Ludo : मिथुन वाला लव
कभी-कभी शतरंज के मोहरों की तरह सालों अपने खाने में कैद जिन्दगी एकाएक पांसे की तरह बदलती है, और स्याह-सफेद से रंग-बिरंगी हो लूडो( Ludo) बन जाती है।
लूडो प्यार की पड़ताल है। लाइफ इन ए मेट्रो के बाद अनुराग पहली बार कस्बे के कैनवास पर एक साथ कई समान्तर कथाओं को एक कड़ी में जोड़ने की कोशिश करते हैं। एक पतिव्रता पत्नी है जो अपने पति को किसी तरह बचाना चाहती है, लेकिन नहीं बचा पाती, एक लड़की है जो बेहद अमीर लड़के से शादी करना चाहती है, लेकिन नहीं कर पाती….एक मलयाली नर्स है जिसे एक शेड में रहने वाला हिन्दी बोलने वाला सेल्समैन अच्छा लगने लगता है। एक डॉन है जो मर्डर भी करता है तो आध्यात्मिक तरीके से ….
यही डॉन अपने सेकेंड एसाइनमेंट पर निकलता है तो भगवान दादा का गाना —ओ बेटा जी ..सुनते हुए अपने साथियों को प्यार से कहता है …. –गाओ भो….के
एक अहम किरदार सान्या मल्होत्रा और आदित्य रॉय कपूर का है जो उस होटल की तलाश कर रहे हैं जहां उन्हें प्यार करते किसी ने कैमरे से शूट कर लिया था। आदित्य ventriloquist हैं यानी वो इस तरह बोलते हैं कि लगता है कि आवाज पपेट से आ रही है। हिन्दी सिनेमा में ये किरदार ज्यादा आजमाया नहीं गया है। लूडो में चार जोड़ियां हैं, हर किरदार अपने रंग वाले घर में लूजर है, लेकिन दूसरे घर में पहुंच कर वो विनर हो जाता है।
राजुकमार राव और फातिमा साना शेख के जरिए अनुराग प्यार की नए सिरे से पड़ताल करते हैं।
ओमर्ता का आतंकवादी लूडो में लवर बना है तो उसी इन्टेनसिटी के साथ । आलोक कुमार गुप्ता उर्फ आलू के किरदार को राजकुमार राव अपनी एक्टिंग से गहरा बनाते हैं।
इस किरदार में एक शेड है वन साइडेड लवर का, जिसकी माशूका किसी और से शादी कर लेती है और अपनी जिन्दगी में बेहद खुश है, फिर भी बंदा अपने पुरानी दिनों की याद की पोटली रोज खोलता है… ओढ़ता है, बिछाता है, और सो जाता है। वो मिथुन का फैन है, हेयरस्टाइल में मिथुन, वाक में मिथुन, टॉक में मिथुन और डांस में तो मिथुन है ही… सिर्फ इसलिए क्योंकि पिंकी जब स्कूल में थी तो उसे मिथुन पसंद था। यूज मी, बट डोन्ट लूज मी वाले किरदार को राजकुमार राव एक अलग लेवल पर ले कर जाते हैं। पिंकी को जब कहीं से मदद नहीं मिली तब आखिर में वो मेरे पास आई है और काम हो गया तो फिर कभी नजर नहीं आएगी, ये जानते हुए भी इस्तेमाल किए जाने में सकून का जो एहसास राव लेकर आते हैं, वो शायद वही कर सकते हैं।
साया और तुमसा नहीं देखा के बाद 2004 में अनुराग बसु मर्डर लेकर आए। एक्स्ट्रामैरिटल अफेयर के नजरिए से ये एक कल्ट मूवी थी।
दो साल बाद गैंग्स्टर में अनुराग ने दिखाया कि मोहब्बत में इनसान को पूरी तरह बदल डालने की ताकत होती है। एक अपराधी भी मोहब्बत करने के बाद सही राह पर चल सकता है।
लाइफ इन ए मेट्रो में 9 किरदार हैं, और हर किरदार प्यार में टूट कर बिखर जाने के बाद जिंदगी को फिर से नए सिरे से जीने की कोशिश करता है
काइट्स में अनुराग ये बताने की कोशिश करते हैं कि प्यार की अपनी जुबान होती है इसे समझने के लिए भाषा नहीं जज्बात चाहिए।
अनुराग की सबसे मुकम्मिल फिल्म बरफी में मरफी बोल नहीं सकता, झिलमिल समझ नहीं सकती, श्रुति बोल भी सकती है, समझ भी सकती है, इसलिए उन दोनों की जिन्दगी से हट जाती है। जिन्दगी चाहे इनकी कितनी ही अधूरी नजर आती हो, लेकिन इनका प्यार अधूरा नहीं पूरा है।
प्यार को पर्दे पर पेश करने का अनुराग का एक खास तरीका है, पटकथा, संगीत और कैमरे के जरिए वो अपनी हर फिल्म में प्यार की नए सिरे से खोज करते हैं। शुरूआती फिल्मों में उनके किरदारों को मौत के साथ प्यार नसीब होता था, लूडो में आखिर में सबको अपने हिस्से का प्यार अपनी जिंदगी में ही नसीब हो जाता है।