‘चीनी’ कम!

हमारे सैनिक मारे जाते हैं, तब हमारा खून उबाल खाता है – कुछ दिनों के लिए. 15 अगस्त और 26 जनवरी वाले गीत बजने लगते हैं – ऐ मेरे वतन के लोगो ज़रा याद करो कुर्बानी ! यह 1962 के शहीदों की याद में लिखा गया था. चीन के ताज़ा हमले के समय कुछ कुछ याद आता है.
उस समय भी कहा गया था कि चीन ने हिंदी चीनी भाई-भाई कह कर पीठ में छुरा मारा. तब भी भारत के महान नेता विश्व-नेता बनना चाहते थे. उनके पंचशील की चाऊ एन लाई ने ऐसी तैसी कर दी. राष्ट्रीय हित से ज्यादा चिंता निजी छवि की हो तो इतिहास खुद को इसी तरह दुहराता है.
जिस चीन ने भारत को हमेशा धोखा दिया, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पकिस्तान का साथ दिया और भारतविरोधी कुख्यात आतंकियों को अन्तराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने के खिलाफ वीटो लगता रहा, उसके तानाशाह के साथ हम प्यार की पेंगे लगाते रहे. झूला झूलते रहे. चलिए ये भी ठीक था. लेकिन इसके बाद जिनपिंग मम्मलपुरम से सीधे काठमांडू गए और नेपाल के लिए 18 बड़ी योजनाओं की घोषणा कर दी. इनमें अधिकतर चीन नेपाल के बीच सीमा पार करनेवाली सड़क और रेल योजनाएं हैं. भारत के कान खड़े नहीं हुए. उलटे क्या हुआ? भारत नेपाल को जो मदद दिया करता था, वह पहले ही काफी कम की जा चुकी थी. इस बार के बजट में 450 करोड़ से और घटा कर 350 करोड़ कर दी गई है.
1990 के बाद से इस उपमहाद्वीप में भारत विरोधी रणनीति तेज़ होती गई है. एक एक कर भारत के सारे पड़ोसी भारत के खिलाफ किये जा रहे हैं. इंदिरा गांधी के दौर के बाद से ऐसी रणनीति तेज़ हुई है. बांग्लादेश में 1971 की हमारी शानदार जीत हम भूल गए, लेकिन अपनी हार पाकिस्तान कभी नहीं भूला. उसने भारत में धर्मान्ध आतंकवाद निर्यात किया और नेपाल होकर सुरक्षित रास्ता बनाया. नेपाल और भारत के बीच खुली सीमा है. पाकिस्तान और चीन के लिए इससे बढ़िया क्या हो सकता है? तिब्बत के बाद नेपाल पर चीन की लालची नजर रही है. जिस तरह पाकिस्तान ने भारत में धार्मिक आतंकवाद की आपूर्ति की, उसी तरह चीन ने नेपाल में उग्र माओवाद पहुँचाया. भारत दोनों का कॉमन शत्रु है. लेकिन नेपाल तो भारत का अपना छोटा भाई है, 60 हजार से ज्यादा नेपाली भारतीय सेना में हैं. करीब एक सवा करोड़ नेपाली भारत में रहते हैं और इतने ही भारतीय नेपाल में रहते हैं. सदियों से रोटी बेटी का रिश्ता रहा है. फिर वह हिन्दू राष्ट्र नेपाल भला क्यों भारत विरोधी भावनाओं से भर गया? इसकी कई वजहें हैं. अपने छोटे पड़ोसी के प्रति हमारा व्यवहार दम्भ और अत्याचार से भरा रहा है. पाकिस्तान और चीन ने नेपाल में एक लंबे अरसे तक भारत विरोधी दुष्प्रचार अभियान चलाया, वहां की मीडिया पर पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आइ एस आइ का कब्जा बढ़ता गया और भारतीय मीडिया तथा विदेश विभाग लापरवाह रहे. याद कीजिये, नेपाल में भूकम्प से भयंकर तबाही के बाद भारत ने बड़े पैमाने पर मदद भेजी लेकिन पाकिस्तानी चीनी दुष्प्रचार अभियान का नतीजा था कि वहां भारत के रहत दलों के खिलाफ नारे और प्रदर्शन होने लगे, भारतीय मीडिया को भी भागना पड़ा. फिर जब मधेशियों का आन्दोलन हुआ तब भारत ने नेपाल की क्रूर नाकेबंदी होने देकर नेपाली जनता को महीनों तकलीफें झेलने को विवश कर भारत के प्रति गुस्से से भर दिया. उधर चीन पकिस्तान इसी इंतजार में थे. नेपाल राज परिवार की हत्या के बाद से नेपाल की राजनीति में चीन सनार्थक वाम दलों का वर्चस्व बढ़ता गया और भारत के नीतिकार इसके लिए रास्ता सुगम करते गए. आज स्थिति है कि नेपाली पुलिस भारतीय नागरिकों पर गोली चला देती है. और चीन की शह पर नेपाल दो सौ साल पुराने नक़्शे को संसद से बदल देता है. भला सोचिये, जिस चीनी कोरोना ने दुनिया को तबाह कर रखा है, नेपाल अपने यहाँ उसके प्रकोप के लिए भारत को दोषी करार देता है. तो नेपाल अब भारत के खिलाफ हो गे. पाकिस्तान पहले से है. श्रीलंका में भारत विरोधी और चीन समर्थक सरकार बन गई है. बांग्लादेश भी आपसे बहुत खुश नही है. इस तरह चीन ने भौगोलिक रूप से भारत की पूरी घेराबंदी कर दी है.
अब आइये बाज़ार में. उसने आपके उद्योगों को बर्बाद कर दिया है. आप अपने भगवानों – राम और गणेश की फोटो से लेकर फांसी लगा लेने की रस्सी तक नास्तिक चीन से आयात करते हैं. ज्यादातर मोबाइल फोन चीन में बने हैं और फोन के अलावा विभिन्न तरीकों से चीन हमारी हर जानकारी हासिल करता है. लेकिन भारत की सभी सरकारें चीन की तमाम साजिशों के प्रति चुप्पी साधे रहती हैं. ताज़ा उदाहरण कोरोना फैलने से ठीक पहले नगालैंड में चमगादड़ों पर किये गए एक शोध का है. शोध में वुहान की उसी कुख्यात प्रयोगशाला के वैज्ञानिक भी शामिल थे. भारत सरकार से इजाजत लिया जाना ज़रूरी था लेकिन उसके बिना शोध किया गया. जब इन्डियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च को मालूम हुआ तो उसने एक जांच कराई लेकिन जांच रिपोर्ट और इस पूरे प्रकरण पर भारत सरकार या इन्डियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने चुप्पी साध रखी है. भारत के कई बड़े उद्योगपतियों के चीन से व्यापारिक रिश्ते हैं. और उद्योगपतियों का हित सरकार को देखना पड़ता है. ऐसे में हम आप क्या कर सकते हैं? तोपों की छोड़िये, मानसूनी गर्जन से काम चलाइये या बरसाती रातों में कजरी गाइए. और चीन की चिंता मत कीजिये – अर्नव जैसे हमारे टीवी एंकर उसे फूंक मार कर उड़ा सकते हैं.
गुंजन सिन्हा, ईटीवी बिहार के पूर्व संपादक