नई शिक्षा नीति: क्या अच्छा, क्या बुरा?
बदलते समय और जरुरतों के मुताबिक शिक्षा नीति में बदलाव की जरुरत तो लंबे समय से महसूस की जा रही थी। अभी तक 1986 में बनी शिक्षा नीति के अनुसार ही शिक्षा व्यवस्था को संचालित किया जा रहा था। 1992 में इस नीति में कुछ बदलाव जरुर किया गया, लेकिन वो ना तो पर्याप्त था और ना ही असरदार।
बीजेपी ने 2014 के अपने चुनावी घोषणापत्र में नई शिक्षा नीति लाने का वादा किया था। सत्ता में आने के बाद उसने इस दिशा में कदम भी उठाये। आखिरकार व्यापक सलाह-मशविरे और हजारों सुझावों के बाद, के. कस्तूरीरंगन समिति द्वारा तैयार नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का ऐलान किया गया। स्वाभाविक तौर पर इससे शिक्षा के क्षेत्र में अपेक्षित बदलाव की उम्मीद जागती है। चलिए पहले देखते हैं इसमें अच्छा क्या है?
प्रारंभिक शिक्षा : मजबूत बुनियाद पर जोर
- अब तक शिक्षा प्रणाली से दूर रखे गए 3-6 साल के बच्चों को भी स्कूली पाठ्यक्रम के तहत लाया जाएगा। उनके लिए विशेष पाठ्यक्रम लांच किया जाएगा। इस व्यवस्था को पूरी दुनिया में बच्चे के मानसिक विकास के लिए महत्वपूर्ण चरण के रूप में मान्यता दी गई है।
- कक्षा पांचवीं तक… और संभव हो सके तो आठवीं तक मातृभाषा में ही शिक्षा उपलब्ध कराई जाएगी। सभी शिक्षाविद मानते हैं कि मातृभाषा में पढ़ाई होने से बच्चों की समझ ज्यादा आसानी और तेजी से विकसित होती है। शिक्षा की बुनियाद मजबूत करने का ये बेहतर और सर्वमान्य तरीका है।
- प्राथमिक स्तर पर शिक्षा में ऐसे भाषा शिक्षकों की उपलब्धता को महत्व दिया गया है जो बच्चों के घर की भाषा समझते हों। यानी शिक्षकों की नियुक्ति स्थानीय स्तर पर होगी। इससे पंचायत स्तर पर रोजगार और प्राथमिक शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित होगी।
माध्यमिक शिक्षा : समझ और सपनों को विस्तार
- नई शिक्षा नीति बेरोजगार तैयार नहीं करेगी। व्यावसायिक शिक्षा और कौशल विकास पर जोर दिया जाएगा। कक्षा छह से ही छात्रों में कौशल विकास को बढ़ावा दिया जाएगा। इसके लिए विशेष तौर पर वोकेशनल कोर्स शुरू किए जाएंगे। इसके लिए इसके इच्छुक छात्रों को छठी क्लास के बाद से ही इंटर्नशिप करवाई जाएगी।
- संगीत और कला को बढ़ावा दिया जाएगा।अभी तक आर्ट, म्यूजिक, क्राफ्ट, स्पोर्ट्स, योग आदि को सहायक पाठ्यक्रम (co curricular) या अतिरिक्त पाठ्यक्रम (extra curricular) के तौर पर रखा जाता रहा है। लेकिन अब ये मुख्य पाठ्यक्रम का हिस्सा होंगे।
- इनके नंबर जुड़ेंगे, तो बच्चों का फोकस बढ़ेगा और हौसला भी। यही विषय बाद में उनका करियर भी तय कर सकते हैं। वैसे भी आज की शिक्षा में सिर्फ डॉक्टर, इंजीनियर बनाने पर जोर है। अगर कोई चित्रकार, योगगुरु या संगीतज्ञ बनना चाहे, तो इसमें क्या हर्ज है? उसका मूल्यांकन सिर्फ विज्ञान या गणित में आनेवाले अंकों से क्यों हो?
