हीरो क्यों बन रहे हैं हेमंत सोरेन?
केंद्र सरकार ने जैसे ही कोल ब्लॉक की नीलामी प्रक्रिया शुरू की, झारखंड सरकार ने अगले ही दिन सीधे सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ अपील दायर कर दी। प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने खुद मीडिया को इसकी जानकारी देते हुए कहा कि केन्द्र सरकार का यह फैसला, ना सिर्फ वनों और आदिवासी आबादी की घोर उपेक्षा है बल्कि संघीय ढांचे के विपरीत भी है।
हेमंत सोरेन को क्या है आपत्ति?
- केंद्र का यह बहुत बड़ा नीतिगत निर्णय है। इसलिए कोल ब्लॉक नीलामी से पहले, राज्य सरकारों को विश्वास में लिया जाना चाहिए था।
- कोल ब्लॉक नीलामी से पूर्व राज्यव्यापी सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण होना चाहिए था, जिससे पता चल सके कि कोयला खनन से यहां के लोग लाभान्वित हुए या नहीं? और नहीं हुए तो क्यों नहीं हुए?
- झारखण्ड में खनन का विषय हमेशा से ज्वलंत रहा है। इस फैसले में वनों और आदिवासी आबादी की घोर उपेक्षा दिखती है। पर्यावरण को भी भारी नुकसान होगा।
- जो नई प्रक्रिया अपनाई गई है, उससे लगता है कि हम फिर उसी पुरानी व्यवस्था में चले जाएंगे, जिससे बाहर आए थे। और, कोयले के पुराने ढर्रे पर खनन से राज्य के वनवासी, आदिवासी और अन्य लोग फिर तबाह हो जाएंगे।
- हमने पहले ही केंद्र सरकार से इस मामले में जल्दीबाजी नहीं करने का आग्रह किया था। लेकिन केंद्र सरकार की ओर से ऐसा कोई आश्वासन प्राप्त नहीं हुआ, जिससे लगे कि पारदर्शिता बरती जा रही है।
- कोल ब्लॉक आवंटन में विदेशी निवेश की बात कही जा रही है। कोरोना के कारण पूरी दुनिया में लॉकडाउन है, ऐसे में विदेशी निवेशकों में समुचित प्रतिस्पर्धा का अभाव रहेगा और कोल ब्लॉक को बाजार मूल्य नहीं मिलेगा।
- झारखण्ड की अपनी स्थानीय समस्याएं हैं। आज यहां के उद्योग धंधे बंद पड़े हैं। ऐसे में कोल ब्लॉक नीलामी की प्रक्रिया राज्य को लाभ देने वाली प्रतीत नहीं होती है।
केन्द्र की नीयत में है खोट?
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए केन्द्र सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाये। इसमें प्रदेश के आदिवासियों की उपेक्षा के साथ-साथ, बड़े व्यापारिक घरानों से प्रधानमंत्री मोदी के संबंधों की ओर इशारा भी शामिल था। उन्होंने आरोप लगाया कि –
- केंद्र ने हड़बड़ी में कोल ब्लॉक की नीलामी का निर्णय लिया है।
- केंद्र की ओर पारदर्शिता अपनाने या राज्य को फायदा जैसा कोई भरोसा नहीं दिलाया गया और नीलामी शुरू कर दी गई।
- केंद्र सरकार को व्यापारियों के समूह ने जकड़ रखा है। उनके प्रभाव में ही कोल ब्लॉक की नीलामी में जल्दबाजी की जा रही है।
- केंद्र सरकार क्यों हड़बड़ी में है, इसके पीछे क्या कारण है, यह किसी से छिपा नहीं हैं। व्यापारियों का एक समूह पूरी तरह से देश को जकड़ लेना चाहता है।
- केन्द्र का रवैया वैसा है जैसे कि गांव में आग लगी हो और कोई घर से सामान चोरी कर भाग निकले।
- केंद्र सरकार ने बिहार चुनाव के मद्देनजर, गरीब कल्याण रोजगार अभियान की शुरुआत कर चुनावी बिगुल फूंका है।
दूसरे राज्यों में भी हो रहा है विरोध
छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस और कुछ सामाजिक संगठन केंद्र सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। दरअसल, छत्तीसगढ़ में 9 कोल ब्लॉक आवंटित होने हैं। इनमें से 5 कोल ब्लॉक हसदेव अरण्य क्षेत्र में आते हैं, जहां हाथियों का और अन्य वन्य जीवों का सबसे ज्यादा मूवमेंट है। ऐसे में कांग्रेस और छत्तीसगढ़ बचाव आन्दोलन सहित कुछ अन्य सामाजिक संगठनों का कहना है कि सरकार के इस फैसले से हाथियों को नुकसान पहुंचेगा।
हाथियों को चुकानी पड़ेगी विकास की कीमत?
