पटरी पर मौत और ‘अंग्रेजी मीडियम’ वाला दुख !
लॉकडाउन में जहां तमाम फुरसतिए सो कर उठने के बाद फिर कैसे सोएं जैसे गंभीर मुद्दे पर चिंतन कर रहे थे, वहीं कुछ थके-हारे मजदूर रेल लाइन पर ही सो गए।
वो इस तरह सोए कि फिर उठे ही नहीं….
ट्वीटर की दुनिया में किसी का गुनाह छिप नहीं सकता… देखिए कितना वाजिब सवाल पूछा है भाई ने ?
ये तो होना ही था…बलबीज पुंज पहले ही बता चुके थे, कि दिहाड़ी मजदूरों में जिम्मेदारी की भावना है ही नहीं।
हमारे प्रधानमंत्री तो इस घटना से इतने आहत हुए कि उन्होंने अपना दुख ट्वीट कर विपक्ष से लेकर घाना और बोत्सवाना तक को बताया
प्रधानमंत्री अगर सिर्फ दुखी होते तो वो sad होते, लेकिन वो Extremely anguished हैं। अंग्रेजी हमारे मालिकों की जुबान रही है, इस जुबान में आकर दुख महज दुख नहीं रहता, sorrow बन जाता है, लेकिन इसे सिर्फ sorry वाला sorrow समझना अंग्रेजी का अपमान होगा..ये काम्बिनेशन वाला गम है.. ये agony, pain, torment, torture, suffering, distress, angst, misery, grief, heartache, heartbreak, wretchedness और unhappiness वाला गम है।
मतलब वो सिर्फ दुखी नहीं हैं, वो इतने दुखी हैं कि उन्होंने रेलमंत्री पीयूष गोयल से कह दिया – हालात की निगरानी करें ।
इसके पहले उनकी यूरोपियन काउन्सिल के प्रेसीडेंट चार्ल्स माइकल के साथ protecting global health and contributing to global economic recovery पर excellent discussion हुई थी। फिर उन्हें मजदूरों की मौत पर ये ट्वीट करना पड़ा. एक अकेला शख्स भला क्या-क्या करे? वो पीएम ही तो हैं, अब इससे ज्यादा कोई क्या कर सकता है ? जो लोग इल्जाम लगाते हैं कि PM does not care उन्हें ये याद दिलाया जाना चाहिए कि our PM does care इसीलिए तो उन्होंने फंड बनाया है- pm cares
24 मार्च की रात चार घंटे की मोहलत दे कर प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन का ऐलान किया था, तब कोरोना के 618 केस थे, 13की मौत हुई थी। अब आंकड़ा 60 हजार के पार है तो टीवी पर बहस होती है हमारे देश में इन्फेक्शनं का डबलिंग रेट क्या है? और अगर लॉकडाउन न होता तो ये तादाद कितने लाख पहुंच जाती ?
ये बहस कहीं नहीं है कि अगर लॉकडाउन का ऐलान करने के बाद चार-पांच दिन की मोहलत दी गई होती तो क्या होता ? तब भी क्या लाखों लोगों को पैदल हजार किलोमीटर के सफर पे निकलना पड़ता, क्या तब भी लोग रोड के बजाए रेल के रास्ते पैदल चलते, तब भी क्या थक कर, पुलिस से बच कर ,पटरी पर सोए लोगों की जान जाती?
‘ अंधा युग में गांधारी का भगवान श्रीकृष्ण से सवाल है —
आस्था लोग तुम
तो अनास्था लेगा कौन ?
लॉकडाउन के ऐलान के बाद से देश भर से मजदूर पैदल चलकर अपने गांवों की ओर जाने लगे । 29 मार्च को प्रधानमंत्री ने दिहाड़ी मजदूरों के पलायन पर दुख का इजहार किया। प्रधानमंत्री के दुख से अत्यंत दुखी चीफ लेबर कमिश्नर ने सिर्फ दस दिन बाद… 8 अप्रैल को देश के सभी रिजनल दफ्तरों को तीन दिन के अंदर लॉकडाउन में फंसे सभी मजदूरों की जानकारी देने का आदेश दिया। लेकिन जब इस मामले में एक RTI फाइल हुई तब पता चला कि श्रम मंत्रालय के अधिकारी CLC के गम से खुद इतने दुखी थे कि लॉकडाउन में फंसे मजदूरों को लेकर कोई डाटा वो इकट्टा ही नहीं कर पाए।
अब जब सरकार को पता ही नहीं है कि देश में कितने दिहाड़ी मजदूर हैं, और वो कहां रह रहे हैं, किस हालत में जी रहे हैं, तब उनके लिए सरकार कर भी क्या सकती है ?
मालिक, मकान मालिक की घुड़कियां, पुलिस की लाठियां, सुबह 6 बजे से दिन के दो बजे तक खिचड़ी के लिए भिखारी की तरह कतार में लगना, भूख, थकान, रोड एक्सीडेंट, ट्रेन एक्सीडेंट …इतने से बच कर …पैदल, साइकिल, बस या ट्रेन से …अपने शहर अपने गांव कोई मजदूर पहुंचता है तब उसे एहसास होता है कि वो मरा नहीं अब तक जिंदा है।
अब उसके पास क्या है? वो शहर जहां वो कभी दोबारा जाना नहीं चाहता, वो सरकार जिस पर उसका भरोसा टूट चुका है और एक छोटी उम्मीद .. कि ….बाजू सलामत रहे, तो, दो वक्त की रोटी, कहीं भी जुटा लेंगे।
यही जो दूसरे नंबर की फिलींग है, उससे वो extremely anguished हैं
अब समझे …अंग्रेजी मीडियम वाला दुख ?