Tejaswi: हार की जीत!
तेजस्वी(Tejashwi yadav ) अगर इस चुनाव का मूल्यांकन करेंगे तो उन्हें ये बात समझ में आएगी कि उनकी सबसे बड़ी गलती कांग्रेस को तीस सीटें ज्यादा देना या हम और वीआईपी को साथ न रख पाना नहीं है…उनकी सबसे बड़ी गलती 2015 से 2017 के बीच डिप्टी सीएम के तौर पर मिले मौके को ईमानदार और दूरदर्शी नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाने में नाकाम रहने की है। अगर उन तीन सालों में उन्होंने बेहतरीन काम किया होता तो 2020 में दूसरे और तीसरे दौर के चुनाव में उन्हें जंगलराज के युवराज के नारे ने हराया न होता। उन्हें बिहार की जनता का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चुनौती के बावजूद, बड़ी उदारता से उन्हें राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनने का मौका दिया है। जिस चुनाव में एनडीए की सरकार सिर्फ 0.2 % यानी 84 हजार 900 वोट के अंतर से बनी है, उसमें तेजस्वी को सबसे ज्यादा 97,36,242 वोट मिले, ये मोदी को मिले 82,01,408 से 15 लाख ज्यादा है। चुनाव ने उन्हें राज्य में युवाओं के सबसे बड़े नेता की नई पहचान दी है। 2015 के मुकाबले आरजेडी को 4.75 फीसदी ज्यादा वोट मिले हैं। ये 27 लाख 40 हजार और 733 वोट शुद्ध रुप से तेजस्वी के अपने वोट हैं और इस बात के सबूत हैं कि 31 साल का बेटा 72 साल के पिता की छाया से अलग हो कर देश के सबसे जागरूक जनता के बीच अपनी छवि बना चुका है।
देखा जाए तो 1989 में लालू प्रसाद के बाद और 2005 में नीतीश कुमार के बाद, इस बार के चुनाव से तेजस्वी के तौर पर बिहार को पहला जननेता मिला है। दूसरे नंबर पर बीजेपी जरूर है, लेकिन पार्टी के पास अपने दम पर कई सीटें जितवाने वाला कोई नेता नहीं है। नीतीश कभी गुलीवर थे, अब लिलिपुट रह गए हैं। कांग्रेस के पास बिहार में न संगठन है न नेतृत्व, न कास्ट बेस न कैडर। चिराग भष्मासुर के किरदार में कामयाब रहे हैं, लेकिन 2025 में मुख्यमंत्री बनने के लिए उन्हें अभी लंबी दूरी तय करनी है।
2015 में आरजेडी के पास 80 सीटें थीं, लेकिन ये तेजस्वी की नहीं लालू प्रसाद की सीटें थीं, इस बार उनके पास 75 हैं, लेकिन उन्होंने पांच सीटें गंवाई नहीं, 75 सीटें कमाई हैं। सिर्फ दूसरी बार एसेंबली चुनाव लड़ रहे किसी नेता के लिए ये छोटी बात नहीं है। अगली बार चुनाव होंगे तो नेता प्रतिपक्ष की पहचान के साथ तेजस्वी खड़े होंगे। जंगलराज का नारा अपना अर्थ खो चुका रहेगा।
समीकरण की बात करें तो इस चुनाव ने MY समीकरण को पहले से कहीं ज्यादा मजबूत बना दिया है। बिहार में एनडीए की सरकार में मुस्लिम समुदाय की न भागीदारी है, न हिस्सेदारी। एनडीए का एक भी मुस्लिम कैंडिडेट चुनाव नहीं जीता है। जेडीयू के सभी 11 मुस्लिम कैंडिडेट चुनाव हार गए हैं। वहीं 19 में 8 विधायकों के साथ आरजेडी मुस्लिमों की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है। सीमांचल में आरजेडी को 11 सीटों पर नुकसान पहुंचा कर एआईएमआर्ईएम ने अगले एसेंबली चुनाव में आरजेडी को एक तरह से मदद ही की है।
