सपनों का बुलबुला…या हक़ीकत?
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने हाल ही में 12वीं के नतीजे घोषित किए। इस परीक्षा के लिए 12 लाख छात्रों ने परीक्षा के लिए पंजीकरण किया था, इनमें से करीब 10 लाख से ज्यादा विद्यार्थियों ने अलग-अलग विषयों में शत प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं। यानी 100 में 100!!!!
इसी तरह सीबीएसई की ओर से जारी दसवीं के परिणाम में इस बार कई छात्रों ने हिंदी, सामाजिक विज्ञान और अंग्रेजी जैसे विषयों में भी शत प्रतिशत अंक हासिल किए हैं। लखनऊ की दिव्यांशी जैन ने तो 100 प्रतिशत अंक हासिल किए…. यानी सभी विषयों में 100 नंबर!!!
क्या है इसका मतलब?
अगर ज्यादातर विद्यार्थियों को 90 फीसदी से ज्यादा नंबर आ रहे हैं…या हजारों-लाखों को शत प्रतिशत अंक मिल रहे हैं…तो इसके दो ही मतलब हो सकते हैं। पहला, देश में पढ़ाई और छात्रों का स्तर सुधर रहा हो, नई पीढ़ी ज्यादा ब्रिलिएंट और मेहनती हो। या दूसरा, शिक्षकों का स्तर गिर रहा हो, क्योंकि उनके सवालों के जवाब तो 10-12वीं के बच्चे भी आसानी से दे सकते हैं। वैसे, इसकी वजह तीसरी है।
क्या सचमुच ये कामयाबी है?
चलिए, एकबारगी मान लेते हैं कि छात्रों की पढ़ाई और जानकारी का स्तर बढ़ा है और सीबीएसई स्कूलों में आजकल बहुत अच्छी शिक्षा मिल रही है। लेकिन इसके बाद होनी वाली परीक्षाओं के आँकड़े तो कुछ और ही कहते हैं। ग्रेजुएट एप्टीट्यूड टेस्ट इन इंजीनियरिंग यानी गेट (GATE) के आधिकारिक नोटिस के अनुसार, गेट परीक्षा में 6,85,088 उम्मीदवारों ने हिस्सा लिया था जिनमें से केवल 18.8 फीसदी उम्मीदवारों को ही सफलता मिली है।
अब जरा इनके कटऑफ मार्क्स पर भी नजर डालें, जिससे पता चले कि बच्चों में आखिर किस तरह का कॉम्पिटीशन है।
श्रेणी | प्रत्येक विषय में अंकों का न्यूनतम प्रतिशत | कुल अंकों का न्यूनतम प्रतिशत |
कॉमन रैंक लिस्ट | 10 | 35 |
जनरल-ईडब्ल्यूएस रैंक लिस्ट | 9 | 31.5 |
ओबीसी-एनसीएल रैंक लिस्ट | 9 | 31.5 |
एससी/एसटी/पीडब्ल्यूडी रैंक लिस्ट | 5 | 17.5 |
यानी अगर कोई छात्र 100 में से 35 नंबर भी ले आता है, तो वो क्वालिफाई कर जाएगा, और उसे IIT में प्रवेश मिल जाएगा। यूं समझिये कि फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स में जिसने 15-15 फीसदी नंबर भी पा लिए, वो देश की नामी इंजिनियरिंग संस्थानों में से किसी एक में एडमिशन पाने का हकदार हो जाएगा।
GATE के इस कटऑफ का ये मतलब है कि इन 6 लाख 85 हजार छात्रों में से 20% उम्मीदवार भी 35 फीसदी अंक नहीं ला पाए। आपको बता दें कि IITs का कटऑफ कई सालों से कमोबेश यही है, भले की सीटों और संस्थानों की संख्या बढ़ गई हो।
अंकों से तय होती है कामयाबी?
