‘परीक्षा’ में पास!
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जाने-माने निर्देशक प्रकाश झा एक बार फिर सामाजिक मुद्दों पर एक बेहतरीन फिल्म ‘परीक्षा’ लेकर आये हैं। वैसे तो ये फिल्म सितंबर में रिलीज होनी थी, लेकिन कोरोना और उससे जुड़े हालात को देखते हुए इस फिल्म को ZEE5 पर रिलीज किया है। इस फिल्म में मुख्य भूमिका में हैं – आदिल हुसैन, प्रियंका बोस, शुभम झा और संजय सूरी।
यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है और इसका कथानक फिल्म सुपर 30 और इंग्लिश मीडियम से मिलता जुलता है, लेकिन फिर भी इसमें नयापन है और ये बेहद रोचक है। इस फिल्म के जरिए प्रकाश झा ने हमारे समाज की आर्थिक विषमता और शैक्षणिक व्यवस्था पर उसके असर को दिखाने की कोशिश की है। अपने इस लक्ष्य में प्रकाश झा काफी हद तक कामयाब भी होते दिखे हैं।

क्या है कहानी?
अगर एक रिक्शे वाला अपनी गरीबी और मुफलिसी से निकलने के लिए अपने बच्चे को सबसे अच्छे स्कूल में शिक्षा दिलाना चाहता है, तो उसे किन कठिनाईयों से गुजरना पड़ता है…इसी पर केन्द्रित है फिल्म परीक्षा की कहानी। प्रकाश झा ने इसके जरिए ना सिर्फ शैक्षणिक व्यवस्था बल्कि इससे जुड़ी सामाजिक व्यवस्था की कमियों को भी बखूबी उजागर किया है।
परीक्षा झारखंड के एक गरीब रिक्शा चालक की कहानी है, जो किसी भी हालत में अपने बेटे को अच्छी शिक्षा देना चाहता है और इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला दिलाकर उसे समाज के ऊंचे तबके के बच्चों के बीच खड़ा करना चाहता है। बच्चे की शिक्षा के जरिए खुद भी गरीबी के दलदल से बाहर निकलना चाहता है, क्योंकि वो बखूबी समझता है कि शिक्षा ही ऐसा जरिया है, जिससे आर्थिक स्थिति भी सुधर सकती है और समाज में पहचान भी बन सकती है।
लेकिन किसी की आर्थिक स्थिति… किसी प्रतिभाशाली बच्चे की तरक्की में कितने रोड़े अटकाती है, संपन्न समाज किस तरह बाधाएं खड़ी करता है और इनसे निबटने के लिए मां-बाप को किन कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है….इन्हीं सब मुद्दों को गंभीरता से उकेरती है फिल्म – परीक्षा।
प्रकाश झा अपनी फिल्मों में किरदारों को इस कदर बुनते हैं कि कहीं ना कही दर्शक उनमें अपनी कहानी देखने लगते हैं..। कुछ ऐसा ही रोल फिल्म के मुख्य किरदार बुची पासवान( आदिल हुसैन) का भी है…। एक खुशमिजाज, मेहनतकश और ईमानदार रिक्शे वाला….जो स्कूली बच्चों का मनोरंजन करते हुए उन्हें रांची के सबसे बड़े अंग्रेज़ी स्कूल लाता और ले जाता है…और इसी दौरान अपने बच्चे को भी इसी स्कूल में पढ़ाने के सपने देखने लगता है। इस कोशिश में बुची स्कूल के कर्मचारियों-अधिकारियों से भी बातचीत करता है, जो थोड़ा अस्वभाविक लगता है, लेकिन कहानी के बहाव में इस पहलू को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है…
परीक्षा की कहानी… रांची शहर की दलित बस्ती अंबेदकर नगर में रहनेवाले बुची पासवान के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपनी पत्नी और होनहार बेटे बुलबुल (शुभम) के साथ रहता है। बुची और उसकी पत्नी अपने परिवार को चलाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं…। एक दिन बुची को कुछ किताबें स्कूल के बाहर फेंकी मिलती हैं, जिन्हें वो घर ले आता है और बुलबुल को देता है…। बुलबुल उसे बताता है कि वो स्टेट बोर्ड में पढ़ता है और किताबें सीबीएसई की हैं। यहीं से बुची सपने देखना शुरु करता है.., और वो अपने अपने बेटे को शहर के सबसे मशहूर इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश करने लगता है…।
इस कोशिश में बुची किसी तरह पैसों का जुगाड़ कर लेता है, जिसमें कुछ बेइमानी भी शामिल होती है…और पढ़ने में काफी तेज बुलबुल को कई परेशानियों के बावजूद सफायर स्कूल में दाखिला भी मिल जाता है…लेकिन समाज का ऊंचा तबका उसे अब भी नहीं स्वीकारता…। इन सबके बावजूद होनहार बुलबुल क्लास में अव्वल आता है और देखते ही देखते सबका चहेता भी बन जाता है…।
लेकिन परेशानी तब शुरु होती है जब प्राइवेट कोचिंग के लिए चालीस हज़ार रुपयों की जरुरत पड़ती है…और इसे पूरा करने के लिए बुची चोरी तक करने लगता है। लेकिन वो पकड़ा जाता है और इलाके के एसपी (संजय सूरी) मामले की छानबीन करते हुए उसके घर पहुंचते हैं। एसपी को जबा हालात का पता चलता है तो वो बस्ती के बच्चों की पढ़ाई में मदद करते हैं…। लेकिन ऊंचे तबके के लोग और अधिकारी उनके लिए कई अड़चनें खड़ी करते हैं। बुची पासवान और बुलबुल इन अड़चनों से निकल कर आगे बढ़ पाते हैं या नहीं…समाज और आर्थिक हालात से लड़ पाते हैं या नहीं….इसे जानने के लिए आपको पूरी फिल्म देखनी होगी।

