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बढ़ती सुविधा…घटता संवाद!

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बढ़ती सुविधा…घटता संवाद!

more facilities, less communication
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यरवदा जेल में रहने के दौरान गांधीजी को दमे के एक रोगी ने चिट्ठी लिखी…जिसमें प्राकृतिक चिकित्सा के उनके प्रयोगों का हवाला देते हुए अपने लिए कुछ उपाय बताने को कहा। महादेव देसाई ने यह कहते हुए वो चिट्ठी फाड़ दी कि आप ऐसी चिट्ठियों का जवाब कब तक देते रहेंगे? सरदार पटेल भी उस मौके पर वहीं थे। उन्होंने भी हंसी-मजाक किया और कहा कि लिखो ना कि उपवास कर… काशीफल खा…भाजी खा। गांधीजी इनकी बातों पर पहले तो खूब हंसे लेकिन इस चिट्ठी का जवाब लिख कर भेजा भी।

आज कोरोना संकट के दौर में करोड़ों लोग अपने घरों में रह कर भी संचार और सूचना क्रांति की बदौलत दुनिया भर से जुड़े हुए हैं। लेकिन गांधीजी जी ने जब स्वाधीनता संग्राम की बागडोर संभाली थी तो वो दौर ही अलग था। भारतीय रेल और भारतीय डाक ही उस दौर में अंग्रेजी राज के सबसे ताकतवर हथियार थे। लेकिन गांधीजी ने इनको अपना हथियार बना लिया।

लोगों से जुड़ने के लिए, गांधीजी ने रेलवे के माध्यम से देश के तमाम हिस्सों में जितनी यात्राएं की, उतनी किसी और नेता ने नहीं की। इसी तरह लोगों से संवाद के लिए गांधीजी ने जितनी चिट्ठियां लिखी..उतनी शायद ही किसी ने लिखी हो। गांधीजी छह भाषाओं में लिख सकते थे। दक्षिण भारतीय भाषाओं समेत वे 11 भाषाओं में हस्ताक्षर कर लेते थे। वे दाहिने और बाएं दोनों ही हाथों से लिख लेते थे…और उनके बाएं हाथ की लिखावट दाएं हाथ से काफी अच्छी थी।

वे भरी भीड़ के बीच या जनसभाओं के दौरान ही नहीं….अंधेरे में भी चिट्ठियों का जवाब लिख लेते थे। चिट्ठियों के सहारे उन्होंने दुनिया भर के आम और खास लोगों तक से संवाद बनाए रखा था। इनकी बदौलत गांधीजी को बहुत से बेहतरीन सहयोगी भी मिले। चलती रेलगाड़ी हो या हिलता हुआ पानी का जहाज….गांधीजी को चिट्ठी लिखने में कहीं बाधा नहीं आती थी। उनकी लिखी छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चिट्ठी कई संदर्भों में मूल्यवान हैं।

विदर्भ में सेवाग्राम महात्मा गांधी का आखिरी पड़ाव आजादी के आंदोलन का निर्णायक केंद्र रहा। यहां गांधीजी को रोज एक-दो बोरी चिट्ठियां आती थीं। गरीब मजदूर और किसान से लेकर बड़े अफसर और नेताओं की। यहीं गांधी जी से संपर्क के लिए वायसराय लिगलिनथो ने आश्रम में टेलीफोन लगवा दिया था। एक डाकघर भी वहां खुला। कई बार दिन भर में गांधी जी अपने हाथ से 80 पत्रों तक के जवाब लिख देते थे। जीवन के आखिरी दिन यानि 30 जनवरी, 1948 को भी दिल्ली में गांधीजी का काफी समय चिट्ठियां लिखने में बीता।

ये चिट्ठियां न होती तो क्या गांधीजी इतने लोगों से जुड़ सकते थे? इससे भी बड़ा सवाल….आज हमारे पास मोबाइल है….फिर भी हम कितने लोगों से जुड़ पाते हैं?

(वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक अरविंद कुमार सिंह के फेसबुक वॉल से साभार)

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