कोरोना के बाद, कैसी होगी…किसकी होगी दुनिया?
पिछले दिनों हॉन्गकॉन्ग की दीवार पर लिखे एक स्लोगन की तस्वीर ट्विटर पर खूब चली। स्लोगन का तर्जुमा कुछ यूं था: ” हम अब कभी सामान्य हालात की तरफ नहीं लौट सकते, क्योंकि जिसे अब तक हम सामान्य कहते थे, दरअसल वही तो असली समस्या थी।” ऐसी ही तस्वीरें दुनिया के कुछ दूसरे देशों में भी दिखीं।
दुनिया भर के जानकारों की एक नज़र इन दिनों कोरोना के खिलाफ जंग में रोज़मर्रा के मोर्चे पर है, और दूसरी इस महामारी के बाद दुनिया क्या शक्ल लेगी इस बात पर। महामारी से तो इंसानियत देर-सबेर निपट ही लेगी, इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन क्या जो अब तक सामान्य था, वो लौटकर आएगा? असली सवाल यही है।
हालांकि किसी नाटक के बीच में ही उसके अंत की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। लेकिन दुनिया के एक सुदूर कोने में बैठा मैं भी इसे देख रहा हूं, और ख़ासकर काम के हालात के चलते ज़्यादातर वक्त, इस पर दुनिया में छिड़ी चर्चाओं को पढ़ने-सुनने में ही बीतता है। सभी धड़ों और मुल्कों के विचारकों की ओर से एक राय जो सामने आ रही है, उसे मोटे तौर पर ऐसे रखा जा सकता है : –
कोरोनावायरस के बाद दुनिया में राष्ट्रवाद मज़बूत होगा, सरहदें और पक्की होंगी, दुनिया के अगुवा के तौर पर अमेरिका कमज़ोर होगा, वैश्विक ताकत का संतुलन एशिया की ओर झुकेगा और आने वाली पीढ़ियां अंधे वैश्वीकरण के नुकसानों को ज़्यादा अच्छी तरह समझेंगी। कुल मिलाकर हम कोरोनावायरस के बाद ऐसे जगत में प्रवेश करेंगे जो कम खुला, कम संपन्न और कम आज़ाद होगा।
संकेतों पर ग़ौर करें तो ये बात पूरी तरह गलत भी नहीं लगती। शीत युद्ध के बाद से हर संकट में अमेरिका दुनिया की अगुवाई करता आया है। लेकिन इस महामारी से निपटने में ट्रंप प्रशासन की कारगुज़ारी की तुलना, वहीं के टिप्पणीकार तीसरी दुनिया के निकम्मे प्रशासनों से कर रहे हैं। बॉर्डर सील, हवाई अड्डों पर ताला; इसके बावजूद ट्रंप प्रवासियों के आने पर पाबंदी का आदेश जारी करते हैं। ये उनके अपने भक्त वोटरों के लिए तो एक झुनझुना था ही, जिस मुक्त अर्थव्यवस्था का पुतला अंकल सैम अपनी दुकान के बाहर टांग कर रखा करते थे, उस पर भी कुल्हाड़ी का एक वार था।
अंतरराष्ट्रीयवाद का दमकते सितारा यूरोपीय यूनियन भी इस संकट से दरकता दिख रहा है। जब कोरोनावायरस की विपदा सबसे पहले इटली पर आई तो यूरोपीय यूनियन के बाकी देश मदद के लिए आगे आने के बजाए अपना-अपना घर संभालने लगे। अभी हाल ही में यूरोपीय यूनियन की अध्यक्ष उर्सुला वोन डेर लेएन (उर्सुला नाम मुझे डी.एच लॉरेंस के मास्टरपीस उपन्यास ‘वूमन इन लव‘ की याद दिलाता है!) इस बात के लिए इटली से “दिली तौर पर” माफी भी मांगी है। एक ही यूनियन में जर्मनी जैसे उदाहरण हैं, जो संक्रमण पर काबू रख पाए तो दूसरी ओर इटली और स्पेन भी हैं।
