फिज़ा में अब भी है ‘गर्म हवा’!
“जो भागे हैं, उनकी सज़ा उन्हें क्यों दी जाए …जो न भागे हैं, न भागने वाले हैं?” चार दशक पहले बनी फिल्म गर्म हवा के सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी) का यह सवाल मुसलमानों के संदर्भ में आज भी बहुत प्रासंगिक है, बल्कि पहले से भी ज़्यादा । एम एस सथ्यू की फ़िल्म गर्म हवा हिंदुस्तान के बँटवारे के बाद पाकिस्तान न जाकर अपने ही देश में परायापन झेल रहे मुसलमानों की पीड़ा का बहुत मार्मिक बयान है।
आज़ादी के साथ हुए बँटवारे… या कहें कि बँटवारे के साथ मिली आज़ादी के बाद, मुसलमानों को लेकर इस देश की सियासत ने समाज को एक सोची-समझी साज़िश के तहत बांट दिया और नफरत को बहुत योजनाबद्ध तरीक़े से फलने-फूलने का मौक़ा दिया। देश के संविधान ने सब नागरिकों को बराबर का हक़ दिया है और जाति-धर्म के आधार पर भेदभाव जुर्म है… लेकिन हम आज भी देखते हैं कि दलित-शोषित-अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के साथ ग़ैरबराबरी का सुलूक आम बात है।
ऐसे में एम एस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ जैसी फिल्म सिर्फ सिनेमा का हिस्सा न रहकर समय की सीमा से परे हमारे समाज और राजनीति का एक दस्तावेज बन जाती है जो फ़ैज़ के ‘दाग़ दाग़ उजाला’ की याद दिलाते हुए हमें बार-बार कुरेदती है – ‘इंतज़ार था जिसका ये वो सुबह तो नहीं। ‘ इक़बाल के मशहूर क़ौमी तराने ‘सारे जहां से अच्छा’ के आख़िर में जो गहरी पीड़ा है, उसमें संसार में एक अकेले आदमी की व्यथा से लेकर एक पूरी क़ौम का दर्द छुपा हुआ है –
इक़बाल कोई महरम अपना नहीं…
जहां में मालूम क्या किसी को दर्दे निहां हमारा।
इक़बाल
गर्म हवा के सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी) के चेहरे पर पूरी फिल्म में यही दर्दे निहां यानी छुपी हुई पीड़ा देखी जा सकती है। फिल्म शुरू होती है बलराज साहनी के रेलवे स्टेशन वाले शॉट से। बहन पाकिस्तान जा चुकी है, उसके बच्चों को रवाना करने आए सलीम मिर्ज़ा से तांगेवाला कहता है- बड़ी गर्म हवा है। जो उखड़ा नहीं, सूख जाएगा। जूतों के कारोबार से जुड़े सलीम मिर्ज़ा तेज़ी से हालात बदलते देखते रहते हैं। मुसलमान हैं तो लोग हर बात पर शक करते हैं, काम नहीं मिलता, बैंक से लोन नहीं मिलता , यहां तक कि पुश्तैनी हवेली बिक जाने के बाद किराये का मकान भी आसानी से नहीं मिलता। मिर्ज़ा बेचारे कहते हैं – ‘इन्हें समझाओ, गांधी जी की शहादत के बाद यहां कोई ख़ूनख़राबा नहीं होगा। ‘ लेकिन कोई समझना नहीं चाहता।
गर्म होती हवा के बीच सलीम मिर्ज़ा की आंखों का सूनापन बढ़ता जाता है। भाई के बाद बड़ा बेटा भी पाकिस्तान चला जाता है। सलीम मिर्ज़ा पर पाकिस्तान के लिए जासूसी का इल्ज़ाम लग जाता है। छोटे बेटे को कोई नौकरी देने को तैयार नहीं होता, मुसलमान अफसर भी नहीं। बेटी दो बार मोहब्बत में मायूसी झेलकर खुदकुशी कर लेती है। मिर्ज़ा बिल्कुल टूट जाते हैं और पाकिस्तान के लिए बोरिया-बिस्तर बांध कर घर को ताला लगाकर निकल पड़ते हैं। रास्ते में नौजवानों का जुलूस मिलता है जो रोज़ी, रोटी और मकान के हक़ के लिए, काम पाने को मूल अधिकार बनाने के लिए इंकलाब ज़िंदाबाद का नारा लगा रहा है। मिर्ज़ा तांगे से उतरकर बेटे के साथ जुलूस में शामिल हो जाते हैं । फिल्म… कैफ़ी आज़मी की आवाज़ में इस शेर के साथ ख़त्म हो जाती है –
जो दूर से तूफान का करते हैं नज़ारा,
उनके लिए तूफ़ान यहां भी है वहां भी।
धारे में जो मिल जाओगे बन जाओगे धारा,
ये वक़्त का ऐलान यहां भी है वहां भी।
कैफ़ी आज़मी
इसमें मुसलमानों के लिए भी हिदायत छुपी है कि समाज की मुख्यधारा से अलग न रहें। गर्म हवा बंटवारे और मुस्लिम समाज की दुश्वारियों के विषय पर बनी बेहतरीन, कालजयी फिल्म है। फिल्म पर बहुत विवाद और हंगामा हुआ था। फिल्म सेंसर में लंबे समय तक अटकी रही। बाल ठाकरे ने इसे मुस्लिमपरस्त बताते हुए फिल्म का प्रदर्शन रोकने की धमकी दी थी।
फिल्म में सलीम मिर्ज़ा के किरदार में बलराज साहनी ने बहुत कमाल का काम किया है। निजी और सार्वजनिक जीवन में तकलीफ और नाउम्मीदी के एहसास के बीच उम्मीद का दिया जलाए रखने की कोशिश करते एक नेक, ईमानदार, मेहनती और संवेदनशील मुस्लिम नागरिक के किरदार में उन्होंने एक ऐसी पूरी दुनिया की झलक दिखाई है… जो हमारे आसपास से करीब-करीब ग़ायब ही हो चुकी है।
अफ़सोस कि वो गर्म हवा की डबिंग ख़त्म करके चल बसे। विडंबना ही है कि अब हमारे बीच न इस फिल्म से जुड़े फारुक़ शेख़ हैं, न शौक़त आज़मी, न कैफ़ी साहब , न ए.के. हंगल और न ही जलाल आग़ा और गीता सिद्धार्थ। इस फिल्म के निर्देशक एम. एस. सथ्यू साहब भी 90 साल के हो गये हैं। वे शतायु हों, स्वस्थ रहें, सक्रिय रहें।
(निर्देशक एम. एस. सथ्यू के जन्मदिन 6 जुलाई के मौके पर विशेष आलेख)
साभार : अमिताभ श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार