RBI: अपना वाला बैंक
रिजर्व बैंक / की इंटरनल वर्किंग ग्रुप ने निजी बैंकों को लेकर 12 नई सिफारिशें की हैं। इनमें तीन सिफारिशें ऐसी हैं जो अगर सरकार मान लेती है तो 70 साल से जारी बैंकिंग की व्यवस्था देश में पूरी तरह बदल जाएगी।
पी के मोहन्ती, सचिन चतुर्वेदी, लिली वडेरा, एस सी मुर्मू और श्री मोहन यादव कमेटी की सिफारिशें-
- 50 हजार करोड़ से ज्यादा संपत्ति वाले नॉन बैन्किंग फाइनांस कंपमियां बैंक में परिवर्तित हो सकेंगी अगर वो दस साल से काम-काज कर रही हैं।
मायने – बजाज फाइनांस, L&T फाइनांस होल्डिंग्स, श्रीराम ट्रांसपोर्ट फाइनांस और महिन्द्रा फाइनांसियल सर्विसेज को बैंकिंग लाइसेंस मिलने की संभावना है।
2, पेमेंट बैंकों को तीन साल के काम-काज के बाद बैंक में बदलने की इजाजत देने की सिफारिश की गई है।
मायने – Jio, Paytm, और Airtel को बैंक बनने की इजाजत मिलेगी।
3.निजी बैंक में प्रमोटर की इक्विटी पंद्रह साल में घटा कर 26% करने का सुझाव है। अभी ये इक्विटी तीन साल में घटा कर 40% और पंद्रह साल में 15% पर लाने का कानून है। कहा जा रहा है कि इससे होस्टाइल टेक ओवर रुकेगा।
मायने – दो साल पहले कोटक महिन्द्रा बैंक के उदय कोटक ने रिजर्व बैंक की गाइडलाइन को कबूल करने से इनकार कर दिया। आखिर में रिजर्व बैंक और कोटक में ‘सुलह’ हुआ और रिजर्व बैंक ने उदय कोटक को अपनी इक्विटी कोटक महिन्द्रा बैंक में 26% रखने की इजाजत दे दी। अब कोटक को दी गई सुविधा दूसरे बैंक भी चाहते हैं। ताजा सुझाव सभी निजी बैंकों के लिए इसी व्यवस्था को नियमित करने की व्यवस्था है। हाल ही में बंधन बैंक के प्रमोटर चंद्र शेखर घोष पर जुरमाना लगाया गया क्योंकि उन्होंने अपनी इक्विटी तय सीमा तक नहीं घटाई थी। इसके बाद घोष ने बैंक में अपनी इक्विटी 61% से घटाकर 40 % की। सवाल है घोष बाबू से डील करने में रिजर्व बैंक के पसीने छूट गए, जब सरकार में रसूख के नाम पर देश के सबसे बड़े कारपोरेट घराने अपनी इक्विटी बैंक में नहीं कम करेंगे तब क्या करेगा रिजर्व बैक ?
अगर आपको पब्लिक सेक्टर बैंकों की खराब वित्तीय स्थिति, इनमें से कई के विलय और निजीकरण की बात बीते कुछ सालों से सुनने को मिल रही थी, तो उसके पीछे की असली कहानी अब सामने आई है। ये टेलीकॉम सुधार का बैंकिंग में परकाया प्रवेश है। जैसे बीएसएनएल और एमटीएनल को धीमी मौत दे कर सरकार ने जिओ, वोडाफोन और एयरटेल के लिए जमीन तैयार की, कुछ वैसा ही बैंकिंग में होता नजर आ रहा है।
सत्तर साल से देश में कारपोरेट्स को बैंक खोलने की इजाजत नहीं दी गई थी। डर था कि इन्हें इजाजत दी गई तो उनकी ग्रुप कंपनियों या एसोसिएट कंपनियां इसका फायदा कर्ज लेने, ओवरड्राफ्ट, शेयरों की खरीद ब्रिक्री में उठाएंगी। कारपोरेट्स का अपना बैंक हुआ तो बैंकिंग की अपनी तमाम जरूरतों के लिए शेयर बाजार जाने के बजाय ये अपने बैंक से वो रकम उधार में ले लेंगे। साथ ही उस बैंक की पूंजी का बड़ा हिस्सा उस कारपोरेट घराने की वित्तीय जरूरतों को पूरा करने में इस्तेमाल होगा। इसी वजह से 2013 में टाटा, बिड़ला, अंबानी समेत 27 कंपनियों ने जब बैंकिंग लाइसेंस के लिए रिजर्व बैंक से इजाजत मांगी तब रिजर्व बैंक ने सिर्फ IDFC और Bandhan को इजाजत दी। Yes bank और DHFL की हालिया घटनाओं से ये डर सही साबित हुआ है। लेकिन ताजा सिफारिशें लागू हुईं तो देश के सभी बड़े कारपोरेट्स जैसे टाटा, बिड़ला और अंबानी के पास अपना बैंक होगा। आदित्य बिड़ला, टाटा संस, बजाज और महिन्द्रा ग्रुप के पास दस साल से ज्यादा वक्त से काम करने वाली NBFC