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नुकसान की भाषा समझेगा चीन?

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नुकसान की भाषा समझेगा चीन?

India fighting with china with its own toolsrces
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भारत-चीन विवाद में फिलहाल ये तो नहीं कहा जा सकता कि चीन पीछे हटने को तैयार है, लेकिन ताजा घटनाओं से इतना जरुर कहा जा सकता है कि वो अब आक्रामक रवैया छोड़ने को राजी दिख रहा है। 30 जून को चीन के कोर कमांडर मेजर जनरल लिउ लिन और भारत के कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल हरेंदर सिंह के बीच 12 घंटों तक बातचीत हुई।

इसमें सिर्फ एक बात पर सहमति बनी। गलवान जैसी हिंसक झड़प दुहराई ना जाए और अगले 72 घंटों तक दोनों पक्ष एक-दूसरे पर नजर रखें ताकि पता चल सके कि सहमति के बिन्दुओं पर कदम उठाये गये या नहीं। इस बीच चीन की अखबार ग्लोबल टाइम्स ने दावा किया है कि भारत और चीन LAC पर तनाव कम करने पर सहमत हो गए हैं और दोनों देशों में चरणबद्ध तरीके से सैनिकों को हटाने पर सहमति बन गई है। इसे चीन का सरकारी स्टैंड माना जा सकता है।

आर्थिक मोर्चे पर चोट

भारत सरकार ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ कड़े कदम जरुर उठाये हैं। ये और बात है कि चीन इससे होनेवाले नुकसान को मानने को तैयार नहीं। उदाहरण के लिए, चीनी एप्प पर पाबंदी से ही चीन को अरबों के नुकसान होने की संभावना है। खुद चीनी सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक सिर्फ टिकटॉक के बैन होने से ही चीनी कंपनी को छह बिलियन डॉलर (45,000 करोड़ रुपये) का नुकसान होने वाला है। वैसे शुरुआती दौर में चीन,भारत को गंभीर परिणामों की धमकी देता रहा और ये भी दावा किया कि इससे चीन की अर्थव्यवस्था पर असर नहीं पड़ेगा। लेकिन, अब उसने मान लिया है कि भारत में बैन होने से ऐप्स की पैरंट कंपनियों को अरबों डॉलर का नुकसान हो सकता है।

भारत ने रेलवे, 5-जी, इन्फ्रास्ट्रक्टर, सोलर पैनल जैसे कई क्षेत्रों ने निवेश पर रोक लगा दी है, और कई निजी कंपनियों ने पुराने ऑर्डर कैंसल करने शुरु कर दिये हैं। दीर्घावधि में चीन-विरोधी इस भावना का चीनी कंपनियों को भारी नुकसान हो सकता है और ये बात धीरे-धीरे चीन में सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों तक भी पहुंच रही है। जाहिर है, चीनियों को भारत जैसा बड़ा बाजार छिनने का डर सताने लगा है।

कूटनीति में आक्रामक रुख़

अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत ने कड़ा रुख अपनाना शुरु कर दिया है, या यूं समझिये चीन के तुष्टिकरण की नीति छोड़ दी है। अबतक हॉन्गकॉन्ग के मुद्दे पर चुप्पी साधने वाले भारत ने चीन के नए सुरक्षा कानून पर सवाल उठाए हैं। जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) भारत के स्थायी प्रतिनिधि राजीव चंदर ने कहा, ‘हम हाल की इन घटनाओं पर चिंता जताने वाले कई बयान सुन चुके हैं। हमें उम्मीद है कि संबंधित पक्ष इन बातों का ध्यान रखेंगे और इसका उचित, गंभीर और निष्पक्ष समाधान करेंगे।’ हालांकि भारत ने अपने बयान में चीन का नाम नहीं लिया। लेकिन ये पहली बार है जब भारत ने हॉन्ग कॉन्ग के मुद्दे पर कुछ भी बयान दिया है। ये एक संकेत भर है, लेकिन चीन को ये समझने में कोई खास कठिनाई नहीं होगी कि आनेवाले दिनों में बयान और कड़े हो सकते हैं।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में भारत ने एक और कूटनीतिक जीत हासिल करते हुए चीन के एक प्रस्ताव पर भी रोक लगा दी। दरअसल, चीन कराची स्टॉक एक्सचेंज में हुए आतंकी हमले की निंदा करते हुए, पाकिस्तान के भारत विरोधी प्रस्ताव को पारित करवाने की कोशिश में था। लेकिन आखिरी वक्त में जर्मनी और अमेरिका ने बारी-बारी उसके एक निंदा प्रस्ताव पर अपनी आपत्ति जताकर इसे रुकवा दिया।

