अमेरिकी चुनाव में क्यों अहम हैं भारतीय?
अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव (US election) में भारतवंशियों Indian american) का महत्व कितना ज्यादा है….इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जैसे ही डेमोक्रेटिक पार्टी ने कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया ….ट्रंप (Trump) खेमे में खलबली मच गई। पहले तो कमला हैरिस को नीचा दिखाने की कोशिश की गई और जब ये चाल उलटी पड़ने लगी…तो उन्होंने भी निक्की हेली नाम की एक भारतवंशी को ढूंढ निकाला और अपना स्टार प्रचारक बना दिया।
एक और कोशिश?
बुधवार को इसकी एक और बानगी देखने को मिली। रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने व्हाइट हाउस में भारतीय सॉफ्टवेयर डेवलपर सुधा सुंदरी समेत 5 प्रवासियों(immigrants) को अमेरिकी नागरिकता की शपथ दिलाई। ट्रम्प ने न केवल प्रवासियों के नागरिकता शपथ समारोह की अध्यक्षता की बल्कि खुद को प्रवासियों का सबसे बड़ा हितैषी भी बताया। जाहिर है, विवादित वीजा पॉलिसी और अप्रवासी नागरिकों को लेकर लिए गए फैसले पर फजीहत करा चुके अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प…. चुनावी फायदे के लिए प्रवासी नागरिकों को साधने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं।
क्या है इसकी वजह?
दरअसल, इस बार के चुनाव में ऐसे अप्रवासियों की संख्या काफी अधिक है, जिन्हें नागरिकता मिल गई है। आंकड़ों के मुताबिक इस बार के राष्ट्रपति चुनावों में करीब 2.3 करोड़ अप्रवासी वोट देने के अधिकार का प्रयोग करेंगे, जो अमेरिका के कुल मतदाताओं का करीब 10 फीसदी है। कुछ आंकड़ों से ये स्थिति ज्यादा स्पष्ट हो जाएगी –
- 1965 में आप्रवासियों की संख्या आबादी का महज 96 लाख ( आबादी का 5 %) थी, जो नये इमिग्रेशन और नेशनैलिटी कानून बनने के बाद तेजी से बढ़ने लगी। आज अमेरिका में करीब 4.5 करोड़ आप्रवासी हैं, जो कुल आबादी का करीब 14 फीसदी हैं।
- अमेरिकी प्रशासन के आंकड़ों के मुताबिक साल 2009 से 2019 के बीच 72 लाख अप्रवासियों को नागरिकता दी गई।
- पिछले बीस सालों में वोट देने का अधिकार हासिल करनेवाले अप्रवासियों की संख्या लगातार बढ़ती रही है, और साल 2000 के बाद से 93% तक बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
- दूसरी तरफ, अमेरिका में पैदा हुए वोटरों की आबादी में करीब 18% की ही वृद्धि हुई है। साल 2000 में इनकी संख्या 18.1 करोड़ थी…जो 2020 में बढ़कर 21.5 करोड़ तक पहुंची है।
- अमेरिका के ज्यादातर नये अप्रवासी वोटर या तो हिस्पैनिक (लैटिन अमेरिकन) हैं या एशियन। अप्रवासी वोटरों में लैटिन अमेरिकन वोटरों की संख्या करीब 75 लाख (34%) है, इनमें सबसे बड़ा ग्रुप (16%) मैक्सिको से आये अप्रवासियों का है। वहीं एशियन मतदाताओं की संख्या करीब 70 लाख (31%) है।
- आधे से अधिक अप्रवासी (करीब 56%) अमेरिका के चार घनी आबादी वाले राज्यों – कैलिफोर्निया, न्यूयॉर्क, टेक्सास और फ्लोरिडा में रहते हैं।
- अगर मूल देश के आधार पर देखें तो सबसे ज्यादा अप्रवासी मतदाता मेक्सिको (35 लाख ) के हैं, उसके बाद फिलीपीन्स के (14 लाख) और फिर भारत के (करीब 12 लाख) हैं।
संवेदनशील है अप्रवासियों का मुद्दा
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक अमेरिका में अप्रवासियों का मुद्दा काफी संवेदनशील है। राष्ट्रपति ट्रंप का रुख अप्रवासियों को लेकर सख्त रहा है और वो पूरे अमेरिकी-मेक्सिको सीमा पर कंक्रीट की दीवार खड़ी करने के पक्षधर रहे हैं। दूसरी और अमेरिकी जनमानस अप्रवासियों को लेकर ज्यादा मानवीय रुख अपनाने की वकालत करता रहा है। इसके अलावा नस्लवाद (racism) के मुद्दे पर भी ट्रंप प्रशासन की आलोचना हो रही है। अप्रवासियों के मुद्दे को भी इसी नस्लवादी विचारधारा से जोड़ा जा रहा है। ऐसे में डोनाल्ड ट्रंप को मजबूरन अपनी चुनावी रणनीति बदलनी पड़ी है।
भारतीय-अमेरिकी क्यों हैं अहम?