ऐसा लग रहा है कि महामारी के खिलाफ ये जंग, दुनिया की अगुवाई का संघर्ष बन गई है – जो इससे जितना ज़्यादा प्रभावी तरीके से निपटेगा, वही सबका लीडर बनेगा। हर देश कनख़ियों से पड़ोसी देश के आंकड़ों को देख रहा है। दुनिया के नामचीन थिंकटैंक्स की चर्चाओं का मुख्य मुद्दा, इस महासंकट में सहयोग बढ़ाने के तरीकों से ज़्यादा, ये है कि कोरोनाकाल के बाद क्या दुनिया का दरोगा अमेरिका के बजाए चीन होगा? क्राइसिस ग्रुप नाम के थिंक टैंक की एक चर्चा (जिसे आप यू-ट्यूब पर सुन सकते हैं) का लब्बोलुवाब ये है कि इस वक्त दुनिया में दो अलग-अलग विचारों के बीच प्रतियोगिता चल रही है: एक – देशों को इस संकट से निपटने के लिए और करीब आना चाहिए, दूसरा – महामारी से बचना है तो जितना दूसरे देशों से कटोगे उतना ही बेहतर होगा। एक दूसरे स्तर पर ये संघर्ष उदारवादी समाजों और पलटन की तरह एक नेता के पीछे चलने वाले अधिनायकवादी समाजों के बीच भी है।
दक्षिण कोरियाई मूल के जर्मन नागरिक ब्युंग चुल हान इस दौर के सबसे अहम दार्शनिकों में गिने जाते हैं। वो नैरेटिव्स यानी कथानक की इस जंग में चीन, जापान, ताइवान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर जैसे देशों को विजयी घोषित कर भी चुके हैं। हान के मुताबिक ये देश कोरोनावायरस से बेहतर तरीके से निपट सके, क्योंकि इनके समाज कन्फ्युशियस संस्कृति पर आधारित हैं जो उन्हें सत्ता का ज़्यादा आज्ञाकारी बनाता है। उनकी मानें तो ऐसी महामारी सरहदें बांधने से ज़्यादा डेटा के मोर्चे पर जीती जा सकती है। वो चीन का उदाहरण देते हैं, जहां आपके एक-एक क्लिक पर सरकार की नज़र होती है और कोरोनावायरस में भी नित-नई तकनीकों से आपकी पूरी जिंदगी पर सरकार की निगरानी रहती है। हान की मानें तो पूर्वी एशिया के इन देशों की जनता के संस्कार ऐसे हैं कि उन्हें अपने इस डेटा को सरकार के साझा करने में वैसी दिक्कत नहीं है जैसी आज़ाद-ख़्याल पश्चिम के नागरिकों को; और यही निजता का अधिकार मौजूदा हालात में उदार लोकतंत्रों की कमज़ोरी साबित हो रहा है। कोरोनावायरस के स्थिर होते आंकड़ों को हथियार बनाकर चीन ने अपने सिस्टम को लोकतंत्र से बेहतर साबित करने का बाजप्ता अभियान छेड़ रखा है।
तो क्या हम ये मानें कि उत्तर-कोरोना युग में उदारवादी लोकतंत्र और उसके कंधे पर टिके पूंजीवाद के दिन लदने वाले हैं?
अगर आपकी दिलचस्पी अपनी समकालीन दुनिया को समझने में है, तो आपको स्लोवेनियन दार्शनिक स्लावोज़ ज़िज़ेक को ज़रूर पढ़ना चाहिए। खुद को ‘ईसाई नास्तिक’ कहने वाले ज़िज़ेक में गहन से गहन दार्शनिक विषय को हास्य और कविता में बदल देने की बेजोड़ प्रतिभा है। अभी हाल ही में कोरोना महामारी पर उनकी एक लघु किताब ‘पैंडेमिक’ जारी हुई है (गुडरीड्स के मार्फत ई-बुक पहले 10 हज़ार पाठकों के लिए मुफ्त है)। किताब में ज़िज़ेक कहते हैं कि कोरोनावायरस ने पूंजीवाद को तो करारी चोट दी ही है, लेकिन शी ज़िनपिंग के प्रशासन का इकबाल भी बुलंद नहीं हुआ है।
ज़िज़ेक को लगता है कि पश्चिमी नाकारापन और पूर्वी तानाशाही बर्बरता के द्वंद्व से हम एक नए प्रकार के साम्यवाद का उदय देख सकते हैं। लेकिन ये साम्यवाद 20वीं सदी के साम्यवादी मॉडलों से भिन्न होगा। ज़िज़ेक के मुताबिक “दुनिया एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की ज़रूरत महसूस करेगी जो अर्थव्यवस्थाओं को नियंत्रित कर सके और ज़रूरत पड़ने पर देशों की प्रभुसत्ता पर भी लगाम कस सके।” डोनल्ड ट्रंप के लाखों बेरोज़गार अमेरिकियों को चेक बांटने, ब्रिटेन के अपने यहां के उत्तरी रेलवे के दोबारा राष्ट्रीयकरण, जैसे फैसलों में ज़िज़ेक इसी नव-साम्यवाद की आहट देखते हैं.