मुद्दा इसलिए भी गरम हो रहा है क्योंकि प्रदेश में करीब 2 हफ्ते में 6 हाथियों की मौत हो चुकी है। जिसे लेकर वन्य प्रेमियों में पहले से ही काफी रोष है। वहीं केंद्र सरकार ने लेमरू एलीफेंट प्रोजेक्ट क्षेत्र के चार कोल ब्लॉक को नीलामी के लिए प्रस्तावित कर हाथियों पर और संकट पैदा कर दिया है। गौरतलब है कि ओडिशा में हाथियों के इलाके में खदानें शुरू होने पर, वे छत्तीसगढ़ व झारखंड की ओर पलायन को मजबूर हुए थे। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने करीब 13 साल पहले 2007 में हाथियों के संरक्षण के लिए लेमरू एलीफेंट प्रोजेक्ट तैयार किया था। तब 450 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र इसके लिए चिह्नित किया गया था।
इस बीच तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस क्षेत्र में कोल ब्लॉक का आवंटन कर दिया और अभयारण्य की तैयारी पर विराम लग गया। वर्ष 2014-15 में सुप्रीम कोर्ट ने कोयला घोटाला के कारण सभी ब्लॉक निरस्त कर दिए थे। तब एक बार फिर इस प्रोजेक्ट के परवान चढ़ने की उम्मीद जगी। राज्य में कांग्रेस की सरकार बनते ही, इस प्रोजेक्ट को साल 2019 के बजट में शामिल किया गया, और इसका क्षेत्रफल बढ़ाकर 1995.48 वर्ग किलोमीटर कर दिया। इस पर अभी सर्वे का काम चल ही रहा था कि एक बार फिर व्यावसायिक उत्खनन की घोषणा हो गई। गुरुवार को केंद्र सरकार ने जो 41 कोल ब्लॉक की सूची नीलामी के लिए जारी की है, उनमें से चार इसी क्षेत्र में पड़ते हैं।
श्रमिक संगठनों को भी आपत्ति
- कमर्शियल माइनिंग के विरोध में एटक, सीटू, एचएमएस, इंटक तथा बीएमएस जैसे श्रमिक संघ हड़ताल की तैयारी में जुट गए हैं।
- इनके मुताबिक कमर्शियल माइनिंग एवं कोल ब्लॉक को निजी हाथों में सौंपने से श्रमिकों का शोषण बढ़ेगा।
- निजी कंपनियां लाभ अर्जित करने कम दर पर कोयला बेचेंगी, और इससे कोल इंडिया का अस्तित्व भी खत्म हो सकता है।
केन्द्र सरकार का क्या है पक्ष?
- कोयला मंत्रालय ने, उद्योग मंडल फिक्की के साथ मिलकर 41 कोल माइंस की नीलामी की प्रक्रिया शुरू की है।
- ये खदानें 22.5 करोड़ टन उत्पादन की क्षमता रखती हैं। सरकार के मुताबिक ये खदानें देश में 2025-26 तक अनुमानित कुल कोयला उत्पादन में करीब 15 प्रतिशत का योगदान देंगी।
- इन कोल ब्लॉक्स की कॉमर्शियल माइनिंग में अगले 5 से 7 सालों में करीब 33,000 करोड़ रुपये का निवेश अनुमानित है.
- राज्य सरकारों को इन ब्लॉक्स से सालाना 20,000 करोड़ रुपये का राजस्व मिलेगा।
- ये नीलामी, आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत की गयी घोषणाओं का हिस्सा है। इसका मकसद देश की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में आत्मनिर्भरता हासिल करना और औद्योगिक विकास को गति देना है।
- इससे सीधे सीधे तौर पर करीब 70,000 लोगों और परोक्ष रूप से 2.8 लाख से अधिक लोगों को रोजगार मिलने की संभावना है।
हेमंत सोरेन ने क्यों चुना टकराव का रास्ता?
यहां बात सिर्फ आदिवासियों की उपेक्षा की नहीं है, आदिवासी मुख्यमंत्री की उपेक्षा की भी है। कोरोना महामारी की शुरुआती दिनों से ही मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, केन्द्र सरकार के निर्देशों का अक्षरशः पालन करते आए और कई बार इसकी चर्चा भी की। लेकिन केन्द्र सरकार ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। मुख्यमंत्रियों के साथ वर्चुअल बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने हेमंत सोरेन को कभी बोलने का मौका नहीं दिया। जबकि कोरोना से निबटने में झारखंड सरकार ने कई राज्यों से बेहतर काम किया था। लेह से मजदूरों को वापस लाने के मामले में भी गृह मंत्री अमित शाह ने, ना तो उनके फोन कॉल्स का जवाब दिया, ना ही लिखित अनुरोध का।
अब हेमंत सोरेन ने बगावत का झंडा उठा लिया है, और केन्द्र सरकार पर पहली सीधी चोट की है। सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर होते ही, केन्द्र सरकार की आनन-फानन में नीलामी की योजना, खटाई में पड़ गई है। वहीं हेमंत सोरेन ने सीधे तौर पर प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए उन्हें व्यावसायिक समूहों के हाथों की कठपुतली करार दिया है। दूसरी तरफ, गरीब कल्याण रोजगार अभियान को भी बिहार चुनाव में जोड़कर नया मोर्चा खोल दिया है। कुल मिलाकर हेमंत सोरेन घायल शेर की भूमिका में आ गये हैं और केन्द्र से सीधे टकराने के मूड में हैं।
हीरो बनने का क्या फायदा?
इसकी वजह सिर्फ व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि राजनीतिक भी है। हेमंत सोरेन जानते हैं कि प्रदेश की राजनीति में आदिवासियों का मुद्दा कितना अहम है। प्रदेश के खदानों से ही आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन का मुद्दा जुड़ा है, उनके शोषण और विस्थापन का मुद्दा जुड़ा है। हेमंत सोरेन इसे दरकिनार नहीं कर सकते, क्योंकि नीलामी के बाद उन्हें ही इस समस्या से दो-चार होना पड़ेगा। ऐसे में आदिवासियों के हितों की रक्षा के खड़े होना या खड़ा हुआ दिखना जरुरी है। वहीं, जब विपक्ष में कोई दमदार ढंग से आवाज ना उठाये, तो लीड लेने में क्या हर्ज है…? क्या पता एक नई पहचान मिले…? या राजनीति में नया रोल…??