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अनलॉक द लॉक!

जरुर पढ़ें संपादकीय

अनलॉक द लॉक!

story of lock during lock down period
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तालाबंदी यानि लॉकडाउन के चक्कर में ताला शब्द का उपयोग जितनी बार हुआ है, उतना तो कम से कम बीती एक सदी में नहीं हुआ। तालाबंदी शब्द का सीधा अर्थ तालों के इतिहास से नहीं है, लेकिन हम तो शब्दजीवी हैं, लिहाजा आज बात तालों पर ही।

हमारे देश का कोई कोना नहीं बचा है जहां तालों की पहुंच न हो। चंद आदिवासी घर-परिवार और कुछ अपवाद हो सकते हैं। कहते हैं कि भारत में पहले ताले लगते नहीं थे, उस दौर में भी जब हम सोने की चिड़िया कहे जाते थे। वैसे, सौ-डेढ़ सौ साल पहले कम से कम ग्रामीण समाज में किसी ताले की जरूरत नहीं पड़ती थी। वह ताला समाज ही होता था। पुराने जमाने में सेठानियों की चाबी के छल्ले भी बहुत कलात्मक होते थे। जिसकी कमर से बंधी जितनी चाबियां दिखती थीं, उतने ही खाते-पीते घर का वह माना जाता था।

खैर, अब दुनिया बदल गयी है। आज ताले शहरी समाज में अनिवार्य वस्तु बन गए हैं। जहां जितनी संपत्ति, उतने ही ताले। लेकिन ताले तो खामोशी से लगते हैं। रोज ताला लगाने के बाद भी हम ताला शब्द का वैसा उपयोग नहीं करते, जैसा आज के दौर में, खास तौर पर तालाबंदी के दौर में हो रहा है।लेकिन अभी तो हमारे समाज में कोई घर बिना ताले का नहीं है। लेकिन आज तो स्कूटर के ताले, साइकिल के ताले, दरवाजे और अलमारियों के ताले, टेलीफोन के ताले, दराजों के ताले, शटर के ताले, ग्लास लॉक, नंबर लॉक और ना जाने कितने तरह के ताले जहां-तहां दिखते हैं।

भारत के किसी हिस्से में लगे तालों को आप गंभीरता से देखेंगे तो पाएंगे कि उनमें अधिकतर अलीगढ़ के बने हैं। भारत में 100 में से 70 ताले अलीगढ़ बनाता है। काफी समय से चीन के ताले इसे टक्कर दे रहे हैं। वे अलीगढ़ के तालों से सुंदर दिखते हैं, लेकिन उनमें वो दम नहीं है जो अलीगढ़ के तालों में हो। यहां डेढ़ लाख लोगों की रोजी-रोटी ताला कारोबार से चलती है और 10 हजार से अधिक छोटे-बड़े कारखाने सालाना 1500 करोड़ का कारोबार करते हैं। कहते हैं कि यहां के ताले अपनी ही चाबी से खुलते हैं।

आप को जानकर हैरत होगी कि अलीगढ़ में ताला कारोबार भारतीय डाक की देन है। 1842 में भारतीय डाक विभाग ने यहां पर पोस्टल वर्कशॉप स्थापित किया था। इसमें डाक-तार विभाग के लिए बहुत से दूसरे सामानों के साथ ताले बनाने का काम भी शुरु हुआ। यही कारखाना अलीगढ़ में ताला उद्योग का प्रेरक और प्रशिक्षण केंद्र बना। इस तरह जब ताला कारोबार आरंभ हुआ तो धीरे-धीरे गलियों से होता हुआ गांवों तक पसर गया। इससे जुड़े तमाम काम होते हैं। कहीं तालों की चद्दरें काटी जाती हैं, तो कहीं तालों की ढलाई होती है और कहीं जड़ाई तो कहीं चाबियां बनती हैं। कहीं पालिश का काम होता है तो कहीं पैकिंग का काम।

डाक तार विभाग की बदौलत भारतीय कारीगर ताला तकनीक से परिचित हुए। 1867 में अलीगढ़ के हीरालाल ने आधुनिक तकनीक का ताला बनाना आरंभ किया तो दो दूसरे उद्यमी करीम इलाही और नबी बख्श ने भी ये काम शुरु किया। उसके बाद तो ताला बनानेवालों का तांता ही लग गया। 1870 में जॉनसन एंड कंपनी ने इंग्लैंड से ताला आयात कर इस कारोबार में एक नया मोड़ दिया और 1890 में ताला बनाने का एक कारखाना भी खोल दिया। 1926 में सरकारी मेटल वर्कशॉप स्थापित होने के बाद यह उद्योग और पनपा। इस वर्कशॉप का मकसद कारीगरों को ताला निर्माण कला में प्रशिक्षण देना था। यहां पर सबसे पहले डाई पंचतालों का निर्माण 1934 में आरंभ हुआ।

1947 में भारत-पाक विभाजन के बाद ताला कारोबार को झटका लगा, क्योंकि कई कारोबारी और अच्छे कारीगर यहां से चले गए। उनकी जगह धीरे-धीरे पाकिस्तान से आए पंजाबियों ने लेनी आरंभ कर दी, जो इस कारोबार के बारे में ज्यादा कुछ जानते नहीं थे। लेकिन जल्द ही उन्होंने इस कारोबार में अपनी पकड़ बना ली। आजादी के बाद नयी-नयी तकनीकें आती रहीं, और ये उद्योग फलता-फूलता रहा। आज जिला उद्योग केंद्र में अलीगढ़ के 1100 ताला कारखाने पंजीकृत हैं, जिसमें गोदरेज और लिंक जैसे बड़े कॉर्पोरेट खिलाड़ी भी शामिल हैं। लेकिन काफी छोटी इकाईयां भी चल रही हैं।

लेकिन हाल के वर्षों में ताला नगरी को ड्रैगन की काफी चुनौती झेलनी पड़ी है। दरअसल, चीन में सिलिंडर वाले ताले बनते हैं, जिनकी फिनिशिंग और कीमत अलीगढ़ी तालों से बेहतर होती है। अलीगढ़ में आम तौर पर लीवर तकनीक के परंपरागत ताले बनते रहे हैं, हालांकि अब सिलिंडर वाले ताले भी बन रहे हैं।चीनी ताले सस्ते हैं, लेकिन महंगे होकर भी अलीगढ़ के ताले गुणवत्ता में बेजोड़ हैं। मशहूर ताला कंपनी लिंक लॉक प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक मुहम्मद अली ने एक बातचीत में बताया था कि लागत घटाने के लिए कुछ उद्यमी, चीन से सिलिंडर और चाबी मंगाकर देसी ताले में फिट करते हैं। इससे लागत 20 से 40 फीसदी तक कम हो जाती है।

अलीगढ़ के उद्यमी अब अत्याधुनिक डिजिटल और इलेक्ट्रिक तालों में संभावनाएं तलाश रहे हैं। इन तालों का निर्यात बाजार भी काफी बड़ा है। वैसे तो अलीगढ़ से श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान, बांगलादेश, अमेरिका तक ताले का निर्यात होता है, लेकिन इसके विस्तार की काफी संभावनाएं हैं। कल्याण सिंह के प्रयासों से उनके मुख्यमंत्री काल में अलीगढ़ में तालानगरी स्थापित की गयी थी, लेकिन अभी भी यहां बुनियादी सुविधाओं की कमी है। सरकार स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया पर जोर दे रही है। दिल्ली से करीब होने के साथ अलीगढ़ में इन दोनों संदर्भो में काफी संभावनाएं हैं।

साभार: अरविंद कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक
Shailendra

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