क्या शांति के लिए युद्ध जरुरी है..?
जैसा कि होता आया है और जैसी की आशंका थी, वही हो रहा है..। बातचीत की टेबल पर चीन की सेना के अफसर और राजनयिक कुछ बात कर रहे हैं, और ज़मीन पर अमल कुछ और हो रहा है..। एएनआई के अलावा कुछ और अख़बारें भी रिपोर्ट कर रही हैं कि गलवान घाटी में जिस चौकी के लिए इतनी सारी जानें गईं, चीन ने उसे दोबारा खड़ा कर लिया है..। इससे भी ज़्यादा चिंता की बात ये है कि डेप्संग मैदानों में चीनी सेना भारत के गश्ती दलों को रोक रही है..। यहां उन्होंने ऊंचाई की जगहें घेर ली हैं और अपने टैंकों को आगे ले आई है..। डेप्संग मैदान, भारत के दौलत बेग ओल्डी में मौजूद हवाई ठिकाने के बेहद नज़दीक पड़ते हैं..।
पहले की तरह मुसीबत टल जाने की गफ़लत पाले बैठे लोगों के लिए ये आंख खोलने का एक और मौका है..। भारत के पास फिलहाल कोई आसान विकल्प नज़र नहीं आ रहे..। ड्रैगन की छाया अब उन इलाकों पर भी है, जहां इस साल जनवरी तक भी दोनों में से किसी सेना की स्थायी मौजूदगी नहीं थी..। पहले आकर घेर लेने के कारण चीन के सैनिकों की किलेबंदी मज़बूत है..। भारत के पास उन्हें निकालने के लिए पहला और सबसे सुगम रास्ता बातचीत है..। लेकिन जैसा कि ताज़ा रिपोर्ट्स बता रही हैं, और जैसे चीन की नीतियां बाकी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में हैं, ये तरीका कारगर होता दिख नहीं रहा..। पैंगोंग सो इलाके में तो चीन ने वाहन-योग्य सड़क का काम भी लगभग पूरा कर लिया है..।
कहा जा रहा है कि पीएलए गलवान घाटी में भी पक्के बंकर और बैरक बना रही है..। मान लीजिए भारत ने फिलहाल चीन को वापस हटने के लिए मना भी लिया, ये नया बुनियादी ढांचा तो फिर भी मौजूद रहेगा..। इनकी बिनाह पर चीन ना सिर्फ भविष्य में विवादित इलाकों पर अपनी दावेदारी मज़बूत करेगा बल्कि वक्त पड़ने पर इस ढांचे का इस्तेमाल भी कर सकता है..। अगर चीन ने ‘जिसकी लाठी, उसी की भैंस’ वाली वही नीति भारत के साथ भी अपनाई, जो वो बाकी पड़ोसियों के साथ अपना रहा है, तो बातचीत से भारत को सम्मानजनक हल मिलता नहीं दिख रहा..। ऐसी सूरत में नई दिल्ली के पास एक रास्ता बल-प्रयोग के ज़रिए चीनियों से नए कब्जे खाली करवाने का होगा..। लेकिन इसका मतलब एक गंभीर जंग को न्योता देना भी होगा..।
दूसरा विकल्प ये भी है कि भारत मौजूदा हालात की तरह ही अपनी सेना को चीन की सेना के आर-पार तैनात रखे..। इससे हाथ से जा चुके इलाके तो वापस नहीं मिलेंगे, लेकिन लाल सेना के लिए और आगे पसरना मुश्किल होगा..। कड़वी हकीकत ये है वोट बटोरने के लिए मोदी-शाह ने कश्मीर को लेकर अपने बयानों में फिजूल की हेकड़ी दिखाई..। इससे बीजिंग के कान खड़े हुए और उन्होंने सर्दियां जाते ही इन बयानों का असल दम परखने की ठान ली..। संयोगवश लद्दाख पर एलएससी की बर्फ पिघलती, तब तक कोरोनावायरस की तोहमत से निकलने के लिए चीनी सरकार वैसे ही आक्रामक हो चुकी थी..। ऐसे हालात में चीनी सेना ने पहली चाल चली और अब बाज़ी किस करवट बैठेगी, ये उसकी चाल पर निर्भर करेगा..। हो सकता है वो नए कब्जे वाले इलाकों को कभी ना खाली करने का फैसला करे..जब तक कि भारतीय सेना चीनी फौजियों को जबरन बाहर करने का फैसला ना करे..।
वैसे भारतीय सेना चीन को उसी की ज़ुबान में भी जवाब दे सकती है..। भारतीय सेना के कमांडर ऐसी जगहों की शिनाख्त कर सकते हैं, जो विवादित हों और जहां अपनी मौजूदगी दर्ज कराना भारतीय सेना के लिए आसान हो..। फिर उन इलाकों से पीछे हटने के बदले चीनी सेना को भी यथावत स्थिति के लिए मजबूर किया जा सकता है..। लेकिन जोखिम इसमें भी है, ख़ासकर तब जब चीन ने एलएसी पर बीते दो-एक महीनों में अपनी तैनाती को मज़बूत किया है..।
मौजूदा संकट से इतना तो साफ हुआ है कि बीजिग के रणनीतिकारों के मन में सरहद पर अमन कायम रखने की भारत की कोशिशों के प्रति कोई इज्ज़त नहीं है..। ना ही वो चीन को खुश रखने के लिए भारतीय सरकार के लगातार झुकने की ही कोई कद्र करते हैं..। इससे उलट ऐसा लगता है मानो बीजिंग… कश्मीर से मुत्तालिक कदमों और बयानों पर मोदी सरकार को मज़ा चखाने के मूड में हो..। ऐसा करके चीन ने भारत को भी अपने दूसरे पड़ोसियों के दर्जे में धकेल दिया है, जिनकी सीमा को लाल सेना टुकड़ा-दर-टुकड़ा हड़प रही है….और इस हालात से कैसे निपटें, ये इनमें से किसी देश को समझ नहीं आ रहा है..।
साभार: नीतिदीप, युवा पत्रकार एवं लेखक