आर्मीनिया-अज़रबैजान युद्ध: क्या करेगा भारत?
हाल के सबसे खतरनाक युद्ध (war) में एक ओर मुस्लिम मुल्क अज़रबैजान (azerbaijan) है…तो दूसरी ओर ईसाई बहुल आर्मीनिया (armenia)। अजरबैजान के साथ स्वयंभू खलीफ़ा होने की खुशफहमी पाले बैठे अर्दोआन और उनके सबसे बड़े मुरीद पाकिस्तान खड़े हैं..। ऐसे में भारत (India) किसके साथ साथ खड़ा होगा, ये लगभग साफ है..। यूं तो कूटनीतिक जानकारों के मुताबिक दोनों देशों में आर्मीनिया, भारत के ज़्यादा निकट है…लेकिन जैसा कि दिखता है, भारत ने अब तक आर्मीनिया और अज़रबैजान को लेकर बुद्ध सरीखा मध्यमार्ग अपनाया है..।
सरसरी नज़र में ये रुख़ इस सरकार के सोच और तेवर दोनों के ही विपरीत लगता है..। लेकिन इसकी ठोस वजहें हैं..और सिर्फ इतने तक सीमित नहीं हैं कि भारत रूस के बैकयार्ड में दखल देता दिखना नहीं चाहता..। अगर ऐसा होता तो इसी साल भारत आर्मीनिया के साथ 40 मिलियन डॉलर का रडार बेचने का समझौता नहीं करता..। वो भी रूसी कंपनी के टेंडर को मात देकर..। सभी जानते हैं कि आर्मीनिया रूस पर बाकी चीज़ों की तरह रक्षा मामलों में भी कितना निर्भर है..। आर्मीनिया की ज़मीन पर रूसी सेना के ठिकाने तक हैं..। आखिरकार रूस ने अब तक इस जंग (war) में तुर्की की खुली चौधराहट को भी बर्दाश्त किया ही है..।
सोवियत ज़माने के सांस्कृतिक संबंध अब रूस के साथ रिश्तों में बेमानी हो चुके ,हैं तो आर्मीनिया और अज़रबैजान के साथ क्या मायने रखेंगे..। अगर कूटनीति को सिर्फ राजनीति चलाती तो इज़रायल…. ईरान और पाकिस्तान जैसे जानी दुश्मनों वाले अज़रबैजानी खेमे के साथ ना खड़ा होता..। लिहाज़ा भारत इस बवाल में सिर्फ इस बिनाह पर पक्ष नहीं ले सकता कि तुर्की और पाकिस्तान किसकी हिमायत कर रहे हैं..। वो अज़रबैजान की सीधी हिमायत इसलिए नहीं करेगा क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के कई हलके नागोर्नो-काराबाख और कश्मीर के मामलों में समानताएं खोज सकते हैं..। अगर कश्मीर को विवादित बताने वाला यूएन का एक प्रस्ताव है तो नागोर्नो-काराबाख को आर्मीनिया के ग़ैर-कानूनी कब्जे में बताने वाले चार हैं..। ऐसे में अगर खुलकर बाकू के समर्थन में कुछ कहा तो लोग उसी वक्त पूछेंगे कि कश्मीर का क्या..?
लेकिन भारत के लिए खुलकर आर्मीनिया के पक्ष में आना भी मुमकिन नहीं है..। उपरोक्त रडार डील तो है ही, नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर से भी भारत के हित जुड़े हैं..। हालांकि ये परियोजना अब काफी हद तक ठंडे बस्ते में जाती दिख रही है..लेकिन अगर मुकम्मिल होती है तो ये भारतीय तट को यूरेशिया से जोड़ सकती है..। अज़रबैजान इस कॉरिडोर की अहम कड़ी है..। लेकिन यहां बड़ा मसला ये है कि भारतीय विदेश नीति अपने पड़ोस को छोड़कर दुनिया के मसलों पर खुला और साफ स्टैंड लेने से हमेशा बचती रही है..।
अगर आप महाशक्ति बनना चाहते हैं तो कठिन विकल्प चुनना भी आना चाहिए..। ख़ासकर तब जब भारत-प्रशांत, अफ्रीका और यूरेशिया में आपके आर्थिक और सामरिक हितों का फैलाव हो रहा है..। दुनिया की अगुवाई करनी है तो कई बार आपको एक दोस्ती के लिए दूसरी दोस्ती की कुर्बानी भी देनी होती है..।हालांकि भारत के किसी एक को समर्थन से इस जंग (war) के नतीजे पर कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला..। मोदी सरकार के रुख़ से फ़र्क पड़ेगा तो घरेलू समर्थकों और विरोधियों पर..।
लेकिन अपने सियासी हितों के मद्देनज़र नई दिल्ली के रणनीतिकार इतना तो कर ही सकते हैं कि अब रूस से पैदा हो रहे नए कथानक (नैरेटिव) को और फैलाएं..। इसके मुताबिक अज़रबैजानी मोर्चे पर अब जेहादी निर्यात हो रहे हैं..और ये काम तुर्की की शह पर हो रहा है..। इससे भारत इस जंग (war) को कश्मीर में अपने नैरेटिव से जोड़ पाएगा और तुर्की के साथ पाकिस्तान को भी कठघरे में खड़ा कर पाएगा..। और कुछ नहीं तो भारतीय रणनीतिकार सूचना युद्ध (war) का मोर्चा तो खोल ही सकते हैं..। लेकिन ये ध्यान में रखते हुए कि इसकी आंच इतनी ना बढ़ जाए कि अज़रबैजान को गंवारा ना हो..।
साभार: अवर्ण दीपक, युवा पत्रकार एवं लेखक