हमारे यहां की तरह?
अमेरिका में रहने वाले मेरे कई परिचितों और मित्रों के लिए ये समझना कठिन रहा है कि कोई भीड़ अपने ही शहर की गाड़ियां, इमारतें जलाने पर कैसे आमादा हो सकती है..? और इससे हासिल क्या होता है..? आप जब फ्रांस में इस दशक में हुए कुछ ऐसे ही कई विरोध प्रदर्शनों के उदाहरण देते थे..तो वो जवाब में फ्रांस को उसकी श्रम नीतियों और सांस्कृतिक वजहों से पश्चिमी संदर्भ का अपवाद गिनाने की कोशिश करते थे..। लेकिन अब मिनेपोलिस से लेकर फिल्डेल्फिया और पोर्टलैंड तक कई शहरों में प्रदर्शन भड़क उठे हैं..।
प्रदर्शनों का स्टाइल है बिल्कुल हमारे यहां की तरह..। (एकबारगी तो बात व्हाइट हाउस पर बन आई और ट्रंप को बंकर में घुसना पड़ा..। ये तो हमारे यहां से भी ज़्यादा हुआ..। 7, लोक कल्याण मार्ग के अपने चौकीदारों पर इतना ख़तरा कभी नहीं आने देते हम..!)
ये बवाल शुरू तब हुआ जब जॉर्ज फ्लॉयड नाम के एक अश्वेत नागरिक की गर्दन को मिनेपोलिस शहर में एक पुलिसवाले ने 8 मिनट 43 सेकेंड अपने घुटनों के नीचे दबाए रखा और उसकी मौत हो गई..। अब खुद फिल्माए नहीं होंगे तो इस तरह के पुलिसिया जबर के कई वीडियो फॉरवर्ड तो किए ही होंगे आपने..। ख़ासकर कोरोना काल में टीवी या सोशल मीडिया पर देखे तो ज़रूर होंगे..। ऐसा कोई बॉलीवुड का हीरो नहीं होगा जिसने ज़ुल्मी पुलिस से किसी ना किसी फिल्म में लोहा नहीं लिया होगा..।
यानी मेरी पत्रकारीय शुचिता को आंच नहीं आनी चाहिए, अगर मैं फ्लॉयड के साथ हुई ज़्यादती पर भी कहूं.. हमारे यहां की तरह..।
अमेरिका की पुलिस में नस्लवाद सदियों पुराना है..। तमाम खूबियों के बावजूद अमेरिकी सिस्टम ऐसे कट्टरवादी कचरे को अपने पुलिस तंत्र से साफ नहीं कर पाया है..। 2014 में न्यूयॉर्क में एरिक गार्नर नाम के एक और अश्वेत नागरिक की पुलिस के हाथों मौत हुई थी..। साल 2019 तक आरोपी पुलिस अफसर बर्खास्त तक नहीं हुए थे…। जहां तक मैं जानता हूं, सज़ा तो अब तक नहीं मिली है..।
यहां तो किसी की भवें नहीं तननी चाहिए, अगर मैं कहूं बिल्कुल हमारे यहां की तरह..।
कुछ-कुछ हमारे यहां की तरह अमेरिका में आर्थिक और सामाजिक असमानता से पैदा होने वाले तनाव हमेशा से रहे हैं..। लेकिन कोरोना काल में ना सिर्फ महामारी के शिकार वंचित तबके के लोग ज़्यादा हुए, बेरोज़गारी की मार भी उन पर ज़्यादा पड़ी..। इतना ही नहीं, अश्वेत अल्पसंख्यकों को हमारे यहां तबलीग़ियों जैसे ही बीमारी फैलाने वालों की तरह देखा जाने लगा..। इस आधार पर उनकी गिरफ्तारियां भी होने लगीं..। मियामी में एक अश्वेत डॉक्टर को भी ऐसे ही पुलिस ने कैद में डाला जबकि वो अपनी मर्ज़ी से बेघर लोगों का टेस्ट करने घर से निकली थीं..।
अल्पसंख्यकों को लेकर ये पूर्वाग्रह और उन पर चस्पां किया गया कोरोना का कलंक, क्या एक गहरी सामाजिक बीमारी का लक्षण नहीं, बिल्कुल हमारे यहां की तरह..?
ऐसी सूरत में अगर कोई और राष्ट्रपति होता तो आप उम्मीद करते कि वो ओवल दफ्तर में बैठकर राष्ट्र को शांति का संदेश देगा..। लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप की प्रतिक्रियाएं-
- विरोध कर रहे लोगों को “ठग” कहकर उन्हें आतंकवादी घोषित करने की धमकी देना- बिल्कुल हमारे यहां की तरह..।
- नवंबर के चुनावों पर नज़र के साथ अपने वोट बैंक में शामिल श्वेत कट्टरवादियों की इतनी ही कठोर आलोचना से कन्नी काटना- बिल्कुल हमारे यहां की तरह..।
- विरोध प्रदर्शनों का ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ना- बिल्कुल……नहीं, ऐसा तो शायद दुनिया की ज़्यादातर सत्ताधारी पार्टियां करती हैं..।
- “When the looting starts, the shooting starts..” जैसे श्वेत कट्टरवादी भड़काऊ नारे ट्वीट करके इशारों ही इशारों में फिरकापरस्ती का ज़हर उगलना- …ये भी बाकी प्रतिक्रियाओं जैसा, बिल्कुल हमारे यहां की तरह..।
दूसरी ओर, चीन के जिनपिंग ने ये जानकर कि दुनिया कोरोना वायरस से लड़ रही है, हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता ख़त्म करने का बीड़ा उठाया है..। अगस्त 2019 को याद करें, बिल्कुल नहीं तो कुछ-कुछ ज़रूर हमारे यहां की तरह..।
वायरस को फैलाने में अपनी भूमिका को लेकर दुनिया भर में हो रही फज़ीहत तो है ही, जानकार मानते हैं कि कोरोना संकट के चलते वहां की अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो रही है- बिल्कुल हमारे यहां की तरह..। जानकारों का ये भी कहना है कि इन सब से अपनी जनता का ध्यान भटकाने के लिए जिनपिंग विदेश और सामरिक नीति को घरेलू राजनीति में घुसेड़ रहे हैं- बिल्कुल हमारे यहां की तरह..।
अब आपके पास दो रास्ते हैं- या तो इस भक्ति में भाव-विभोर हों कि मोदी जी ने हमें दुनिया की महाशक्तियों जैसा बना दिया है या फिर ये सोचें कि हम जैसा हो चुका अमेरिका हमारे जैसे होते जा रहे चीन से हमें कैसे बचा पाएगा..? लद्दाख़ में सीमा पर जो हो रहा है, वो थोड़ा पेचीदा है..। लेकिन अब तक की जानकारी से लग रहा है कि कम से दो-एक विवादित जगहों पर चीन ने पक्के पैर जमाने का इरादा कर लिया है..। अगर अमेरिका नहीं बचाएगा तो ये जो दोनों सेनाओं में ठनी है, इसका अंत कैसे होगा..?
साभार: नीतिदीप, युवा लेखक एवं पत्रकार
(Disclaimer: ये लेखक के निजी विचार हैं। इसे #Khabar की टीम ने संपादित या संशोधित नहीं किया है)