RBI का सुझाव: बैंक खोलेंगे टाटा-बिरला-अंबानी-अदानी!
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) बड़े कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों को भी बैंक खोलने या बैंकिंग कारोबार करने की इजाजत देने पर विचार कर रही है। इसे लेकर विपक्षी दलों समेत कई आर्थिक विश्लेषकों ने सरकार पर निशाना साधना शुरु कर दिया है। S&P ग्लोबल जैसी रेटिंग एजेंसियां भी इससे जुड़े खतरे को लेकर आगाह कर रही हैं। तो चलिए जानते हैं क्या है ये फैसला और इससे अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच सकता है या फायदा?
RBI के एक आंतरिक कार्यसमूह (IWG) ने अपनी रिपोर्ट में यह प्रस्ताव दिया है कि बड़े कार्पोरेट घरानों और नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों (NBFC) को बैंक बैंक खोलने की इजाजत दे दी जाए। भारत में 1980 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था और उसके बाद 1993 में निजी कंपनियों को बैंक खोलने की अनुमति दी गई थी। तब से कई बड़े औद्योगिक घराने बैंक खोलने का लाइसेंस मिलने की आस लगाये बैठे हैं।
क्या हैं RBI की समिति के प्रस्ताव?
आरबीआई (RBI) ने देश के निजी क्षेत्र के बैंकों में स्वामित्व से संबंधित दिशानिर्देशों और कंपनी संचालन संरचना की समीक्षा करने के लिए 5 सदस्योंवाली एक आंतरिक कार्यसमूह (IWG) का गठन किया था। इस समिति ने पिछले सप्ताह कई सुझाव दिए थे :-
- बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट-1949 में जरूरी संशोधन के बाद कॉरपोरेट घरानों को बैंक का प्रमोटर बनने की इजाजत दी जानी चाहिए, ताकि बैंक और अन्य फाइनेंशियल व नॉन फाइनेंशियल ग्रुप कंपनियों के बीच कनेक्टेड लेंडिंग और एक्सपोजर से बचा जा सके।
- अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड वाले बड़े कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों को भी बैंक खोलने या बैंकिंग कारोबार करने की इजाजत दी जाए।
- अच्छी तरह से प्रबंधित और 50 हजार करोड़ से ज्यादा एसेट वाली गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFCs) को बैंक में बदलने की इजाजत दी जाए। लेकिन यह देखा जाए कि पिछले 10 साल में इनका ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा हो।
- नए बैंक खोलने के लिए शुरुआती पूंजी या नेटवर्थ की जरूरत को 500 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 1,000 करोड़ रुपये किया जाए। छोटे वित्तीय बैंकों के लिए नेटवर्थ की जरूरत को 200 करोड़ बढ़ाकर 300 करोड़ रुपये किया जाए।
- जो सहकारी बैंक छोटे वित्तीय बैंक बनना चाहते हैं, उनके लिए नेटवर्थ की जरूरत सिर्फ 150 करोड़ रुपये हो, लेकिन इसे अगले पांच साल में बढ़ाकर 300 करोड़ रुपये किया जाए।
- जिन पेमेंट बैंकों को 3 साल का अनुभव है, वो कुछ बदलावों के साथ स्मॉल फाइनेंस बैंक में तब्दील हो सकते हैं। इससे पेटीएम, जियो और एयरटेल पेमेंट्स को फायदा मिल सकता है।
- किसी बैंक की स्थापना के 15 साल हो जाने के बाद उसमें प्रमोटर की हिस्सेदारी बढ़ाकर 26 फीसदी तक करने की इजाजत दी जाए। अभी यह सीमा 15 फीसदी तक है।
किसको मिलेगा मौका?
रिज़र्व बैंक (RBI) की कमेटी के प्रस्ताव से बैंकिंग लाइसेंस पाने की इच्छुक कई कंपनियों में उत्साह है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार टाटा और आदित्य बिड़ला समूह बैंकिंग लाइसेंस के लिए अप्लाई कर सकते हैं। 2013 में जब रिज़र्व बैंक (RBI) ने निजी सेक्टर में मौकों का ऐलान किया था, तब दोनों ही कंपनियों ने बैंक लाइसेंस के लिए आवेदन किया था। लेकिन टाटा ने आरबीआई की कड़ी शर्तों को देखते हुए अपना आवेदन वापस ले लिया था। वहीं, आदित्य बिड़ला समूह को लाइसेंस नहीं मिला था क्योंकि आरबीआई (RBI) ने इंडस्ट्रियल हाउस को लाइसेंस देने से इनकार कर दिया था।
पिछले कुछ सालों में कई बड़े कार्पोरेट घरानों ने एनबीएफसी खोल लिए हैं, जिनमें बजाज फिनसर्व, एम एंड एम फाइनेंस, टाटा कैपिटल, एल एंड टी फाइनैंशियल होल्डिंग्स, आदित्य बिरला कैपिटल इत्यादि शामिल हैं। इसके अलावा रिलायंस, फाइनेंस होल्डिंग्स लिमिटेड और श्रीराम ट्रांसपोर्ट फाइनेंस लिमिटेड जैसी कंपनियों को भी इसका फायदा मिल सकता है।
क्या कहते हैं आलोचक?