- बच्चों के रिपोर्ट कार्ड में बदलाव होगा। उनका तीन स्तर पर आकलन किया जाएगा। एक स्वयं छात्र करेगा, दूसरा सहपाठी और तीसरा उसका शिक्षक। नेशनल एसेसमेंट सेंटर – परख बनाया जाएगा जो बच्चों के सीखने की क्षमता का समय-समय पर परीक्षण करेगा।
- दसवीं एवं 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं के महत्व को कम किया जाएगा। नई नीति में इससे जुड़े कई अहम सुझाव हैं। जैसे – साल में दो बार परीक्षाएं कराना, इन्हें दो हिस्सों वस्तुनिष्ठ और व्याख्यात्मक श्रेणियों में विभाजित करना आदि। बोर्ड परीक्षा में मुख्य जोर ज्ञान के परीक्षण पर होगा, ताकि छात्रों में रटने की प्रवृत्ति खत्म हो।
- हाल के वर्षों में बोर्ड परीक्षाओं में जिस तरह और जितनी संख्या में 99-100 फीसदी नंबर दिये जा रहे हैं, उससे छात्रों का सही मूल्यांकन नहीं हो पा रहा है और ज्यादा अंक पाने की होड़ सी मच गई है। इस पर रोक लगाना जरुरी था।
उच्च शिक्षा : विकल्पों की आज़ादी
- उच्च शिक्षा में अब मल्टीपल इंट्री और एग्जिट का विकल्प दिया जाएगा। यानी किसी कारण से पढ़ाई बीच सेमेस्टर में छूट जाती है तोे बेकार नहीं जाएगी। अगर आपने एक साल पढ़ाई की है तो सर्टिफिकेट, दो साल की है तो डिप्लोमा और तीन या चार साल की पढ़ाई की है, तो डिग्री दी जाएगी।
- 3 साल की डिग्री उन छात्रों के लिए है जिन्हें हायर एजुकेशन नहीं लेना है। वहीं हायर एजुकेशन करने वाले छात्रों को 4 साल की डिग्री करनी होगी। 4 साल की डिग्री करने वाले स्टूडेंट्स एक साल में MA कर सकेंगे।
- पांच साल का संयुक्त ग्रेजुएट-मास्टर कोर्स लाया जाएगा। एमफिल को खत्म किया जाएगा और पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में एक साल के बाद पढ़ाई छोड़ने का विकल्प होगा।
- नई शिक्षा नीति के मुताबिक यदि कोई छात्र इंजीनियरिंग कोर्स को 2 वर्ष में ही छोड़ देता है तो उसे डिप्लोमा प्रदान किया जाएगा। इससे इंजीनियरिंग छात्रों को बड़ी राहत मिलेगी।
- उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश के लिए कॉमन एंट्रेंस एग्जाम का प्रस्ताव है। नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (National Education Policy, NEP) को अब देश भर के विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की जिम्मेदारी दी जाएगी। इससे छात्रों को एक ही एक्ज़ाम देकर…. देश भर के बेहतर यूनिवर्सिटी में एडमिशन का मौका मिलेगा।
क्या रह गई कमी?
- सरकार ने तय किया है कि अब सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का कुल 6 फीसदी शिक्षा पर खर्च होगा। सिर्फ 6 फीसदी???? क्या ये भारत जैसे देश के लिए काफी है? बिल्कुल नहीं।
- शिक्षा पर खर्च के मामले में भारत का दुनिया में 136वां स्थान है। भारत ने साल 2020 के बजट में शिक्षा के लिए 99 हजार करोड़ आबंटित किया था, जबकि चीन इस मद में 29 लाख करोड़ और अमेरिका ने 4.5 लाख करोड़ खर्च करता है।
- सरकार का लक्ष्य है कि वर्ष 2030 तक हर बच्चे के लिए शिक्षा सुनिश्चित की जाए। इसके लिए एनरोलमेंट को 100 फीसदी तक लाने का लक्ष्य है। लेकिन कैसे? इस बारे में कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
- 1968 की शिक्षा नीति में ही 14 वर्ष तक अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव किया गया था, लेकिन ये आज तक मुमकिन नहीं हो पाया। इसलिए लिए नई नीति के लक्ष्य को भी फिलहाल ‘लक्ष्य’ ही समझना चाहिए।
- शिक्षा में सुधार के लिए सबसे जरुरी है शिक्षकों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना। केवल ट्रेनिंग देने या उसकी प्लानिंग से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि ये सालों से होता आ रहा है।
- शिक्षकों की नियुक्ति के लिए भी कॉमन एंट्रेंस एग्जाम होना चाहिए और फिर उनकी स्थानीयता के मुताबिक देश भर में उनकी नियुक्ति होनी चाहिए। इस नीति में इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया गया है।
- शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार में तब तक सुधार नहीं आएगा, जब तक स्कूलों में योग्य शिक्षक ना हों, कक्षा के मुताबिक उनकी पर्याप्त संख्या में नियुक्ति ना हो और फर्जी शिक्षकों को सिस्टम से बाहर ना किया जाए। इसके लिए नीति से ज्यादा नीयत की जरुरत है।
अब वक्त आ गया है कि शिक्षा प्रणाली को न सिर्फ अपने देश की, बल्कि वैश्विक जरुरतों के मुताबिक ढाला जाए…ताकि विज्ञान, गणित, तकनीक, सामाजिक विज्ञान, कला, भाषा आदि क्षेत्रों में प्रतिभाओं को पनपने और आगे बढ़ने का मौका मिल सके। और सबसे बड़ी बात…..कम से कम इस नई शिक्षा नीति को पूरी ईमानदारी से लागू किया जाए।