कैसा है अभिनय?
अभिनय की बात करें तो आदिल हुसैन ने पूरी फिल्म में अपने अभिनय से बांधे रखा है…। एक गरीब, लाचार लेकिन महत्वाकांक्षी रिक्शेवाले के किरदार में वो बेहद जमे हैं…। वहीं बुलबुल के किरदार में चाइल्ड आर्टिस्ट शुभम झा ने वाकई काबिले-तारीफ काम किया है। एक गरीब और होनहार स्टूडेंट के रूप में शुभम ने जिस तरह के इमोशन और एक्सप्रेशन दिखाए हैं, वो दर्शकों के दिल को छू लेता है। फ़िल्म में संजय सूरी आईपीएस कैलाश आनंद की भूमिका में बेहतरीन लगे हैं। ये किरदार साफ तौर पर बिहार के डीजीपी अभ्यानंद से प्रेरित लगता है। संजय के हिस्से कुछ ही सीन्स आए हैं, लेकिन उन्होंने दिल जीत लिया है। दूसरे कलाकारों ने भी, जो ज्यादातर रांची के ही थियेटरों से ही जुड़े हैं, अपना किरदार बखूबी निभाया है…। इनकी वजह से ही स्थानीय बोली और बॉडी लैंग्वेज बिल्कुल ओरिजिनल लगती है।

कैसा है निर्देशन?
काफी दिनों के बाद प्रकाश झा ने बेहद सीमित कलाकारों को लेकर एक सधी हुई कहानी लिखी है, जिससे दर्शक जुड़ाव महसूस कर सकते हैं। ये फ़िल्म प्रकाश झा के लिए बेहद खास है, क्योंकि इस फ़िल्म की स्टोरी उनके जेहन में बचपन से रची बसी हुई थी, और किसी सच्ची घटना से जुड़ी थी। वैसे कहानी में नयापन नहीं है और इस मुद्दे पर पहले भी कई फिल्में बनी है…लेकिन इसे जिस तरह से पेश किया गया है, उससे ये बाकी फिल्मों से बिल्कुल अलग दिखती है। फिल्म में जिस मुद्दे को दिखाने का उद्देश्य था, उसे सामने लाने में प्रकाश झा कामयाब होते दिखे हैं और ये काफी हद तक सच के करीब भी लगता है। लेकिन जिन लोगों ने प्रकाश झा की दामुल, गंगाजल या अपहरण जैसी फिल्में देखी हैं, उन्हें ये थोड़ा कमतर लग सकता है।
क्यों देखनी चाहिए फिल्म?
इस फिल्म को तो सिर्फ आदिल हुसैन की अदाकारी के लिए भी एक बार जरुर देखना चाहिए। वहीं अगर आप रियलिस्टिक सिनेमा में दिलचस्पी रखते हैं तो आपको ये फिल्म जरुर पसंद आएगी।