एक रिपोर्ट के मुताबिक रिपब्लिकन काफी सालों से भारतीय मूल के लोगों को अपने पाले में लाने की कोशिश में जुटे हैं। इसी कोशिश का हिस्सा है हाउडी मोदी और ट्रंप की भारत यात्रा। ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार के वीडियो में भी गुजरात यात्रा के विजुअल्स डाले हैं। भारत में और अमेरिका में भी प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को देखते हुए ट्रंप अपने चुनाव अभियान में लगातार मोदी की तारीफ करते और खुद को मोदी का दोस्त दिखाने की कोशिश करते दिख रहे हैं।
इसकी वजह ये है कि हाल के कुछ वर्षों में भारतीय मूल के लोग सबसे तेजी से उभरे हैं। अब भारतीय मूल के लोग सिर्फ कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर या आईटी क्षेत्र से ही नहीं जाने जाते हैं बल्कि इन्होंने बैकिंग, ट्रेडिंग, व्यापार, होटल, तकनीक, विज्ञान और राजनीति जैसे कई क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बना ली है। दूसरी खास बात ये है कि इनके वोटिंग पैटर्न पर भारतीय लोकतंत्र का असर दिखता है और ये अपने इस अधिकार का संगठित तरीके से और पूरा उपयोग करते हैं। यानी इनके वोट एकमुश्त…. एक ही पार्टी को पड़ते हैं। इसलिए इनका किसी पार्टी की तरफ रुझान, दूसरे पक्ष के लिए हार का कारण बन सकता है।
इस बार करीब 13 लाख अमेरिकी-भारतीय अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। खास तौर पर पेंसिलवैनिया और मिशिगन स्टेट में इनकी संख्या काफी मायने रखती है। वैसे, 2016 में 80 फीसदी से ज्यादा भारतवंशियों ने हिलेरी क्लिंटन के पक्ष में वोट दिया था। वो जीत नहीं पाई, लेकिन ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी इस बार उनके वोट खोना नहीं चाहती, और इसलिए वो भारतवंशियों को रिझाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
क्या है अमेरिकी-भारतवंशियों का रुख?
अमेरिकन वोटर सर्वे के मुताबिक राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियों और कामकाज से सिर्फ 28% अमेरिकी-भारतीय ही संतुष्ट हैं। वहीं H-1B वीजा के मामले में अमेरिकी सरकार के सख्त रवैये ने उन्हें और नाराज कर दिया है। हाल के सर्वे के मुताबिक अमेरिकी-भारतीयों में बाइडन और ट्रंप के बीच लोकप्रियता का अनुपात 2.3 : 1 का है। डेमोक्रेटिक पार्टी का दावा है कि उन्हें भारतवंशियों के 80 फीसदी तक वोट मिल सकते हैं।
एक भारतीय अमेरिकी संस्था IMPACT ने भी कई भारतीय मूल के लोगों को डेमोक्रेटिक पार्टी से जोड़ा है। इनमें अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य अमी बेरा, राजा कृष्णमूर्ति, रॉ खन्ना, प्रमिला जयपाल और स्टेट सिनेट के सदस्य जैसे जय चौधरी, निमा कुलकर्णी, जेनिफर राजकुमार, केशा राम, निखिल सावल, आमीश शाह आदि शामिल हैं। वहीं कुछ अन्य जानी-मानी शख्सियतें जैसे नीना अहमद (ऑडिटर जनरल, पेंसिलवैनिया), रॉनी चटर्जी (ट्रेजरर, नॉर्थ कैरोलिना), रवि शांडिल (डिस्ट्रिक्ट जज, टेक्सास) भी पार्टी के साथ जुड़ी हैं। जाहिर है, इनकी मौजूदगी से जो बाइडन को भारतवंशियों के बड़े वर्ग का समर्थन मिलेगा।
आखिर में…दावे से ये कहना तो मुश्किल है कि राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिकी-भारतीय…. ट्रंप को वोट देंगे या बाइडन को….लेकिन भारतीय लोकतंत्र के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय मतदाता किसी तानाशाह (इंदिरा गांधी, मोदी भी कह सकते हैं) को चुन सकता है, किसी गंवार-दबंग (यूपी-बिहार का उदाहरण ले लीजिए) को चुन सकता है, किसी अभिनेता-नौटंकीबाज को चुन सकता है….लेकिन किसी ‘उल्लू जैसे समझदार’ को नहीं। ये बात अमेरिका को भी देर समझ में आएगी और शायद कांग्रेस को भी।