अपनी लालटेन बचा पाएंगे तेजस्वी?
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बिहार की राजनीति में इन दिनों सत्ता की लड़ाई ,चाचा-भतीजा के दांव-पेंचों के इर्द-गिर्द घूम रही है। सीएम की रेस में ‘नीतीश चचा’ को चैलेंज करने वाले तेजस्वी यादव को एक और झटका लगा है। पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव के करीबी रघुवंश प्रसाद सिंह ने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है। रघुवंश प्रसाद सिंह अभी पटना के एम्स में भर्ती हैं और कोरोना का इलाज करवा रहे हैं। सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक रघुवंश प्रसाद सिंह सहित पार्टी के कई बड़े नेता, बाहुबली रामा सिंह को पार्टी में शामिल किये जाने की चर्चा से नाराज चल रहे हैं।
हाल ही में लोजपा के पूर्व बाहुबली सांसद राम किशोर सिंह उर्फ रामा सिंह ने तेजस्वी यादव से मुलाकात की। सूत्रों के मुताबिक इसी महीने के आखिर तक रामा सिंह को राजद में शामिल किया जा सकता है। इस खबर के बाहर आते ही बिहार और राजद की राजनीति में उबाल दिखने लगा। राजनीतिक जानकारों की मानें तो आनेवाले समय में पार्टी के कई अन्य बड़े नेता भी राजद का दामन छोड़ सकते हैं।
कौन हैं रामा सिंह?
रामा सिंह एक जमाने में लालू प्रसाद यादव और राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह के कट्टर विरोधी हुआ करते थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब रघुवंश प्रसाद सिंह वैशाली से खड़े हुए, तो यही रामा सिंह उनके खिलाफ मैदान में थे। इस चुनाव में रघुवंश प्रसाद सिंह को एक लाख से ज्यादा वोटों से हार मिली थी। जाहिर है रघुवंश बाबू ये बात भूले नहीं हैं।
वैशाली जिले में रामा सिंह चर्चित शख्स हैं और सवर्णों के वोटबैंक पर उनकी खासी पकड़ है। लोजपा के बड़े नेताओं में उनकी गिनती की जाती है। साल 2019 के चुनाव में लोजपा ने वैशाली से उनकी जगह वीणा देवी को मैदान में उतार दिया। उसके बाद से ही कयास लगाए जा रहे थे कि आने वाले दिनों में रामा सिंह लोजपा को छोड़कर किसी और पार्टी का दामन थाम सकते हैं। बिहार में आगामी चुनाव में सरकार बनानेवाली पार्टियां दो ही हैं, जदयू और आरजेडी। जदयू और लोजपा सहयोगी पार्टियां हैं, इसलिए रामा सिंह के पास राजद से बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
राजद को झटके पर झटका
मंगलवार को ही राष्ट्रीय जनता दल के आठ में से पांच विधान परिषद सदस्यों ने जनता दल यूनाइटेड का दामन थाम लिया। इस विलय के बाद जनता दल (यू) एक बार फिर सदन में सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। इन सभी सदस्यों को तत्काल पार्टी की सदस्यता दे दी गयी, और विलय को अधिकारिक रूप दे दिया गया। माना जा रहा है कि अधिकांश लोग तेजस्वी यादव के व्यक्तिगत कार्यशैली से नाखुश होकर नीतीश कुमार के साथ गए हैं। माना जा रहा है कि ना केवल राजद के, बल्कि कांग्रेस के भी कई विधायक जनता दल यूनाइटेड में शामिल हो सकते हैं।
नीतीश का राजनीतिक दांव
जदयू और बीजेपी जिस सुनियोजित तरीक़े से चुनाव की तैयारी में लग गये हैं, उसके सामने राजद की तैयारियां फीकी लगती हैं। उदाहरण के लिए, प्रवासी मजदूरों का मुद्दा ही ले लीजिए। मजदूरों के स्पेशल ट्रेन पर रोक और लौटने का किराया देने से इनकार जैसे फैसलों से नीतीश सरकार की काफी आलोचना हो रही थी। लेकिन जब शनिवार को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार से गरीब कल्याण रोज़गार अभियान की शुरुआत की, तो इसके पीछे सोची-समझी नीति थी। जरा ध्यान दीजिए, इस योजना के लिए जिन 6 राज्यों को चुना गया है, उनमें से सर्वाधिक 31 जिले बिहार के हैं।
गरीब कल्याण रोज़गार योजना के तहत काम ‘मिशन मोड’ में होना है। वहीं, इस स्कीम के तहत पैसा सीधे श्रमिकों के बैंक अकाउंट में डाला जायेगा। जाहिर है, इस कदम के जरिए एनडीए श्रमिकों के बीच हुए अपने नुकसान की भरपाई की कोशिश कर रही है। अगर, सचमुच में गरीबों के खाते में पैसे आने लगे, तो नीतीश सरकार के खिलाफ वोटिंग की बात कितने मजदूरों को याद रहेगी? राजद, नीतीश सरकार की विफलताओं को भी भुनाने मे विफ़ल रहा। अगर नीतीश 80-82 दिनों तक बाहर नहीं निकले, तो तेजस्वी यादव भी 50 दिनों तक बाहर रहे और जब लौटे तो भी प्रवासी मजदूरों के बजाए, गोपालगंज मार्च पर ज्यादा फोकस किया।

कुल मिलाकर, राजनीति के इस खेल में नीतीश कुमार, राजद से युवा नेता तेजस्वी यादव को बार-बार अहसास दिला रहे हैं कि तुम अभी बच्चे हो। वहीं, बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद की कमी साफ दिख रही है और तेजस्वी यादव को अगले कुछ ही महीनों में ये बात साबित करनी पड़ेगी कि वो लालू प्रसाद के सच्चे राजनीतिक वारिस हैं। लेकिन अगर ऐसा ही हाल रहा और तेजस्वी अपने कुनबे को संभाल नहीं पाए, तो एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार होंगे और विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव के हिस्से, पांच सालों का इंतज़ार ही आएगा।