कृष्ण होने और कृष्ण बनने में बहुत अंतर है !
“कृष्ण मेरे लिए आनंद के संन्यासी हैं। कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की गहराईयों और ऊंचाईयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं।”
ओशो
कृष्ण ने युद्धस्थल में मोहग्रस्त एवं भ्रमित अर्जुन से ही नहीं कहा था कि तुम निमित्त मात्र हो, वरन सभी जीवमात्र से कहा है कि तुम निमित्त मात्र हो, कर्ता तो मैं ही हूँ।
कृष्ण के अनगिनत आयाम हैं। आज मैं कृष्ण ‘भगवान’ की लीलाओं की व्याख्या या वर्णन नहीं कर रहा हूँ, मैं द्वापर युग के उस ‘व्यक्ति’ कृष्ण के जीवन दर्शन को समझने की चेष्टा कर रहा हूँ जिसके जन्म से पहले ही मौत के सारे संसाधन जुटा लिए गए थे, फिर भी वह द्वारकाधीश कहलाये। अपनी जिजीविषा से उस जीवन को देखने का प्रयास है जिसे कृष्ण ने भोगा। उस संत्रास को अनुभव करने का प्रयत्न है जिसे कृष्ण ने झेला। कृष्ण को उनकी संपूर्णता और समग्रता में उकेरने का जरुरत है जिससे उनके जीवन से प्रेरणा ली जा सके…. क्योंकि जीवन में कुछ सीखना है, तो कृष्ण से बड़ा और बेहतर शिक्षक कोई नहीं ही सकता।
कृष्ण जीवन भर दौड़ते ही रहे। जन्म से चंद घड़ियों पश्चात् वो नियति की ऊँगली पकड़कर यमुना पार कर गए और तब से दौड़ना ही उनका कर्म बन गया। उन्होंने युद्ध में मोहग्रस्त अर्जुन से ही यह नहीं कहा था, अपितु जीवन में बारबार स्वयं से भी कहते रहे -‘कर्मण्येवाधिकास्ते’। वह जिस क्षितिज़ की तरफ जिंदगी भर चलते रहे, वो उन्हें कभी मिला नहीं। वस्तुतः क्षितिज कभी उनका गंतव्य रहा ही नहीं, उनके गंतव्य का आदर्श था। आदर्श कभी प्राप्त नहीं होता, अगर प्राप्त कर लिया जाये तो वो कभी आदर्श नहीं रहता। इसीलिए न पाने की निश्ंचतता के साथ भी कर्म में अटल आस्था ही उन्हें दौड़ाए लिये जाती रही । यही उनके जीवन की कला है।
कृष्ण कभी योजना बनाते नहीं दिखते। वह सदैव वर्तमान में रहते हैं। स्थितिप्रज्ञ और क्षणजीवी, पल में जीने वाले, चिर परिचित मुस्कान के साथ। न भूतो, न भविष्यतिः। अगर कुछ परेशानियां या चुनौतियों उपस्थिति हुईं तो बिना घबराये, प्रत्युत्पन्नमति से और अर्जित अनुभवों से उनका डटकर सामना किया और विजयी भी हुए। भविष्य की लम्बी-लम्बी योजनाएं उन्होंने कभी नहीं बनायीं। और न ही कभी पीछे मुड़कर अतीत में झाँकने में समय व्यतीत किया। एक बार बृज छोड़ा तो जीवन में कभी वापस उस ओर नहीं गए। उनके जीवन में कर्म और कर्त्तव्य पथ की पुकार ही सदैव प्राथमिकता रही। यहाँ तक कि राधा जो उनकी सहचरी थीं, आत्मा थीं, उनसे भी जीवन में दोबारा मिलन न हो पाया।
कृष्ण का जीवन सरल नहीं था। बचपन में माता-पिता के सान्निध्य का अभाव रहा। अल्प आयु से ही पूतना, कालिया नाग और कई राक्षसों से स्वयं की रक्षा की। इतनी बाधाओं के बावजूद भी जीवन शानदार जिया। अपने अधरों पर सदैव मुरली और मुस्कान को धारण करने वाले मुरली मनोहर कहलाये। सूरदास, रसखान और मीराबाई ने तो अपना पूरा साहित्य ही कृष्ण को सखा और आराध्य मानकर समर्पित किया।
बचपन में इतने दुलारे थे कि माखन चोर बनकर हर आयु वर्ग के ह्रदय में बस गए। थोड़े बड़े हुए तो बांसुरी से ऐसा जीवन संगीत फूंका कि गाय और गोपियों को सम्मोहित कर दिया। राधा से ऐसा प्रेम किया कि आज भी राधा कृष्ण की पूजा होती है। समाज कल्याण के लिए तो गोवर्धन पर्वत ही उठा लिया। मित्रता की तो गरीब ब्राह्मण सुदामा से, जो द्वारका नरेश बनने के बाद भी निभाई। द्रौपदी की लाज बचने के लिए नंगे पैर ही दौड़ गए। रुक्मिणी के एक आमंत्रण पर उसके भाई से युद्ध कर लिया।
