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चल न पड़िए, तो, पांव जलते हैं !

जरुर पढ़ें संपादकीय

चल न पड़िए, तो, पांव जलते हैं !

supreme courts ordered states to provide free tickets and food to migrant labourers
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है अज़ब फैसले का सहरा भी

चल न पड़िए तो पांव जलते हैं

( जॉन इलिया)

चाहते तो थे, लेकिन जब अपने बाप-दादों की तरह अपने खून से भी खेत न सींच पाए, तो अपने ही देश के किसी शहर में प्रवासी मजदूर हो गए। लॉकडाउन में काम छिन गया, रोजी न रही, तो रोटी कैसे मिलlती? जब तक गुजारा कर पाए, किया, जब भूख से मरने की नौबत आ गई, तब चल पड़े अपने गांव की ओर ..

प्रवासी मजदूर चले अपने गांव की ओर

.भारत के इतिहास के सबसे बड़े पलायन की… इस अप्रैल  में …12.2 करोड़ लोगों के रोजगार छिनने की    .. पुलिस की लाठियां खाकर भी ..देश के सबसे छोटे लोगों के.. सड़कों और रेलवे ट्रैक को अपने लहू से लाल करने की .. भूख के भय से बड़े होने की ..इतनी सी.. छोटी कहानी है…जो पत्रकारों की सबसे बड़ी तादाद वाले देश में किसी पहेली की तरह पेश की गई

26 मार्च -दिल्ली से अपने गांव की ओर चले दिहाड़ी मजदूर

अंजुरी भर खिचड़ी के लिए सुबह के 6 बजे से दिन के 2 बजे तक सोशल डिस्टेन्सिंग के साथ कतार में लगी कातर आंखों में भी क्या कोई स्वाभिमान होता है?

जिन बच्चों को पढ़ाने के लिए हाड़ तोड़कर मेहनत करते थे, वो बच्चे अपार्टमेंट के गेट पर.. नन्हें हाथ फैलाए खड़े हैं, अभी उनमें भीख मांगने की तमीज नहीं आई है….लेकिन ये क्या इतनी बड़ी वजह है कि ये लोग पैदल गांव चले जाएं ?

. so disgusting….पाल नहीं सकते…तो..  ये लोग बच्चे क्यों पैदा करते हैं? छी:

शहर ने उनकी भूख को अफवाह करार दिया.. मीडिया ने… कोरोना कैरियर  

यार…गला सूख गया मेरा …सुबह से  live हूं…ये तो साजिश है…मूर्ख लोग हैं..बहका दिए गए…चल दिए….llatte  नहीं cappuchino  …लव यू टू जान !

जिंदगी किस तरह बसर होगी

दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में

( जॉन इलिया)

कोई चार सौ , कोई सात सौ, कोई हजार किलोमीटर के सफर पर पैदल चल पड़ा…वो सिर्फ खुद के लिए खतरा थे, इसलिए NH24 से ओझल होते ही.. वो कैमरे से गुम हो गए.. जो live नहीं वो dead है …अब मीडिया तबलीगी जमात के खतरे से देश को आगाह करने के अभियान में लग गया… पहले से डरा दर्शक अब और डरने लगा था …

क्या इस तरह कि घृणा भीड़ में बदलती है

और भीड़ जनमत में 

क्योंकि डरना एक विचार है 

और डराना एक विचारधरा 

(देवी प्रसाद मिश्र)

शहर के सांप के लिए मजदूर… छुछुंदर है, न निगलते बनता है न उगलते। मजदूर जब भूख से मर रहा था तब वो शहर के लिए बोझ था, जैसे ही गांव के लिए रवाना हुआ, रहेजा और हीरानंदानी…अंसल और बंसल के गले सूखने लगे, मुंबई से बंगलुरू तक इन्हें रोके रखने की नई कवायद शुरू हुई।

भूख से मर रहा मजदूर ..सड़क पर पैदल चल रहा मजदूर… फिर से खबर बन गया

कोरोना कैरियर के नैरेटिव में फील नहीं था, गांव लौट रहे मजदूर में इमोशन था, ड्रामा था…कुछ रिपोर्टर तो कवर करते-करते रो दिए..कसम से …किसी ने अपना जूता पहनने को दे दिया, तो किसी ने गरीब को कैमरे के सामने सीने से लगा लिया… मजदूर छोटा था… छूट गया…अब कहानी जूतों की थी

प्राइमटाइम डिबेट में बड़े चैनल पर महिला एंकर की चिंता थी….सैलून कब खुलेगा? मास्क मजबूरी है, अपर लिप जरूरी है ….ड्यूटीफुल भी.. ब्यूटीफुल भी…

प्रवासी मजदूर के पास वोट नहीं है, इसलिए उसे पुलिस की लाठी से चोट नहीं लगती…राजनीति उसे उसी तरह देखती है जैसे नए बने अपार्टमेंट में आया नया मकानमालिक दूर से भीड़ की ओर देखता है …छठे माले से देखो तो रोमांच…और सोलहवें माले से देखो तो डर …

क्या ये महज इत्तेफाक है कि इतिहास की सबसे बड़ी व्यथा-कथा को लेकर मीडिया में, न ज्यादा जिक्र है, न फिक्र

8मई- औरंगाबाद -ट्रैक पर सोए मजदूरों को ट्रेन ने कुचला

ये मेरा देश है लगता क्यों किसी और का है 

ये अगर लोकतंत्र है तो है किस दौर का है 

(देवी प्रसाद मिश्र)

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