BiharElection: क्यों नजर नही आए अमित शाह ?
बिहार ( BiharElection? ) में तीसरे दौर के चुनाव के पहले ही बीजेपी अध्यक्ष नड्डा दिल्ली चले गए, तो छह माह बाद होने वाले चुनाव का बिगुल फूंकने अमित शाह बंगाल पहुंच गए। बीजेपी में राज्य और केंद्रीय नेतृत्व के बीच समन्वय में सबसे अहम भूमिका 8 महासचिवों की है। मकसद अगर संगठन की समीक्षा का था तो ये जिम्मेदारी बंगाल के इंचार्ज और राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की बनती थी न कि गृहमंत्री की। लेकिन फिर भी इस साल 1 मार्च के बाद शाह का दूसरी बार पश्चिम बंगाल जाना इसलिए अहम है क्योंकि राज्य में पार्टी के विस्तार का सबसे ज्यादा श्रेय उन्हें ही दिया जाता है।
हालिया स्टेट इलेक्शनों की बात करें तो महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली में अहम भूमिका निभाने वाले शाह बंगाल के दौरे पर आए, लेकिन बिहार में तीन दौर के प्रचार में वो एक बार भी नजर नहीं आए । इसकी अहमियत इस तरह समझिए कि 2014 आम चुनाव में बीजेपी की जीत और मोदी के प्रधानमंत्री बनने में सबसे अहम भूमिका निभाने वाले शाह 18 राज्य चुनावों के बाद पहली बार बिहार के चुनाव से पूरी तरह बाहर रहे। यूपी और गुजरात में हुए स्टेट इलेक्शन में शाह की बेहद अहम भूमिका रही थी। इससे पहले 2015 में जब बिहार में एसेंबली के चुनाव हुए थे, तब शाह ने कमान संभाली थी। बीजेपी ये चुनाव तो बुरी तरह हारी ही, टिकट बंटवारे और रणनीति को लेकर कई तरह के सवाल भी उठे। सूत्रों के मुताबिक अमित शाह इस बार भी 2015 के सहयोगियों एलजेपी और आरएलएसपी के साथ और लालू-नीतीश के खिलाफ लड़ना चाहते थे…और जब उनकी नहीं सुनी गई…तब उन्होंने खुद को बिहार चुनाव से अलग कर लिया। बिहार बीजेपी में आज भी कई लोग मानते हैं कि पार्टी को अमित शाह की सलाह माननी चाहिए थी,…कांटे की टक्कर वाली सीटों पर उसे जेडीयू कैडर का समर्थन नहीं मिल रहा है, वहीं पार्टी जेडीयू के खिलाफ एंटीइनकमबैंसी लहर की चपेट में आ रही है। बीजेपी ने बिहार चुनाव की कमान पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को सौंपी है। कुछ जानकारों की राय है कि शाह को दिल्ली चुनाव में हार की सजा मिली है, वहीं नड्डा को पिछले साल आम चुनाव में यूपी के चुनाव प्रभारी के तौर पर 80 में 62 सीटें जीतने का रिकार्ड बनाने का इनाम मिला है।
संगठन और रणनीति में नड्डा भी माहिर हैं, लेकिन बिहार चुनाव में शाह के नहीं होने से कहीं न कहीं पार्टी बिखरी नजर आई है। पीएम के तीन दौर की रैलियों में हर बार पार्टी नए एजेंडे को लेकर आगे आई। 18 अक्टूबर से तीन दिन तक बिहार के लिए विकास की कई योजनाओं का ऐलान करने के बाद प्रधानमंत्री ने पहले दौर के चुनाव में डेवलपमेंट एजेंडा सामने रखा। दूसरे दौर में वो 2015 में पिट चुके जंगलराज के मुद्दे पर लौट आए। जब उन्होंने तेजस्वी को जंगलराज का युवराज कह कर एक तरह से उन्हें बड़ी सियासी जमीन दे दी। तीसरे दौर में पीएम ने छठ पर्व के जरिए महिला वोटरों को लुभाने की कोशिश की। स्वर्गीय रामविलास पासवान को सासाराम रैली में पीएम के श्रद्धांजलि देने से संदेश गया कि एलजेपी से नीतीश को बैर होगा, बीजेपी के लिए चिराग और एलजेपी जरूरी हैं। बीजेपी के पोस्टर से लेकर पीएम के बिहार की जनता के नाम खत में जिस तरह नीतीश गायब हैं, उससे लगा कि बीजेपी नीतीश को बस मजबूरी में ढो रही है। बीजेपी के सोशल वारियर्स लगातार जेडीयू के खिलाफ प्रचार करते रहे। चुनाव में सहयोगी पार्टी अगर आश्वस्त न हो, तो वोट ट्रांसफर में किसे ज्यादा नुकसान होगा, ये नहीं कहा जा सकता।
