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हल्दी के ‘दाग’, धुलने में लगे 40 साल!

क्राइम जरुर पढ़ें देश संपादकीय

हल्दी के ‘दाग’, धुलने में लगे 40 साल!

Justice at last!
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करीब 38 साल से ज्यादा की अदालती कार्रवाई के बाद, आखिरकार कोर्ट ने एक कारोबारी को बेदाग घोषित कर दिया है। हरियाणा के इस दुकानदार पर हल्दी पाउडर में मिलावट का आरोप था। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए इस दुकानदार को बरी कर दिया है। वैसे, अगर मिलावट का आरोप साबित भी हो जाता तो भी दुकानदार को अधिकतम छह महीने कैद की ही सजा मिलती।

क्या है पूरा मामला?

हरियाणा के सोनीपत जिले के दुकानदार प्रेम चंद्र ने, 18 अगस्त 1982 को सुबह 11 बजे 100 ग्राम हल्दी पाउडर बेचा था। उसे पता नहीं था कि ग्राहक… दरअसल खाद्य विभाग का अधिकारी है। इस 100 ग्राम हल्दी की जांच हुई और कीड़े पाए जाने के आरोप में उसकी दुकान से 10 किलो हल्दी पाउडर जब्त कर लिया गया।

आरोपी के खिलाफ ट्रायल कोर्ट में यह मुकदमा करीब 14 साल तक चला, जहां उसका दोष साबित नहीं हुआ और वो बरी हो गया। इसके बाद सरकार ने पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट में अपील की। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने 11 साल बाद….दिसंबर 2009 में प्रेम चंद्र को हल्दी में मिलावट का दोषी करार दिया। अदालत ने उसे छह महीने कैद की सजा के साथ, दो हजार रुपए के जुर्माने की सज़ा सुनाई।

इस फैसले के खिलाफ प्रेम चंद्र ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट में भी फैसला आने में करीब साढ़े नौ साल लग गये। आखिरकार जस्टिस एन वी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस कृष्णमुरारी की पीठ ने प्रेम चंद्र को बेदाग करार दिया।

क्या थी बचाव की दलील?

सरकारी विश्लेषक की रिपोर्ट में कहा गया था कि इकट्ठा किये गये नमूने में चार जीवित झींगुर और दो जिंदा घुन पाये गये थे। इसके खिलाफ बचाव पक्ष की सबसे मजबूत दलील ये थी कि हल्दी का नमूना, सैंपल लेने के 18 दिन बाद प्रयोगशाला में भेजा गया था। और विभाग ये साबित नहीं कर पाया कि नमूने से छेड़छाड़ नहीं हुई।

बचाव पक्ष की दूसरी दलील थी कि सरकारी विश्लेषक ने अपनी रिपोर्ट में कहीं उल्लेख नहीं किया था कि हल्दी पाउडर का नमूने में ‘कीड़े-मकोड़े’ थे या वह ‘मानव उपभोग की दृष्टि से उपयुक्त’ नहीं था। कोर्ट के मुताबिक इस तरह के मंतव्य के अभाव में खाद्य अपमिश्रण निरोधक कानून, 1954 की धारा 2(1ए)(एफ) के मानदंड को पूरा किया हुआ नहीं कहा जा सकता।

क्या हैं इस फैसले के मायने?

ये फैसला इस मायने में अहम है कि आखिरकार देर से ही सही, न्याय हुआ और सभी कानूनी पक्षों को ध्यान में रखकर फैसला सुनाया गया। लेकिन सवाल ये है कि क्या सही में न्याय मिला? क्या ये पता चल पाया कि दुकान में बिक रही हल्दी खाने लायक थी या नहीं? क्या न्याय का हक़ सिर्फ दुकानदार को है, उनको नहीं जिन्होंने दुकान से हल्दी खरीदी?

क्या ये पता चल पाया कि फूड इंस्पेक्टर ने ईमानदारी से काम किया था या सिर्फ अवैध वसूली के लिए कार्रवाई की थी? अगर उसने ईमानदारी से काम किया, तो क्या 38 सालों बाद उसके साथ न्याय हुआ? क्या इस तरह की विभागीय गलती ( 18 दिनों बाद सैंपल को प्रयोगशाला में भेजा जाना) के लिए दोषियों को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए?

और सबसे बड़ी बात…..एक मामले को निपटाने में अगर 4 दशक लग जाएं, और अपराधी कानूनी दांव-पेंचों की आड़ में बचा रहे, तो सज़ा और न्याय का मतलब क्या है? ये स्थिति रही, तो जल्द ही अदालती फैसले के साथ ये पंक्ति भी जोड़नी पड़ेगी….इस अपराध की सज़ा अगले जन्म में मिलेगी….इस जन्म में केवल अदालती कार्रवाई होगी।

Shailendra

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