तेजस्वी ने दिया वामदलों को संजीवनी बूटी, 1977 के बाद पहली बार दहाई का आंकड़ा पार
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Patna: विधानसभा चुनाव के परिणामों ने तमाम राजनीतिक पंडितों के गणित फेल हो गये। नए समीकरणों, नए मुद्दों के साथ लड़ा गया यह विधानसभा चुनाव अपने परिणामों में भी अप्रत्याशित ही रहा। और इन परिणामों में सबसे ज्यादा अप्रत्याशित रहा वाम दलों को 16 सीटों पर मिली जीत । बिहार की राजनीति में मुख्य भूमिका निभाने वाले वाम दल मंडल आयोग के गठन और जाति की राजनीति शुरू होने के पश्चात सिकुड़ते चले गए। आलम यह रहा कि कभी किंगमेकर रहे वाम दल चुनाव में अपनी सीटें गंवाते चले गए।
पिछले विधानसभा में बुरी तरह हुए परास्त
एक दौर में वामपंथी दल बिहार में किंगमेकर माने जाते थे। 1972 से 1977 तक विधानसभा में वामपंथी दल मुख्य विपक्ष बने रहे। इन दलों के लिए 1977 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर द्वारा लाया गया सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान घातक बना। इसके बाद मंडल आंदोलन ने तो वाम दलों से उनकी जमीन भी हथिया ली। लालू यादव की जाति आधारित राजनीति ने उन्हें फिर कभी बिहार में पनपने नहीं दिया। CPI(ML) को छोड़ बाकी दो वाम दल सीपीआई और सीपीएम के तो अस्तित्व पर सवाल भी उठने लगे। सीटों के हिसाब से देखा जाए तो, CPI(ML) ने साल 2000 में छह सीटें, साल 2005 में सात, फिर उसी साल अक्टूबर में 5 सीटों पर चुनाव जीते। साल 2010 के चुनावों में इसके हिस्से एक भी सीट नहीं आई, जबकि साल 2015 के विधानसभा चुनाव में तो सीपीआई को एक भी सीट नहीं मिली थी। पार्टी को कुल वोट 516,699 मिले थे। वहीं, सीपीआई (एम) को महज 232,149 वोट मिले और एक भी सीट नहीं मिल सकी। इसके अलावा, सीपीआई (एमएल) लिबरेशन 3 सीटें जीतने में कामयाब हो सकी थी। पार्टी को सभी वामदलों में सबसे अधिक मत 587,701 हासिल हुए थे। पार्टी ने 98 सीटों पर 2015 का विधानसभा चुनाव लड़ा था।
जिसने खोदे थे कब्र, उसी ने पुन: फूंकी जान
31 मार्च 1997, सिवान के जेपी चौक पर वामपंथी दल का बड़ा चेहरा चंद्रशेखर समेत सीपीआई माले के एक नेता की गोली मारकर हत्या कर दी गई। आरोप लगा, लालू के करीबी माने जाने वाले बाहुबली नेता शहाबुद्दीन पर। वामदलों ने आरजेडी पर शहाबुद्दीन को बचाने के आरोप लगाए। साथ ही लालू प्रसाद यादव के सामाजिक न्याय के नारे से जातीय राजनीति का उत्कर्ष हुआ और वामदल अपने वजूद खोते गए। 1993 में लालू प्रसाद यादव ने आईपीएफ़ के तीन विधायकों को तोड़ लिया। ये तीन विधायक थे- भगवान सिंह कुशवाहा, केडी यादव और सूर्यदेव सिंह। तीनों पिछड़ी जाति के विधायक थे।
बिहार में जिस दल की जातीय राजनीति के कारण वामदलों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इस बार उसी आरजेडी के साथ मिलकर चुनावी मैदान में खड़े हुए। महागठबंधन के तहत वामपंथी दलों को 29 सीटें मिली। इनमें से माले 19, सीपीएम चार और सीपीआई छह सीटों पर खड़े हुए। नतीजा यह हुआ कि वामदलों ने 16 सीटों पर जीत हासिल की। और यह साबित कर दिया कि वोटों के ध्रुवीकरण के बावजूद उनका अपना जनाधार अभी शेष है।
जीत के मायने
वामदलों की इस अप्रत्याशित जीत के पीछे उनके कैडर की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जा रही है, जिन्होंने आर्थिक और सामाजिक न्याय के संदेश को आक्रामक रूप से बढ़ावा दिया। हालांकि, महागठबंधन में आरजेडी और कांग्रेस भी कैडर आधारित दल हैं जिसका फायदा भी लेफ्ट उम्मीदवारों को मिला और वह जीत की ओर अग्रसर हो गए ।
भविष्य कैसा होगा
वैश्वीकरण और उदारीकरण का दौर और कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी के कारण गरीबों और आम लोगों की मुश्किलें बढ़ी हैं। रोजगार कि गंभीर स्थिति पैदा हो गई है। ये हालात वामपंथियों को सूबे में फिर से उनकी ज़मीन वापस करने का मौक़ा दे सकते हैं। यदि ये सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आंकड़ों के आधार पर रणनीति बनाकर अपने एजेंडे पर ये आगे बढ़ें तो इनकी स्थिति और भी बेहतर होगी।
मंजुल मंजरी, पटना ।