धैर्य इतना कि शिशुपाल से सौ गालियां सुनते चले गए। विनम्रता इतनी कि महाभारत युद्ध जीतने के बाद भी गांधारी का श्राप शिरोधार्य किया। ईमानदारी इतनी कि अर्जुन के सारथी होते हुए भी कर्ण के वाणों की प्रशंसा की। महाभारत टालने के लिए दूत बनकर कौरवों से वार्ता भी की और अर्जुन को युद्ध लड़ने के लिए गीता का ज्ञान भी दिया। दुर्योधन का अहंकार भंग करने के लिए विश्व रूप दिखाया, तो युद्ध में सहायता के लिए उसे अक्षौहिणी सेना भी दी।
कृष्ण भीष्म जैसे योद्धा थे तो विदुर जैसे राजनीति और कूटनीति के विद्वान भी। युधिष्ठिर जैसे धर्म के ज्ञाता थे तो सहदेव जैसे भविष्य दृष्टा भी। कृष्ण ने स्त्रियों, अग्रजों, वरिष्ठों, गुरुओं, आचार्यों और ऋषि मुनियों का सदैव सम्मान किया। कृष्ण अपने युग के परम पुरुष थे।
कृष्ण सच्चे कर्मयोगी थे। उन्होंने विरासत से कुछ भी नहीं लिया, सब कुछ स्वयं अर्जित किया। जब राज्य बनाया तो राजधानी द्वारका स्वयं बसाई। वह चाहते तो मथुरा को भी राजधानी बना सकते थे। कंस, कालिया, कालयवन, जरासंध, शिशुपाल, नरकासुर, दुर्योधन, आदि शत्रु भाव से भरी हुई ये समस्त चेतनाएँ यदि कृष्ण के सामने चुनौती के रूप में आकर ना खड़ी होतीं तो क्या इस के बाद भी कृष्ण ईश्वरत्व को उपलब्ध हो सकते थे?
कृष्ण के जीवन में हमें विरोधाभास भी खूब मिलते हैं। जितना उन्होंने अपने जीवन में प्रेम किया, उतने युद्ध भी लड़े। राधा के लिए जितनी गहन आसक्ति (प्रीति ) उनके ह्रदय में थी, विरक्ति भी उतनी ही प्रबल थी। जीवन भर वह धर्म स्थापना के लिए प्रयासरत रहे लेकिन धर्म स्थापना के लिए धर्म से परे कर्म या निर्णय लेने में हिचके भी नहीं। चाहे शिखंडी से भीष्म पर बाण चलवाना हो या “अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा” कहकर द्रोणाचार्य को धराशायी करना हो। जितने वह शांति के उपासक थे, उतने ही युद्ध के पक्षधर। जब दुर्योधन ने ‘सुई के बराबर’ भी भूमि पांडवों को देने से मना कर दिया तो उहोंने तुरंत भरी सभा में घोषणा कर दी, “याचना नहीं, अब रण होगा”।
जीवन में अनगिनत अभियानों में सफल होने वाले कृष्ण अपने गौरवशाली वंश को घृणास्पद अंत से न बचा सके। अपने चक्र से संसार के सारे दुष्टों का अंत करने वाले चक्रपाणि समय के कुचक्र से अपने वंश को ना बचा पाए। संसार को अपनी धुन पर नचाने वाले कृष्ण, समय की ध्वनि से ध्वस्त हुए प्रतीत हुए। होनी को कौन टाल सकता है ? दुर्वासा और गांधारी का शाप था, उसे फलित तो होना ही था। ये विवशता, असफलता और अवसाद ही उन्हें अवतार से नश्वर शरीर को धारण करने वाले मनुष्य की नियति की ओर ले जाता है।
कृष्ण युद्ध के कारण नहीं, अपितु मृत्यु के मुख में खड़े होकर कही गई गीता के लिए पूजे जाते हैं। वह कंस के द्वेष के लिए नहीं, राधा के प्रेम के लिए स्मरण किये जाते हैं। कृष्ण राजा होते हुए भी भूपाल के रूप में नहीं, गोपाल के रूप में ही याद किये जाते हैं।
कृष्ण होने और कृष्ण बनने में बहुत अंतर है, कोई भी बहुरूपिया कृष्ण बन तो सकता है किंतु कृष्ण हो नहीं सकता। आइये, कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्ण के जीवन दर्शन को अपनाने का प्रयास करें। यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धा, आस्था और स्तुति होगी।
मंजुल मयंक शुक्ल, लेखक (manjul.shukla@gmail.com)