हैं। इनके पास कई बैंकों से ज्यादा पूंजी भी है। मतलब साफ है सरकार रिफॉर्म के नाम पर बैंकिंग को निजी सेक्टर को सौंपने की तैयारी कर रही है। अगले कुछ सालों में connected lending बार-बार सुनने के लिए तैयर हो जाइए। क्योंकि होगा ये कि मिस्टर एक्स अब कर्ज के लिए मिस्टर एक्स को निवेदन करेंगे और मिस्टर एक्स की फाइल अब मिस्टर एक्स मंजूर करेंगे। ये इसलिए होगा, क्योंकि सेंट्रल बैंक के तौर पर रिजर्व बैंक का ट्रैक रिकार्ड connected lending को समझने, पकड़ने और कार्रवाई करने में बेहद खराब रहा है। ताजा मिसालों में आप DHFL,PMC और Yes Bank याद कर सकते हैं। जो यस बैंक और पीएमसी के पांच-दस बेहद खास चुनिंदा ग्राहकों को दिए जाने वाले लोन पैटर्न पर नजर नहीं रख सके, वो अंबानी, अडाणी, बिड़ला और महिन्द्रा के विशाल कारपोरेट घराने पर किस तरह नजर ऱखेंगे, ये भरोसा करना मुश्किल है। बड़े कारपोरेट घराने अपने यहां मनी ट्रेल का इतना जटिल नेटवर्क बनाते हैं कि एक बार उनके पास कोई रकम पहुंची तो वो आखिर में जाकर कहां पर रुकी ये पता करना बेहद मुश्किल होगा।
कारपोरेट घरानों की एनबीएफसी अगर बैंक में तब्दील हो गई तो इससे एनबीएफसी की दुनिया ही एक तरह से बदल जाएगी। IL&FS और DHFL जैसे NBFC के डूबने से कई बैंक, म्यूचुअल फंड और इन्श्योरेंस कंपनियों पर गहरा असर पड़ा। हाल ही में रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर M Rajeshwar Rao ने एनबीएफसी के बैंकों में बदलने की वकालत की थी। अब तक एनबीएफसी बैंकों पर फन्डिंग के लिए निर्भर थे। कर्ज, बान्ड और कमर्शियल पेपर के लिए वो बैंक पर निर्भर थे। बैंक बनते ही उनकी ये परेशानी खत्म हो जाएगी। उन्हें कम कीमत पर जनता से जमा लेने का मौका मिलेगा, लांग टर्म फन्डिंग मिलेगी, उनका मार्जिन बढ़ेगा। और सबसे अच्छी बात ये कि वो सीधे रिजर्व बैंक के अधीन हो जाएंगे, लायबिलिटी के नजरिए से यस बैंक की मिसाल से साफ है कि इसके अपने ही फायदे हैं।
ताजा सिफारिश में कहा गया है कि बैंक किसी नई या मौजूदा कंपनी में 20 % तक निवेश कर सकेंगे। लेकिन अगर ये कंपनी उनकी खुद की सहायक कंपनी या ज्वाइंट वेंचर नहीं है तो वो उस कंपनी में शत प्रतिशत या अपनी पूंजी का 20% तक निवेश कर सकेंगे। जाहिर है इससे कारपोरेट्स को पूंजी हासिल करने या निवेश करने में आसानी होगी।
दावा है कि अमेरिका की तरह रिजर्व बैंक अब बैंक खोलने वाले कारपोरेट के सिर्फ बैंक पर नजर नहीं रखेंगी, वो उनकी दूसरी ग्रुप कंपनियों पर भी नजर रखेंगी कि बैंकिंग नियमों का इनके फायदे के लिए उल्लंघन तो नहीं हो रहा। अमेरिका में कारपोरेट्स पर नजर रखने के लिए Sarbanes-Oxley Act- ( एक गलत रिपोर्ट फाइल करने पर बैंक के सीईओ को 20 साल की सजा और 4करोड़ का जुरमाना) है, Dodd-Frank Act है, हमारे यहां इस तरह की मजबूत व्यवस्था अभी नहीं है।
कुल जमा कहानी ये है कि बैंकिंग सुधार और सुदूर गांवों में रह रही गरीब जनता को बैंकिंग की मुख्यधारा से जोड़ने के नाम पर सरकार पब्लिक सेक्टर के ज्यादा से ज्यादा बैंकों का निजीकरण करना चाहती है, इसके अलावा विदेशी बैंकों के लिए भारत को और ज्यादा खोलने की भी योजना है। Lakshmi Vilas Bank को विदेशी DBS Bank को सौंपने से इसी मंशा का इशारा मिलता है।
जिस देश में एक कॉरपोरेट को कर्ज न चुकाने पर विदेश में जा कर बसने की और एक किसान को फांसी लगाकर खुदकुशी करने की आजादी है, वहां बैंकिंग उद्योग को निजी सेक्टर को सौंपने को ‘सुधार’ कहने पर आप सिर्फ हंस सकते हैं …. लेकिन ये है एक त्रासदी।