लोकतंत्र से बड़ा हथियार नहीं!
आपका सामना एक ऐसी सेना (china) से है जिस पर आपकी सेना के मुकाबले तीन गुना ज़्यादा खर्च होता है… जिसके पास हथियार और हथियार चलाने वाले दोनों आपसे ज़्यादा हैं…तकनीक के मामले में जो आपसे दशकों आगे है..जिसका आपके कट्टर दुश्मन से ‘दांतों और होठों’ जितना करीबी नाता है (जैसा कि इस्लामाबाद और बीजिंग के साझा बयानों में कहा जा चुका है)..। इस अंतर को पाटने के लिए भारत के पास एक हथियार है – उसका लोकतंत्र (democracy)..। दुनिया का सबसे बड़ा, 22वां सबसे पुराना, विकासशील दुनिया में सबसे लंबे समय तक चलने वाला लोकतंत्र..। इसी लोकतंत्र की बिनाह पर आप वो गठबंधन जुटा सकते हैं जो चीन को आप पर चढ़ बैठने से रोके रखे..। फिर चाहे वो अमरीका हो, या फिर जापान, ऑस्ट्रेलिया या फिर यूरोप..।
फ्रीडम हाउस नाम का थिंक टैंक भारत को दक्षिण कोरिया और इज़रायल के बीच के इलाके में मंगोलिया और ताइवान के अलावा सिर्फ भारत को ही पूरी तरह आज़ाद देश मानता है..। जो देश प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में दुनिया के 193 देशों में 145वें नंबर पर हो, उसके लिए लोकतंत्र (democracy) वाकई कीमती हथियार होना चाहिए..। हमारे पीएम यूएन समेत कई मंचों पर खुद भी अलग-अलग मसलों पर लोकतांत्रिक देशों के गठबंधन की बात कहते रहे हैं..। लेकिन इस गठबंधन में भारत की भूमिका के आड़े खुद उनकी ही घरेलू नीतियां आ रही हैं..। भले ही वो घरेलू मोर्चे पर उन्हें जितने ही वोट दिला दें..।
भारत के भीतर जो कुछ हो रहा है, उसे भारत की सबसे हिमायती राजधानियों में भी समर्थन मिलना मुश्किल हो रहा है..। दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित अखबारों में से एक ‘द इकनॉमिस्ट’ भारत को ख़तरे में पड़ा लोकतंत्र (democracy) बताता है, तो सीएनएन इसे मरता हुआ लोकतंत्र..। ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ रामचंद्र गुहा का ऐसा लेख छापता है, जिसमें वो कहते हैं कि भारत में सिर्फ 40 प्रतिशत लोकतंत्र शेष है..। ‘द गार्डियन’ की राय में भारत का लोकतंत्र (democracy) नाज़ी जर्मनी के रास्ते पर है..तो वहीं फाइनेंशल टाइम्स ये ऐलान करता है कि भारत में मौजूदा हालात इंदिरा गांधी के आपातकाल से भी ख़राब हैं..।
ट्रंप को भले इन बातों से फ़र्क ना पड़े लेकिन जो बिडेन और कमला हैरिस कश्मीर से लेकर सीएए तक पर मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर चुके हैं..। इस साल यूरोपियन संसद में सीएए के खिलाफ़ प्रस्ताव पारित करने के लिए भारत को पूरा राजनयिक ज़ोर लगाना पड़ा..। आप भले ही जयकारा लगाइये, और फिरंगी लेबल चिपकाकर इन सभी आलोचनाओं को चिढ़ाइये, आपके वोट बढ़ जाएंगे लेकिन चीन जैसे संकट से निपटने के लिए जिस पश्चिमी समर्थन की दरकार है, वो मिलना कठिन होता जाएगा..।
बीजेपी में अगर वाकई कोई देशभक्त हैं, तो उन्हें भारत की दुनिया भर में बनी ‘लिबरल डेमोक्रेसी’(liberal democracy) वाली छवि में ‘लिबरल’ दोबारा जोड़ना पड़ेगा..। इस हफ़्ते शेखर गुप्ता ने भी अपने लेख में सरकार को यही सलाह दी है कि अगर चीन से निपटना है तो घर के भीतर झगड़े सुलगाने बंद करने होंगे..। “जब तूफान आए तो वक्त एक दूसरे का हाथ पकड़ने का होता है, यहां हाथ छुड़ाए जा रहे हैं,” वो कहते हैं..।
अगर देशभक्तों का टंटा पड़ रहा है तो भी मुझे यकीन है, बीजेपी में राजनीतिज्ञों की तो कोई कमी नहीं होगी..। उन्हें सोचना चाहिए कि अगर कहीं लद्दाख के पहाड़ों में बात खून-खराबे की आई, और जीत से कम कुछ भी मिला तो मोदीजी तो डूबेंगे, बीजेपी की कमर को भी सीधा होने में दशकों लग जाएंगे..।
सेक्युलर होना शायद बीजेपी के डीएनए में नहीं है, लेकिन थोड़ा उदारवादी होना दुनिया में भारत को कहीं ज़्यादा कामयाब बना सकता है..। घर के भीतर बीजेपी का कम झगड़ालू होना चीन के खिलाफ़ भारत के साथ खड़े होने में पश्चिमी देशों की झिझक कम करेगा और ख़तरनाक हालातों की ओर देश को बढ़ने से भी रोकेगा..। मोदीजी बड़े-बड़े सुधारों का वायदा करके सत्ता में आए थे..। इस वक्त सुधार की ज़रूरत खुद उनकी पार्टी को है..। क्या वो ऐसा कुछ कर पाएंगे..?
लेखक एवं पत्रकार अवर्ण दीपक के फेसबुक वॉल से साभार