कोरोना काल में पहला स्टेट इलेक्शन बिहार में हुआ है। लॉकडाउन से इकोनॉमी पूरी तरह चरमरा गई, एक ओर बढ़ती बेरोजगारी तो दूसरी ओर कोरोना मरीजों की तादाद में लगातार इजाफा …जाहिर है प्रवासी मजदूरों और बेरोजगार युवाओं के वोट के नजरिए से कोरोना चुनाव में अहम फैक्टर साबित हो सकता है। इसके बाद जरूरत इस मुद्दे से बच निकलने की थी। मुफ्त वैक्सीन पर किरकिरी के बाद .. नड्डा ने दरभंगा रैली में ट्रंप को घेरते हुए जिस तरह मोदी की तारीफ की, उससे फायदा होने की उम्मीद करना बेमानी ही होगा।
रिया चक्रवर्ती को बेल मिलने और एम्स की रिपोर्ट आने के बाद ऐसा लगता है कि बिहार चुनाव के लिए बीजेपी ने सुशांत की मौत को ओवरप्ले कर दिया, जिससे बचा जा सकता था।
यूपी में आदित्यनाथ के सीएम बनने में शाह की अहम भूमिका थी। इससे सूबे में राजनाथ सिंह की सियासत कमजोर हुई। बिहार चुनाव में शाह राजपूत वोटरों को लुभाने के लिए सिर्फ आदित्यनाथ को सामने रखना चाहते थे। नड्डा ने राजनाथ को बिहार चुनाव से जोड़ कर ये दिखाया कि वो रबर स्टैंप बन कर रहने को तैयार नहीं हैं।
यूं ही शाह नहीं हैं मोदी के सबसे चहेते
अमित शाह को हालात संभालने आता है- दिल्ली में जब पिछली बार कोरोना की वजह से हालात बेकाबू हुए थे, तब अमित शाह ने कमान संभाली और नतीजा अच्छा रहा, कोरोना की जांच की दर देश भर में कम करने में उनकी भूमिका रही, 15 मार्च को उन्होंने कोरोना से मौत पर चार लाख का मुआवजा देने और इलाज का पूरा खर्च केंद्र सरकार की ओर से उठाने का आदेश भी दिया था, लेकिन कैबिनेट के कई साथियों के विरोध की वजह से ये आदेश उसी दिन उन्हें वापस लेना पड़ा।
कुछ अरसा पहले अमित शाह ने कई चैनलों को इंटरव्यू दिया। अगर आप ये मान कर चलें कि इंटरव्यू के सारे सवाल पहले से तय थे तो उऩके इंटरव्यू का सबसे अहम सवाल वो है जो उनसे अरनब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट की फटकार को लेकर पूछा गया था। उनका जवाब था – प्रेस को खबर दिखानी चाहिए, लेकिन उसे सनसनीखेज नहीं बनाना चाहिए। संदेश साफ था कि अगर अरनब विच हंटिंग के जरिए आसाम का सीएम बनना चाहते हैं तो शाह उनके लिए सीढ़ी नहीं बनेंगे। शाह ये बात इसलिए कह सके, क्योंकि उन्हें मोदी का भरोसा हासिल है।
हकीकत ये है कि बिहार चुनाव में बीजेपी को अमित शाह की कमी बुरी तरह खली है। बूथ स्तर तक की रणनीति बनाने, विरोधी पार्टियों के नेताओं के खिलाफ एक जैसे नाम वाले अपने कई कैंडिडेट खड़े करने, सीट दर सीट माहौल बनाने, वोटों का ध्रवीकरण करने, सोशल मीडिया को ओवरप्ले किए बगैर अपनी बात व्हाट्सएप ग्रुप के जरिए फ्रिंज वोटर तक पहुंचाना..चुनावी रणनीतिकार के तौर पर अमित शाह का पूरे देश में कोई नेता मुकाबला नहीं कर सकता। लगता है पार्टी को बात समझ में आ गई है, लिहाजा बिहार की गलती को बंगाल चुनाव से सुधारने की कवायद शुरू हो गई है।