कांग्रेस ने रिजर्व बैंक (RBI) की अंतरिम कार्य समूह की सिफारिश के तहत कॉरपोरेट घरानों को बैंक खोलने की अनुमति देने को घातक बताया है। पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने भी रिजर्व बैंक (RBI) के इस प्रस्ताव की कड़े शब्दों में निंदा की है। उन्होंने इसे बैंकिंग इंडस्ट्री पर कंट्रोल की बड़ी योजना का खतरनाक एजेंडा करार दिया है। रिजर्व बैंक (RBI) के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी इस प्रस्ताव की कड़ी आलोचना की है।
इनके मुताबिक –
- इस फैसले से देश के आर्थिक संसाधनों का बड़ा हिस्सा कारपोरेट सेक्टर के हाथों के चला जाएगा और जनता की गाढ़ी कमाई पर पूंजीपतियों का कब्जा हो जाएगा।
- बैंकिंग इंडस्ट्री में कुल 140 लाख करोड़ रुपये डिपॉजिट है, यदि बिजनेस घरानों को अपना बैंक खोलने की इजाजत दी गई तो वे छोटी समता निवेश (small fairness funding) से ही देश के वित्तीय संसाधनों की बहुत बड़ी राशि को नियंत्रित करने की स्थिति में होंगे।
- यदि प्रस्ताव पर अमल हुआ तो राजनीतिक संपर्क वाले बिजनेस घराने सबसे पहले लाइसेंस हासिल कर लेंगे और अपना एकाधिकार स्थापित कर लेंगे।
- आज के हालात में कारपोरेट घरानों को बैंक स्थापित करने की मंजूरी देने की सिफारिश चौंकाने वाली है।
- कार्पोरेट घरानों को बैंक खोलने की अनुमति देने से ‘कनेक्टेड लेंडिंग’ शुरू हो जाएगी। यानी बैंक का मालिक अपनी ही कंपनी को आसान शर्तों पर लोन दे सकेगा।
- जब बैंक का मालिक ही कर्जदार होगा, तो ऐसे में बैंक अच्छा ऋण कैसे दे पाएगा?
- जब कोरोना संकट के काल में वैसे ही इकोनॉमी की हालत खराब है, तब ही इस तरह का प्रस्ताव क्यों लाया गया है?
क्या है जोखिम?
बैंकिंग क्षेत्र में बड़े कॉरपोरेट घरानों को उतरने नहीं देने के पीछे कई वजहें और आशंकाएं बताई जा रही हैं। इनमें से कुछ तो ऐसी हैं, जिनके उदाहरण भी मौजूद हैं। आइये एक नजर डालते हैं, उन आशंकाओं पर –
- औद्योगिक घरानों को वित्तपोषण की जरूरत होती है। यदि उनके पास अपना बैंक होगा तो वे बिना किसी सवाल के आसानी से पैसे ले लेंगे।
- बैंकों में जनता का पैसा जमा होता है और कॉरपोरेट घराने कई तरह के बिजनेस में लगे होते हैं। इस बात की आशंका हमेशा रहेगी कि ऐसे बैंकों का फंड किसी और बिजनेस में डायवर्ट हो जाए या कॉरपोरेट से जुड़ी दूसरी कंपनियों को बतौर लोन दे दिया जाए।
- ऐसे में जब लोन डिफाल्ट होगा तो बैंक के डूबने का खतरा बढ़ेगा और जनता का पैसा जोखिम में पड़ जाएगा।
- बैंकिंग में कॉरपोरेट घरानों के उतरने से कुछ कारोबारी घरानों की आर्थिक व राजनीतिक ताकतें बढ़ जायेंगी।
- S&P ग्लोबल रेटिंग्स के मुताबिक इससे हितों का टकराव, आर्थिक ताकत के केंद्रीकरण और वित्तीय अस्थिरता जैसे खतरे हो सकते हैं।
- इसके अलावा इंटर ग्रुप लेंडिंग, फंड का डायवर्जन, कॉरपोरेट डिफाल्ट बढ़ने जैसे खतरे हैं। हाल में येस बैंक, ICICI बैंक, डीएचएफल, पीएमसी जैसे बैंकों के मामले में इसी तरह फंड का डायवर्जन किया गया।
- इससे गंभीर वित्तीय संकट भी खड़ा हो सकता है। साल 2008 में आयी अंतरराष्ट्रीय मंदी की प्रमुख वजह निजी अमेरिकी बैंकों का फेल होना ही था। वहीं, इंडोनेशिया को कॉरपोरटे्स बैंकिंग के कारण देश में जीडीपी के एक तिहाई हिस्से के बराबर नुकसान उठाना पड़ा था।
फिर सरकार क्यूं ले रही है ऐसा फैसला?
