शिवजी का धनुष किसने तोड़ा ?
एक स्कूल में जांच अधिकारी गए। क्लास में टीचर से पूछा, ‘अभी आप क्या पढ़ा रहे हैं?’
टीचर – …रामचरितमानस
जांच अधिकारी ने एक बच्चे से पूछा, ‘बताओ, शिवजी का धनुष किसने तोड़ा?’
छात्र – सर मैंने नहीं तोड़ा। मैं तो चार दिन बाद स्कूल आया हूं।
दूसरा छात्र – सर जरूर महेश ने तोड़ा होगा, सबसे बदमाश वही है
टीचर – सर, इनमें से जिस किसी ने तोड़ा होगा, हम उसका पता लगा लगाकर आपको फौरन बताते हैं
बहुत साल पहले की बात है, जब ऐसे चुटकुले लिखे जा सकते थे, सुनाए जा सकते थे और उन पर हंसा जा सकता था। तब ये सेंस ऑफ ह्यूमर कहलाता था। हिन्दी के सबसे बड़े कवि तुलसीदास के इस कला पक्ष को सबसे बेहतर तौर पर बताता है लक्ष्मण-परशुराम संवाद। आप चाहे तो लक्ष्मण को हम भारत के लोग और परशुराम जी को सत्ता या लोकतंत्र के चार स्तंभ कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका या प्रेस के प्रतिनिध के तौर पर देख सकते हैं।
धनुष टूटने से आहत परशुराम कहते हैं –
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥ सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥2॥ | सेवक वह है जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है॥2॥ |
इस पर लक्ष्मण जी ने कहा
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥ एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥4॥ | हे गोसाईं! बचपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे॥4॥ |
भगवान शिव परशुराम के गुरु थे। गुरु के धनुष को लेकर लक्ष्मण जी के मजाक से उनका क्रोध और बढ़ गया।
रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार। धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥271॥ | अरे राजपुत्र! काल के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?॥271॥ |
परशुराम जी के क्रोध से लक्ष्मण डरे नहीं।
लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥ का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥1॥ | लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था॥1॥ |
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥ बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥2॥ | फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण किसलिए क्रोध करते हैं? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना॥2॥ |
इस पर परशुराम का क्रोध और बढ़ गया।
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥ बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥3॥ | मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ॥3॥ |
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥ सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥4॥ | अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख!॥4॥ |
अब जो लक्ष्मण ने कहा वो इस संवाद का सबसे ज्यादा याद रखा जाने वाला और अलग-अलग संदर्भों में प्रयोग किया जाने वााला छंद है।
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥ पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥1॥ | लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं॥1॥ |
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥ देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥2॥ | यहाँ कोई कुम्हड़ की बतिया (छोटा कच्चा फल) नहीं है, जो तर्जनी (सबसे आगे की) अँगुली को देखते ही मर जाती हैं। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमान सहित कहा था॥2॥ |
2 साल 7 महीना और 26 दिन की मेहनत से 1576 में जब तुलसीदास ने रामचरित मानस पूर्ण किया तब के भारत और आजादी के 73 साल बाद के भारत में कितना कुछ बदला है। पात्र, परिस्थिति और भाव के अनुकूल भाषा, तत्सम, तद्भव और आंचलिकता से लैस भाषा जब तुलसी के भाव का वहन करती है तो अवधी और अवध में संपूर्ण भारत का रुपक रच डालती है। परशुराम का अहंकार, लक्ष्मण का स्वाभिमान और इन्हें संभालती राम की मर्यादा। हमारा लोकतंत्र हम भारत के लोगों ने मिल कर बनाया है…इसलिए ये कुम्हड़ की बतिया नहीं है कि किसी की तर्जनी दिखाने से गल जाए।