बढ़ती काया…पसरता एकाकीपन!
फिल्म अभिनेता सुशांत की उम्र बेशक कम थी, लेकिन वे स्टार थे। भारत जैसी विशाल आबादी वाले देश में किसी भी ठीक-ठाक स्टार के इतने चाहने वाले होते हैं कि संख्या में वे किसी देश की आबादी बन सकते हैंं। चाहने वाले बेशक कलाकारों की ताकत भी होते हैं और कमजोरी भी। वो किसी भी कलाकार की काया का विस्तार करते हैं। यह बात केवल कलाकारों पर ही नहीं लागू होती, राजनीतिक दलों के नेता से लेकर खिलाड़ी और साहित्यकार और शून्य से शिखर तक की यात्रा करने वाले उद्योगपतियों से लेकर नौकरशाहों जैसी कई श्रेणी के लोग इसमें आते हैं।
आज माध्यमों की भरमार है, इस नाते कलाकारों को वैसा सुयोग हासिल नहीं है, जो अमिताभ बच्चन और उनकी पीढ़ी को हासिल था। लेकिन उनके पास आज वैश्विक क्षितिज को छूने की भी संभावनाएं हैं, जो पहले सीमित थी। सुशांत बेशक एक होनहार और प्रतिभावान कलाकार थे, इस नाते उनकी काया का भी विस्तार हुआ। उन्होंने जान क्यों दे दी, यह समझ पाना बहुत सरल नहीं। क्योंकि वे जिस पृष्ठभूमि से आते हैं उसमें भावुक से भावुक व्यक्ति भी कायरता नहीं करता। कोई ऐसी बात जरूर है जो उनको लगातार काफी समय से व्यथित किए रही होगी और कोरोना काल में एकाकीपन ने उनको और तोड़ दिया था।
जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं तो मुझे बसपा के संस्थापक स्व.कांशीरामजी की कही एक बात हमेशा याद आ जाती है। उनका कहना था कि किसी भी क्षेत्र में आदमी की काया का जब विस्तार होता है तो उसके साथ दो-तीन चीजें घटती हैं। पहला यह कि वह भीड़ मेंं होकर भी एकाकी बनने लगता है। धीरे धीरे उसके अभिन्न मित्र भी औपचारिक होने लगते हैं। रोज का साथ देने वालों का नाता भी चंद खास मौकों तक सीमित रह जाता है। संबंधित व्यक्ति, व्यस्तता के नाते उन दोस्तों की हाल खबर नहीं लेता तो उनको ऐसा लगने लगता है कि वह अब बदल गया है। कई बार स्टाफ के लोग फोन उठा कर इनके बारे में सलीके से सूचनाएं भी नहीं देते, जिससे संवादहीनता के बढ़ने का सिलसिला और तेज हो जाता है। ऐसे में व्यक्ति के मन की ऐसी बहुत सी बातें उसके मन में ही धरी रह जाती हैं, जिसे दोस्तों के साथ साझा करके वह हल्का हो सकता है।
दूसरी बात, ऐसे लोग धीरे-धीरे रहस्यों की सुरंग बन जाते हैं। उनकी अपनी बेबसी होती है, बहुत सी बातें छिपानी पड़ती है। इनमें कुछ ऐसी बातें भी होती हैं, जो दूसरों को नुकसान तक पहुंचाती हैं। ऐसा व्यक्ति जब भी भीड़ से अकेला होता है, तो कई बार उसे लगता है कि वह सब कुछ होने के बाद भी एक अंधी सुरंग में है। ऐसे मौकों पर मां काम आ सकती है, लेकिन जिसके साथ मां भी न हो या वह इस दुनिया से दूर जा चुकी हो तो उसकी राह और कठिन हो जाती है। सुशांत की मौत पता नहीं इनमें किसी से भी संबंधित है या नहीं, लेकिन यह सारी बात मन में अनायास आ गयी, सो कह दी।
इस टिप्पणी के साथ सभी मित्रों को एक सुझाव भी है। भले ही आपकी काया विस्तारित हो या यथास्थिति में हों, अपने दोस्तों की हाल खबर जरूर लेते रहें। जिनके साथ आपका रोज का संबंध सोशल मीडिया पर या रोजमर्रा में होता रहता है, उनसे अगल दूर दराज बैठे दोस्तों की खबर और नहीं तो कम से कम महीने में एक बार जरूर लें। नहीं लेते तो यह काम आज से ही आरंभ कर दें। संभव हो तो सबको एक-एक पत्र विस्तार के साथ लिखें और फोन भी करें। पता नहीं आपका कोई फोन और चिट्ठी उसे एक नयी ताकत दे दे। उसे यह आभास हो जाये कि वह अकेला नहीं। हो सकता है कि आपकी छोटी-मोटी मदद उसे फिर से खड़ा कर दे। या फिर केवल कुछ फोन कॉल्स उसे इस बात का आभास करा दे कि वह अकेला नहीं है।
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक अरविंद कुमार सिंह के फेसबुक वॉल से साभार