इन तमाम आशंकाओं के बीच कुछ ऐसी ठोस वजहें भी हैं, जिनकी वजह से सरकार को लगता है कि कॉरपोरेट घरानों को बैंकिंग सेक्टर में भी इंट्री की अनुमति दे दी जाए। आइये उन कारणों पर भी डालें एक नजर –
- नीति आयोग ने सरकार से सिफारिश की थी कि चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों को बैंकिग सेक्टर में इन्ट्री की अनुमति दी जानी चाहिए। हालांकि इसमें शर्त भी थी कि ये घराने अपने स्वामित्व वाली कंपनियों को लोन नहीं देंगे।
- पिछले तीन दशकों के आर्थिक सुधारों के बावजूद भारतीय बैंकों का कुल बैलेंस शीट GDP के 70% से भी कम है, जबकि दूसरे देशों, जैसे चीन में ये 175% के करीब है। जाहिर है, अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए बैंकिंग सेक्टर को खोलना ही होगा।
- भारत के घरेलू बैंकों द्वारा प्राइवेट सेक्टर को दिया गया लोन GDP के 50% के आसपास है, जबकि यूएस, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों में ये GDP के 150% से ज्यादा है। कम पूंजी से देश की उत्पादकता प्रभावित होती है।
- भारत का केवल एक बैंक (SBI) है, जो आकार के मामले में दुनिया के 100 बड़े बैंकों में शामिल हो पाया है। ये हमारे कमजोर बैंकिग सेक्टर का नमूना पेश करता है।
- अमेरिकी रेटिंग एजेंसी एस एंड पी ने कहा है कि आरबीआई (RBI) समिति की बेहतर तरीके से प्रबंधित गैर-वित्तीय कंपनियों को पूर्ण रूप से बैंक लाइसेंस दिए जाने की सिफारिश से वित्तीय स्थिरता में सुधार की संभावना है।
- इस एजेंसी के मुताबिक बैंकों के लिए न्यूनतम नेटवर्थ बढ़ाकर 1,000 करोड़ रुपये करने के सुझाव के अमल में आने से पूंजीकरण के मोर्चे पर स्थिति बेहतर होगी। इससे अधिक पूंजी वाले कॉरपोरेट ही बैंकिंग क्षेत्र में आ सकेंगे।
कितनी सही है आशंकाएं?
आर्थिक विश्लेषकों का ये मानना कि देनदार (बैंक) और लेनदार (कॉरपोरेट घराने) को अलग-अलग रहना चाहिए, बिल्कुल सही है, क्योंकि इसमें बैंक के डूबने का खतरा ज्यादा होता है। लेकिन कुछ मायनों में ये सिर्फ आशंका भी साबित हो सकती है। क्या कोई भी कॉरपोरेट घराना ऐसा चाहेगा कि वो जनता के पैसे को गलत निवेशों में फंसा दे और खुद अपना बैंक डुबा ले? क्या टाटा, बिड़ला, अंबानी, अदानी ऐसे फैसले ले सकते हैं, जिसमें खुद उनका पूरा कारोबार और जनता का भरोसा दांव पर लग जाए? इसकी संभावना कम ही है।
वैसे भी ये ही वो लोग हैं, जो सरकारी बैंकों से सबसे ज्यादा कर्ज लेकर बैठे हैं। ज्यादातर बैंकों का NPA बड़े कॉरपोरेट घरानों के लोन की वजह से बढ़ा हुआ है। ऐसे में क्या ये बेहतर नहीं होगा कि ये अपने ही बैंक से लोन लें और जब इनके गलत फैसलों की वजह से बैंक डूबे तो ये अपनी परिसंपत्ति बेचकर जनता के पैसे चुकाएं? अभी बैंकों को बचाने के लिए सरकार (जनता) पैसे खर्च कर रही है।
कोरोना संक्रमण से जूझ रही भारतीय अर्थव्यवस्था को गति पकड़ने के लिए पैसे (लोन) की जरुरत है। सरकारी बैंक अपने NPA से ही जूझ रहे हैं। इन्होंने तमाम घोटालों के बाद प्राइवेट सेक्टर को लोन देना भी कम कर दिया है। लोन के मामले में सरकारी बैंकों का मार्केट शेयर 74.28% (2015) से घटकर 59.8% आ गया है, जबकि निजी बैंकों का मार्केट शेयर 21.26% से बढ़कर 36.04% तक पहुंच गया है। एक तरफ निजी बैंकों का खर्च कम है, तो दूसरी तरफ रिस्क लेने का हौसला ज्यादा। ऐसे में क्या ये बेहतर नहीं होगा कि 1000 करोड़ की नेटवर्थ वाले बड़े घराने ही निजी कंपनियों की बैंकिंग और लोन का मामला संभालें और सरकारी बैंक सिर्फ कृषि, शिक्षा और घरेलू उद्योगों के छोटे-छोटे लोन पर फोकस करें?
आरबीआई (RBI) के इंटरनल वर्किंग ग्रुप (IWG) ने ये जो प्रस्ताव रखे हैं, उन पर रिजर्व बैंक ने 15 जनवरी तक सुझाव मांगे हैं और फीडबैक लिए जायेंगे। इसमें कोई भी व्यक्ति अपने सुझाव दे सकता है। 15 जनवरी 2021 के बाद रिजर्व बैंक (RBI) सभी सुझावों पर गौर करेगा और फिर किसी फैसले पर पहुंचेगा।