हमारे वक्त के एक और अग्रणी विचारक नोम चोमस्की मानते हैं कि वैश्वीकरण की प्रवृत्ति किसी ना किसी रूप में इंसानी इतिहास की शुरुआत से रही है और आगे भी रहेगी। लेकिन उसका स्वरूप मूलभूत रूप से बदल सकता है। मान लीजिए अमेरिका की कोई कंपनी अपना कारखाना भारत के किसी हिस्से में लाना चाहती है। अभी इसका फैसला बैंक, कंपनियों के बोर्ड और सरकारी एजेंसियां करती हैं। लेकिन हो सकता है भविष्य में अमेरिका में जो समुदाय कारखाना हटने से प्रभावित हो रहे हैं और भारत में जो कारखाना लगने से प्रभावित होंगे, वो आपस में मिलकर तय करें कि क्या होना चाहिए। कोई इनकार नहीं कर सकता कि दुनिया के अनेकों समूहों के हित अलग-अलग सीमाओं और झंडों के बावजूद एक जैसे होते हैं। मज़दूरों, किसानों की कई ऐसी यूनियनें हैं जिनके नाम के आगे इंटरनेशनल लगा होता है, ये यूं ही नहीं है। चोमस्की कहते हैं कि अगर इंसानियत को मिटने से रोकना है, तो मुनाफाखोर वैश्वीकरण को उखाड़कर सच्चे अंतरराष्ट्रीयवाद की ओर बढ़ना ही होगा। और कोरोनावायरस इसी दिशा की ओर बढ़ने का बेहतरीन मौका है।
आप कह सकते हैं कि बदलाव की डोर अब भी मुट्ठी भर लोगों के हाथ में है, जिसे चोमस्की ‘डावोस लॉबी’, या दुनिया के असली मालिक कहते हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि बदलाव की कोशिशें नहीं हो रही। फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रॉन ने कोरोनावायरस पर अपने सबसे पहले संबोधन में कहा था, “जिस दिन ये जंग हम जीतेंगे, उस दिन हम लौटकर पिछले कल पर नहीं आएंगे, हम पहले के मुकाबले नैतिक तौर पर ज़्यादा मज़बूत बनकर उभरेंगे।” उनके समर्थक कुछ सांसदों ने Jour d’Après नाम की एक वेबसाइट शुरू की है। इन सांसदों ने समाज और देश के लिए सबसे ज़्यादा जरुरी 11 मुद्दों को छांटा है और उन्हें लेकर नीतियों में आमूल-चूल बदलाव के लिए लोगों से सुझाव मांग रहे हैं। इन 11 मुद्दों में पहले नंबर पर सेहत है, तो दूसरे नंबर पर है- “मेट्रो, श्रम, रोबोट- श्रम की कैसी दुनिया चाहते हैं हम?” अमेरिका के विपक्ष के नेता और हाल तक राष्ट्रपति पद के दावेदार रहे बर्नी सैंडर्स और ग्रीस के अर्थशास्त्री, दार्शनिक एवं राजनेता यानिस वराउफाकिस ने दुनिया में स्थापित हो रही ट्रंप सरीखी दक्षिणपंथी सरकारों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय गठबंधन का आह्वान किया है। इटली की सियासत में ‘भविष्य आयोग’ के गठन की मांग उभरी है।
हमारे सामने कामयाब अंतरराष्ट्रीयवाद का बेहतरीन उदाहरण क्यूबा है। अफ्रीका के दक्षिणी हिस्सों की आज़ादी की जंग में सहयोग हो, 2005 के भूकंप से बर्बाद पाकिस्तान की मदद करना हो या फिर कोरोनावायरस में यूरोप की मदद के लिए आगे आना हो; इन सभी मामलों में, अमेरिका के विराट साए में ये छोटा सा देश, आज पश्चिमी जगत की नाकामियों से दूर और संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर मिसाल पेश कर रहा है।
लेकिन सनद रहे वायरस बदलाव का वाहक नहीं हो सकता। किसी “वायरल क्रांति” का ख्वाब ना देखें क्योंकि वायरस क्रांति नहीं लाते। कट्टरवाद की तरह वो भी बांटते और पृथक करते हैं। सांप्रदायिक चेतना की तरह महामारियां भी सिर्फ दूसरों से दूरी बढ़ा सकती हैं और सिर्फ अपनी फिक्र करना सिखाती हैं। ये वो चेतना नहीं हो सकती, जो एक अमन और इंसाफ भरी दुनिया की ओर ले जाए। इसलिए क्रांति को वायरस के ज़िम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। उम्मीद है कि दुनिया में अभी इतनी अच्छाई बाकी है कि ये बदलाव इंसानों की क्रांति साबित होगा। हमारा वजूद बनाए रखने का और कोई दूसरा तरीका नहीं है।
साभार – नीतिदीप (लेखक, विचारक एवं युवा पत्रकार)
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