इसे एक उदाहरण से समझिये। आईएएस अधिकारी नितिन सांगवान ने एक महत्वपूर्ण संदेश देने के लिए सोशल मीडिया पर अपनी 12वीं बोर्ड की मार्क्सशीट साझा की। उन्हें केमिस्ट्री में 24 तो फिजिक्स में सिर्फ 33 अंक मिले थे। लेकिन उन्होंने अंकों की चिंता किये बग़ैर तैयारी शुरू की। हरियाणा के राज्यस्तरीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में सफल हुए। आइआइटी मद्रास से बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में विशेष पढ़ाई की और फिर आइएएस भी बने।
अपने ट्वीट में उन्होंने लिखा, “मैं खराब अंकों का महिमामंडन नहीं कर रहा हूं। मार्क्स प्रणाली… मूल्यांकन का एक उद्देश्यपूर्ण तरीका है, लेकिन इसे जुनून नहीं बनना चाहिए …..। मैं नहीं कहता कि अंक महत्वपूर्ण नहीं हैं…. वे बेंचमार्किंग के तरीकों में से एक हैं। लेकिन सफलता का मूल्यांकन करने के लिए कई अन्य तरीके भी हैं।
मार्किंग सिस्टम पर उठ रहे सवाल
सीबीएसई बारहवीं में… दिल्ली पब्लिक स्कूल के छात्र तुषार सिंह को इंग्लिश, हिस्ट्री, पॉलिटिकल साइंस, ज्योग्राफी और फिजिकल एजुकेशन में 100 में से 100 अंक मिले हैं। इनका कहना है कि किसी भी छात्र को अंग्रेजी विषय में शत प्रतिशत अंक नहीं मिलने चाहिए… क्योंकि कोई न कोई ग्रैमिटिकल मिस्टेक रह ही जाती है। कई शिक्षक और विशेषज्ञ भी ये सवाल उठा रहे हैं कि आखिर में हिंदी, अंग्रेजी और मानविकी के विषयों में परीक्षार्थी पूरे अंक कैसे ला सकते हैं?
ऐसी मार्किंग का क्या है फायदा?
- ज्यादा नंबर आने से छात्रों का मनोबल बढ़ता है, उन्हें लगता है कि उनकी मेहनत का पूरा फल मिला है।
- कम अंक आने या फेल करने की वजह से बच्चे आत्महत्या कर रहे थे। अब अंकों की वजह से किसी को ऐसे कदम उठाने की जरुरत नहीं पड़ेगी।
- सीबीएसई या शिक्षा विभाग इसे अपनी उपलब्धि के तौर पर गिना सकते हैं। आखिर सरकार शिक्षा पर इतना खर्च (जीडीपी का 3 फीसदी) जो कर रही है!!!
- वैसे आपको बता दें कि भारत का 2019-20 का कुल बजट 27.86 लाख करोड़ रुपए है, जबकि चीन केवल शिक्षा पर 29.58 लाख करोड़ रुपए खर्च करता है।
क्या है नुकसान?
- उदारता से नंबर देने भर से ही क्वालिटी नहीं बढ़ती। इस तरह की मार्किंग से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की गुंजाइश ही खत्म हो गई है।
- अगर हजारों छात्रों को 100 में 100 आएंगे, तो सबसे बेहतर को कैसे पहचाना जा सकेगा? टॉपर और सेकेंड टॉपर में कितना फर्क होता है…. दशमलव से भी कम या सिर्फ 1 अंक का?
- किसी बच्चे की असली मेहनत, उसकी सूझबूझ या किसी विषय पर पकड़ का पता कैसे चलेगा, जब उस विषय में हजारों-लाखों छात्रों को शत प्रतिशत अंक आएंगे?
- शत प्रतिशत अंक आने से छात्रों में ये भावना भी घर कर सकती है कि वो परफेक्ट हैं, और इस विषय में इससे ज्यादा जानने की जरुरत ही नहीं।
- कई छात्र रट्टा मारने के बजाए, समझ या स्वतंत्र सोच रखते हैं। खास तौर पर ह्यूनैनिटीज और सोशल साइंस में परिपक्व सोच को बढ़ावा देना चाहिए। लेकिन ये व्यवस्था इसका मौका ही नहीं देती।
- इस सिस्टम की वजह से भाषा के विषयों(हिंदी, अंग्रेजी, क्षेत्रीय) में भी क्रिएटिव और एनालिटिकल सोच को बढ़वा देने की परंपरा ही खत्म हो गई है।
- अंकों से आत्महत्या के मामलों में भी कोई फर्क नहीं पड़ा है। अंतर बस इतना है कि पहले फेल करनेवाले छात्र आत्महत्या की सोचते थे, अब 90 फीसदी लानेवाले बच्चे ऐसा कदम उठा रहे हैं।
कुल मिलाकर, इस मार्किंग सिस्टम ने सिर्फ बेंचमार्क ऊपर कर दिया है..और कुछ नहीं। पहले बच्चों के 80 फीसदी मार्क्स भी आते थे…तो वो खुद को टॉपर समझते थे। आज 90 फीसदी भी कम लगता है। पहले सवाल भी ऐसे आते थे कि बच्चे की समझ का पता चले…. ना कि उसकी रटन्त-शक्ति का। आज समझ की जरुरत ना छात्रों को है, ना नीति-निर्धारण करनेवालों को….सभी को सिर्फ मार्क्स चाहिए…भले ही भविष्य में वो किसी काम का ना हो।