बिहार में एनडीए की सरकार तो बन गई है, लेकिन बीजेपी और जेडीयू के बीच के रिश्ते की खाई चुनाव से और चौड़ी हो गई है। बीस साल पुराने इस गठबंधन में जेडीयू पहली बार जूनियर पार्टनर है। नीतीश कुमार को खबर में रहना पसंद है, मोदी ने उन्हें फ्रंट पेज के बैनर हेडलाइन से लास्ट पेज के लास्ट कॉलम पर पहुंचा दिया है। बीजेपी जिसे एंटीइनकमबैंसी और युवाओं की नाराजगी बता कर छिपा रही है, वो राज ये है कि चुनाव में जहां जेडीयू का वोट बीजेपी को ट्रासंफर हुआ, वहीं बीजेपी का वोट जेडीयू और एलजेपी के बीच बंट गय। दस साल पहले पीएम बनने की चाहत में नीतीश की डिनर डिप्लोमेसी को लेकर इस बार के चुनाव में अगर बीजेपी ने एलजेपी का जेडीयू के खिलाफ इस्तेमाल न किया होता तो आज जेडीयू के पास भी शायद बीजेपी के बराबर 74 सीटें होती। मुख्यमंत्री का पद और कैबिनेट में बराबर की हिस्सेदारी के बावजूद जेडीयू को पता है कि बिहार अब पटना से नहीं दिल्ली से शासित होगा। आने वाले बंगाल चुनाव में बीजेपी वोटों के ध्रवीकरण के लिए सीएए और एनआरसी के मुद्दे को लेकर आक्रामक रुख अख्तियार करेगी तब चुनावी रैली में आदित्यनाथ को फटकारने वाले नीतीश चाह कर भी मुंह नहीं खोल पाएंगे। अगर चिराग को स्वर्गीय रामविलास पासवान की जगह केंद्रीय कैबिनेट में शामिल किया जाता है, तो नीतीश जरूर आहत होंगे और बिहार में लोग मानते हैं कि नीतीश की अंतरात्मा कब जाग जाए, ये परमात्मा भी नहीं जानता। चुनाव में लालू परिवार को अपशब्द कहने वाले नीतीश अगर महाराष्ट्र पार्ट2 खेलना चाहें तो उस स्थिति में अपनी शर्तों की फेहरिस्त तेजस्वी को पहले से तैयार रखना होगा।
चुनाव के विश्लेषण से तेजस्वी सीखेंगे कि दस लाख नौकरियां देने का उनका दांव पहले दौर के चुनाव में सुपरहिट रहा, लेकिन दूसरे दौर में जंगलराज के युवराज और तीसरे दौर में महिला वोटरों पर एनडीए के जोर से पांसा पलट गया। अनुभव के साथ तेजस्वी ये धीरे-धीरे सीख जाएंगे कि चुनाव में हर दौर एक नई कहानी, एक नया क्लाईमेक्स डिमांड करता है।
अनुभव के साथ धीरे-धीरे तेजस्वी ये सीखेंगे कि राजनीति में आज की हार कल की जीत की वजह बनती है। सचिन पायलट ने मर चुकी कांग्रेस को राजस्थान में जिंदा कर दिखाया। हेमंत सोरेन और जगन मोहन रेड्डी की जीत ये बताती है कि जनता कभी भी अनुभव की जगह युवा जोश को तरजीह दे सकती है।
एआईएमआईएम को सीमांचल में मिली पांच सीटें, हम और वीआईपी को मिली -चार सीटों का मतलब ये है कि बिहार की जनता कई तरह के विकल्प पर गौर कर रही है। अब कोई पार्टी ये दावा नहीं कर सकती कि वो बिहार में मुस्लिम, दलित या अति पिछड़ों की अकेली रहनुमा है। राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर आरजेडी के लिए ये चुनौती हे तो अवसर भी है। तेजस्वी के लिए सबसे बड़ा सबक ये है कि उन्हें गठबंधन को साधना सीखना है। हम और वीआईपी को अगर वो चुनाव में साथ ला पाए होते तो आज सरकार उनकी बनती, एनडीए की नहीं।
अगली बार जब बिहार में एसेंबली के इलेक्शन होंगे, उसके पहले लोकसभा के चुनाव हो चुके होंगे। हो सकता है, बिहार चुनाव में इस वजह से नए समीकरण सामने आएं।
2020 के चुनाव से बिहार की राजनीति में तेजस्वी की जमीन तैयार हुई है, अब ये उन पर है कि नेता प्रतिपक्ष के तौर पर अपनी ऐसी पहचान बनाएं जिससे 2025 के चुनाव में जनता उन पर एक नहीं चुनाव के हर दौर में भरोसा कर पाए।