अब तालिबान के साथ आया चीन, भारत पर पड़ेगा असर

विश्व महाशक्ति अमेरिका को पछाड़ने के लिए चीन कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहा. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ दोस्ती बढ़ाकर पहले उसने अमेरिका और यूरोपीय देशों को परोक्ष चुनौती दी और अब तालिबान (Taliban) के शासन वाले अफगानिस्तान (Afghanistan) में अपना पूर्णकालिक राजदूत नियुक्त करके ‘अलग राह’ पर चलने के साफ संकेत दे दिए हैं.
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद चीन, दुनिया का ऐसा पहला देश है जिसने काबुल में अपना राजदूत नियुक्त किया है. तालिबान प्रशासन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बताया कि नए दूत झाओ जिंग अगस्त 2021 के बाद से पद संभालने वाले किसी भी देश के पहले राजदूत हैं. बता दें, आतंकवाद को प्रश्रय देने और महिला शिक्षा व मानवाधिकारों के दमन के लिए बदनाम तालिबान को अब तक किसी भी विदेशी सरकार ने आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी है. तालिबान ने 15 अगस्त 2021 को अफगानिस्तान पर फिर कब्जा जमाया था. इससे पहले वर्ष 1996 से लेकर 2001 तक भी वह, अफगानिस्तान पर शासन कर चुका है.
तालिबान ने अफगानिस्तान में शरिया कानून लागू करते हुए महिलाओं की शिक्षा और नौकरी पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए थे. यही नहीं, अफगानिस्तान में ब्यूटी पार्लर बंद कर दिए गए हैं और महिलाओं की पार्क और जिम में एंट्री भी बंद कर दी गई है. टीवी-सिनेमा देखने और 10 साल से अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर यहां पाबंदी है. तालिबान जब दूसरी बार अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हुआ था तो उसने खुद को बदलने और एक हद तक उदारवादी रुख अख्तियार करने का वादा किया था लेकिन ऐसा कुछ भी उसके व्यवहार में अब तक देखने में नहीं आया है.
काबुल में राजदूत की नियुक्ति के मुद्दे पर चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा है, ‘यह अफगानिस्तान में चीन के राजदूत का सामान्य रोटेशन है और इसका उद्देश्य चीन और अफगानिस्तान के बीच बातचीत व सहयोग को आगे बढ़ाना जारी रखना है.’ राजनीतिक विश्लेषक इस कदम के अपने मायने निकाल रहे. उनका मानना है कि चीन के इसके पीछे फिलहाल खालिस आर्थिक और सुरक्षा हित हैं. चीन ने अफगानिस्तान में लाखों डॉलर का निवेश किया है और वह इस मुल्क में अपना प्रभाव बढ़ाते हुए विकास कार्य में मदद करना चाहता है. इसके पीछे चीन की मंशा अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव कम करने और खुद को काबुल का ‘हमदर्द’ बताने की भी है.
कुछ विश्लेषकों का यह भी मानना है कि चीन ने सुरक्षा चिंता के चलते तालिबान के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है. उनका कहना है कि बीजिंग को अंदेशा है कि अफगानिस्तान, उइगर चरमपंथी समूह के लिए एक संभावित आश्रय स्थल बन सकता है. यह समूह, चीन में उइगर मुसलमानों के व्यापक दमन के खिलाफ जवाबी कार्रवाई कर सकता है और चीन में आतंकी गतिविधियां बढ़ सकती हैं. चीन पर उइगर मुसलमानों (Uighur Muslim) के दमन और अमानवीय व्यवहार करने के आरोप लगातार लगे हैं.
चीन के अफगानिस्तान के साथ खड़े होने के ‘आफ्टर इफेक्ट’ पर भारत (India) गंभीरता से नजर जमाए है. बीजिंग के इस कदम से चीन-पाकिस्तान-तालिबान के बीच एक नई क्षेत्रीय भू-राजनीतिक धुरी का निर्माण हो सकता है जो भारत के हितों को प्रभावित करेगा.अफगानिस्तान में चीन का प्रभाव, इस इस्लामिक मुल्क के रास्ते मध्य एशिया के लिए कनेक्टिविटी परियोजनाओं जैसे-चाबहार पोर्ट, इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर को भी बाधित कर सकता है.
अफगानिस्तान में सत्ता पर काबिज होने के अपने दूसरे कार्यकाल में तालिबान का भारत के प्रति रुख कुछ बदला हुआ नजर आया है. तालिबान चाहता है कि उसके मुल्क में निवेश करके भारत नए प्रोजेक्ट शुरू करे.भारत ने इस बारे में अब तक अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है, हालांकि वह मानवीय पहलू को ध्यान में रखते हुए वहां सहायता/रसद पहुंचाना जारी रखे हुए है.भारत ने अफगानिस्तान में गेहूं के वितरण के लिए संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रमके साथ साझेदारी की है. इसके तहत भारत ने अफगानिस्तान में यूएनडब्ल्यूएफपी केंद्रों को कुल 47,500 मीट्रिक टन गेहूं उपलब्ध कराया है.नए निवेश के अलावा तालिबान यह भी चाहता है कि भारत जो प्रोजेक्ट्स पूर्व राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी की सरकार के दौरान शुरू करने के बाद बीच में ही छोड़ दिए थे, उन्हें दोबारा शुरू किया जाए.उसने इसके लिए अफगानिस्तान में भारतीयों को सुरक्षा देने का वादा भी किया है.
तालिबान राज में अस्थिर अफगानिस्तान केवल भारत नहीं पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है.अमेरिका समेत पश्चिमी देशों को अंदेशा है कि तालिबान के शासन में अफगानिस्तान, एक बार फिर अलकायदा और आईएस की आतंकी गतिविधियों का केंद्र बन सकता है. इराक और सीरिया में अस्तित्व खत्म होने के बाद आईएस के लड़ाके अपने लिए नई जमीन तलाश रहे और तालिबान शासित अफगानिस्तान उनके लिए मुफीद जगह हो सकता है.
Now China has come with Taliban, India will be affected