कल्याणी…कलाकार… क्लासिक!!!

स्टीमर का भोंपू कर्कश आवाज़ में बज उठता है। गुडलक टी हाउस पर बैठा कोई गाने लगता है- ओ रे माँझी, मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार हूँ इस पार। और इस गाने के बोलों के ज़रिये सहसा जैसे कल्याणी की पीड़ा, उसके मन के भीतर चल रही उठापटक मुखर हो उठती है और गाना ख़त्म होते होते वह फ़ैसला ले लेती है। कल्याणी युवा नेकदिल डाक्टर देवेन के साथ सुखद और सुरक्षित भविष्य की तरफ ले जा रही रेल छोड़ कर अपने मन की पुकार सुनकर स्टीमर में बीमार, दुखी और एकाकी विकास के पास चली जाती है, जिससे उसका मन वर्षों पहले जुड़ा था, लेकिन निष्ठुर संयोगों ने उन्हें वर्षों तक अलग रखा।

प्रेम की बंदिनी है कल्याणी। बिमल राय की फ़िल्म बंदिनी को हिंदी सिनेमा में क्लासिक का दर्जा हासिल है। यह फिल्म नूतन के अभिनय का भी सर्वोच्च शिखर है। बंदिनी में नूतन के अभिनय को भारतीय सिनेमा की सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में गिना जाता है। लेकिन इस फ़िल्म के दो केंद्रीय चरित्रों कल्याणी और विकास के लिए नूतन और अशोक कुमार के चुनाव की भी अपनी ही कहानी है। बिमल राय ने जब इस फिल्म पर काम शुरू किया था, तब नूतन कुछ हिट फ़िल्में करने के बाद नौसेना अधिकारी रजनीश बहल से शादी करके फ़िल्मों को अलविदा कह चुकी थीं। बिमल राय गर्भवती नूतन को स्क्रिप्ट सुनाने पहुँचे तो उनके पति को भी कहानी बहुत पसंद आई।
लेकिन, बिमल राय ने जब अशोक कुमार को कहानी सुनाई तो उन्हें क्रांतिकारी विकास का किरदार पसंद नहीं आया। बंदिनी के संवाद लेखक, नबेंदु घोष ने अशोक कुमार पर लिखी किताब में यह क़िस्सा दर्ज किया है । अशोक कुमार ने बिमल राय के प्रस्ताव पर तुरंत हामी नहीं भरी थी क्योंकि वह प्रेम करने वाली महिला से धोखा करके उसे छोड़ जाने वाले क्रांतिकारी के किरदार से असंतुष्ट थे। लेकिन जब उन्हें क्रांतिकारियों के जीवन और पार्टी के सख़्त अनुशासन की वजह से निजी जीवन में दी जाने वाली क़ुर्बानियों की बातें बताई गईं, तब जाकर उनका मन बदला । बिमल राय ने उनसे यह भी कहा कि दादामोनी, विकास की तरह की उन्मुक्त , खुले दिल वाली हँसी आपके अलावा और कोई नहीं हंस सकता। यह सुनकर अशोक कुमार ने अपना चिरपरिचित ठहाका लगाया। बात बन गई। धर्मेंद्र तब नये नये फिल्मों में आए ही थे। सुकुमार, नरमदिल जेल डॉक्टर देवेन की भूमिका में बिमल राय ने उन्हें बेहतरीन मौक़ा दिया। बिमल राय की सोच को दर्शाने वाला एक बहुत जानदार संवाद धर्मेंद्र के हिस्से में आया था – “क्या लाभ और हानि का हिसाब-किताब ही जीवन की सबसे बड़ी बात होती है?”

लेकिन बंदिनी नूतन की फ़िल्म है। उनके अभिनय का चरमोत्कर्ष। नूतन के बेटे मोहनीश बहल के जन्म के बाद फ़िल्म की शूटिंग शुरू हुई। 1963 में यह फ़िल्म रिलीज़ हुई। एस डी बर्मन की धुनों से सजे शैलेंद्र-गुलज़ार के गीतों ने जो जादुई असर छोड़ा, वो आज तक बरक़रार है। बंदिनी का एक-एक गाना फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने का बेजोड़ नगीना है। मोरा गोरा अंग लई ले, जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे, अब के बरस भेज भइया को बाबुल, ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना। फ़िल्म के क्लाईमेक्स में सचिन देव बर्मन की आवाज़ में ओ रे मांझी… तो प्रेम की सघनता, विरह की पीड़ा और पश्चाताप का अद्भुत सम्मिश्रण है।

उसी साल नूतन की एक और फ़िल्म आई थी – तेरे घर के सामने। नायक देव आनंद, निर्देशक उनके भाई विजय आनंद। संगीतकार फिर सचिन देव बर्मन। रोमांटिक फ़िल्म में नूतन ने अदाकारी का बिल्कुल अलग रंग दिखाया। चुलबुली, शोख़, शहरी लड़की। क़ुतुब मीनार की लोकेशन पर फ़िल्माया गया मोहम्मद रफ़ी का गाया सुपरहिट रोमांटिक गाना याद करिये- दिल का भँवर करे पुकार, प्यार का राग सुनो रे । नूतन की लोकप्रियता में उनकी फ़िल्मों के हिट संगीत का बहुत बड़ा हाथ रहा। ख़ुद भी बहुत अच्छा गाती थीं। लता मंगेशकर ने उन्हें अपने गाये गानों पर सबसे अच्छी तरह होंठ हिलाने वाली अभिनेत्री कहा था और सीमा फिल्म के गाने मनमोहना बड़े झूठे की मिसाल दी थी। सीमा, सुजाता और बंदिनी उनकी तीन ऐसी फ़िल्में हैं, जहाँ नूतन स्त्री के दुखदर्द की पहचान कराने वाली अभिनेत्री के रूप में दिखती हैं। इनमें से दो – सुजाता और बंदिनी – बिमल राय के निर्देशन में बनी थीं। नूतन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के तौर पर पांच बार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला, जिसे उनके बाद उनकी छोटी बहन तनुजा की बेटी काजोल ने भी दोहराया। 4 जून को नूतन के जन्मदिन के मौके पर हिन्दी सिनेमा की इस शानदार अदाकारा को नमन।

(वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार)