia, as well as smaller powers like Singapore, South Korea, and Vietnam, are worried about China’s ascendancy and are looking for ways to contain it. In the end, they will join an American-led balancing coalition to check China’s rise, much the way Britain, France, Germany, Italy, Japan, and eventually China, joined forces with the United States during the Cold War to contain the Soviet Union.”
स्रोत:- http://strategicstudyindia.blogspot.com/2014/04/is-asian-nato-possible.html
वहीं अमेरिका में कुछ थिंक टैंक मानते हैं कि एशिया का नाटो जैसी चीज कभी सामने नहीं आ सकती।
पेट्रिक स्टीवर्ट मानते हैं कि एशिया के देश तीन वजहों से नाटो नहीं बना सकते…उनमें एकता नहीं है, वो चीन से डरते हैं, और उन्हें लगता है कि द्विपक्षीय व्यवस्था उनके लिए ज्यादा फायदेमंद है।
“Despite its strategic ‘rebalancing’ toward Asia, the United States is unlikely to sponsor a collective defense organization for the Asia-Pacific, for at least three reasons: insufficient solidarity among diverse regional partners, fear of alienating China, and the perceived advantages of bilateral and ad-hoc security arrangements.”
स्रोत:-https://www.cfr.org/expert/stewart-m-patrick
नाटो मेंबर बनने से क्या फायदा होगा?
नाटो के Article V में प्रावधान है कि एक मेंबर देश पर हमला, सभी देशों पर हमला माना जाएगा। एशिया का कोई एक देश इतना मजबूत नहीं है कि वो अकेले चीन का मुकाबला कर पाए, लेकिन अगर कई एशियाई देश मिल जाएं तो वो चीन से ज्यादा ताकतवर हो सकते हैं।
नाटो जैसी व्यवस्था से दो फायदे हैं। जिस तरह नाटो की वजह से रूस नार्वे की सरहद लांघने की जुर्रत नहीं कर पाता, उसी तरह फिलीफीन्स जैसे छोटे देशों को चीन से डरने की वजह खत्म हो जाएगी। दूसरा फायदा ये है कि नाटो के मेंबर के तौर पर भारत का खर्च मौजूदा सैन्य खर्च का आधा से भी कम हो जाएगा।
इसमें अड़चन ये है कि चीन ने ये पहले से सोच रखा है और बीते दस साल से इसी मंकसद से वो रूस की बेहिसाब मदद कर रहा है, ताकि वो नाटो में शामिल न हो जाए। चीन जानता है कि रुस नाटो में शामिल हो गया तो यूरोप में नाटो का रुस के खिलाफ मोर्चा खत्म हो जाएगा और नाटो की सारी ताकत चीन के खिलाफ एशिया में लग जाएगी।
दूसरा रास्ता अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया का करार
1951 की ANZUS Treaty के तहत अमेरिका ऑस्ट्रेलिया को सुरक्षा देता है। इस रिश्ते में इतना भरोसा है कि आज ऑस्ट्रेलिया के 580 सैनिक अमेरिका के 31 राज्यों में तैनात हैं। वो उसी तरह तैनात हैं जैसे वो अमेरिकी सेना में हों। ऑस्ट्लिया का Defence Attaché इस टीम के मुखिया होते हैं।
इस रिश्ते की वजह से ऑस्ट्रेलिया को अमेरिका के लेटेस्ट हथियार मिलते हैं।
2019 में ऑस्ट्रेलिया को अमेरिका से मिले हथियार-
- 12 new-build EA-18G ‘Growler’ airborne electronic attack aircraft
- 72 F-35 Joint Strike Fighters
- 15 P-8 Poseidon maritime surveillance and patrol aircraft
तीसरा रास्ता San Francisco System
ये वो रास्ता है जो अमेरिका ने जापान, ताइवान और साउथ कोरिया के लिए चुना है। इसके तहत अमेरिका ने जापान और साउथ कोरिया में अपने सैनिक अड्डे बनाए ताकि जरूरत पड़ने पर चीन या उत्तर कोरिया को फौरन जवाब दिया जा सके। Anpo एग्रीमेंट की वजह से चीन सेनकाकु द्वीप को लेकर विरोध तो जताता है,लेकिन अमेरिकी नौसेना के खौफ से इसे कब्जे में लेने की कोशिश नहीं करता।
“With hope and faith, this House affirms the firm resolve of the Indian people to drive out the aggressor from the sacred soil of India, however long and hard the struggle may be”.
14 नवंबर 1962 को चीनी आक्रमण के बाद संसद का प्रस्ताव
चीन को दोस्त बनाने वाली सोच से अब आगे निकलने की जरूरत है। आज जरूरत ऐसी आक्रामक व्यवस्था बनाने के लिए काम करने की है, जिससे संसद का संकल्प पूरा हो और तिब्बत को चीन के चंगुल से आजादी मिले।