पड़ोसियों के जरिए घेरने की कोशिश

सीमा विवाद में जहां भारत ने अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, जापान, इस्रायल, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों का समर्थन हासिल कर लिया है, वहीं चीन की ही तर्ज पर उसके पड़ोसियों के जरिए चीन को घेरना शुरु कर दिया है। जापान की नौसेना भारत के साथ मिलकर युद्धाभ्यास कर रही है। इसमें अमेरिका भी खुलकर साथ दे रहा है। जापान ने ना केवल पूर्वी चीन सागर और प्रशांत महासागर बल्कि हिंद महासागर में भी अपनी नौसैनिक गतिविधियों को बढ़ाया है। इसका मकसद न केवल आपसी तालमेल को बढ़ाना है, बल्कि हिंद महासागर से चीन को अलग-थलग करना भी है।

चीन के खिलाफ अब ऑस्ट्रेलिया भी खुलकर सामने आ गया है। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिशन ने अपने सुपर हॉर्नेट फाइटर जेट्स के बेड़े को मजबूत करने के लिए लंबी दूरी के एंटी शिप मिसाइलों की खरीद सहित देश की रक्षा रणनीति में बदलाव का ऐलान किया। उन्होंने कहा कि देश की रक्षा क्षमताओं के आधुनिकीकरण के लिए 270 अरब ऑस्ट्रेलियाई डॉलर का निवेश किया जाएगा। इसके अलावा एशिया प्रशांत क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया कई महत्वपूर्ण इलाकों में अपनी सेना की तैनाती बढ़ाएगा।

चीन के हमसे ज्यादा दुश्मन

चीन ने जिस तरह भारत के पड़ोसी देशों में दशकों तक निवेश और दबाव के जरिए, उन्हें भारत के खिलाफ खड़ा किया है, उसकी तुलना में भारत की राह ज्यादा आसान है। दरअसल चीन ने हमेशा से पड़ोसी देशों की जमीन पर निगाह रखी और खुद ही उन्हें दुश्मन बना रखा है। दक्षिण और पूर्व चीन सागर में चीन बुरी तरह क्षेत्रीय विवाद में उलझा हुआ है। बीजिंग ने इन क्षेत्रों में अपने नियंत्रण वाले कई द्वीपों पर सैन्य अड्डे बनाए हैं। इन दोनों ही क्षेत्रों में खनिज, तेल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के भंडार हैं, जिस पर कब्जा करने के लिए पड़ोसी देशों से उसकी खींचतान चलती रही है।

विएतनाम में चीन के खिलाफ प्रदर्शन

चीन ताइवान पर खुलेआम सेना के प्रयोग की धमकी दे ही चुका है। उसका विएतनाम, फिलीपींस, मलेशिया और इंडोनेशिया के साथ भी विवाद है। वहीं, पूर्वी चीन सागर में द्वीपों के स्वामित्व को लेकर जापान के साथ भी चीन उलझता रहता है। दोनों देश इन निर्जन द्वीपों पर अपना दावा करते हैं, जिन्हें जापान में सेनकाकु और चीन में डियाओस के नाम से जाना जाता है। हालात ऐसे हैं कि हाल में ही जापान ने चीनी सेना की एक पनडुब्बी और एक स्ट्रैटजिक बॉम्बर एयरक्राफ्ट को अपनी सीमा से बाहर भगााया था। चीनी सरकार की ओर से लगातार हो रही आर्थिक घेराबंदी और साइबर हमलों से परेशान ऑस्ट्रेलिया ने भी इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपनी सेना के आधुनिकीकरण के लिए भारी बजट का ऐलान किया है।

क्या हो भारत की रणनीति?

भारत को मालूम है कि चीनी शासन की दबंगई ज्यादा दिन नहीं चलनेवाली। दूसरी बात, कि इस देश के साथ प्यार और भरोसे का रिश्ता नहीं चल सकता। ऐसे में सबसे अच्छी रणनीति यही होगी कि युद्ध की धमकियों से घबराए बिना अपनी सीमाओं पर टिक कर खड़े रहना और ऐसी जगह चोट पहुंचाना, जहां लंबे समय तक दर्द हो। ये आर्थिक मोर्चे पर भी हो सकता है और कूटनीतिक मोर्चे पर भी। भारत को इसमें कुछ हद तक कामयाबी मिलती दिख भी रही है। दिक्कत बस यही है कि ये खेल लंबा चलेगा, लेकिन तब तक अपनी जमीन और अपने हितों को लेकर अडिग रहना होगा, भले ही तात्कालिक नुकसान झेलना पड़े।

Shailendra

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