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Jungleraj: ‘जंगलराज के युवराज’ का निहितार्थ

जरुर पढ़ें बिहार चुनाव

Jungleraj: ‘जंगलराज के युवराज’ का निहितार्थ

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अभिव्यक्ति और अंतर्कथा, नीति और नीयत, भावना और संभावना, जाति और धर्म, अगड़ा और पिछड़ा …राजनीति की शतरंज पर एक वजीर जैसे ही आगे के प्यादा की पहली चाल चलता है, सामने तसल्ली से बैठा आठ करोड़ वोटर उसके सारे चौंसठ घर गिन लेता है। ये बिहार है….इतनी राजनीति एक बिहारी सीख कर पैदा होता है।

जिस दिन मुंगेर हिंसा को लेकर समूचे बिहार में नीतीश सरकार की कानून व्यवस्था पर सवाल खड़ा होता है, ट्वीटर पर #MungerKillings #MUNGERMASSACRE #mungerpolice #LipiSinghDyer ट्रेंड करता है, उसी दिन प्रधानमंत्री मुजफ्फरपुर की रैली में पंद्रह साल पहले आरजेडी के शासनकाल को जंगलराज और परोक्ष रुप से पार्टी के सीएम कैंडिडेट तेजस्वी यादव को जंगलराज के युवराज का नाम देते हैं।

बीजेपी अगर एक पार्टी न होकर व्यक्ति होती, तो प्रधानमंत्री मोदी के जंगलराज वाले बयान को व्यक्तित्वांतर की संज्ञा दी जाती। पांच साल और 18 चुनाव के बाद बीजेपी को आखिरकार राज्य चुनाव में राज्य के मुद्दे पर आना ही पड़ा। जिन्ना और आतंकवाद की पनाहगाह, राम मंदिर और धारा 370 की दुहाई दे रही बीजेपी अब जेल में बंद लालू प्रसाद यादव को याद कर रही है। पहली बार सीएम कैंडिडेट के तौर पर मुकाबले में खड़े तेजस्वी यादव की ये बड़ी जीत कही जाएगी।

ये बात साबित हो गई कि पहली कैबिनेट में दस लाख सरकारी नौकरी के उनके बयान से इस चुनाव का जो एजेंडा सेट हुआ है, उसने नीतीश की वाणी ही नहीं, चुनाव की कहानी ही बदल दी है।  पार्टी का विजन डाक्यूमेंट वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के हाथों पेश कर बीजेपी पहले ही कबूल कर चुकी है कि उसके पास बिहार में कोई नेता नहीं है, पीएम का ताजा बयान गवाही दे रहा है कि कोरोना वैक्सीन पर किरकिरी के बाद पार्टी के पास चुनाव में जनता का दिल जीतने लायक कोई एजेंडा भी नहीं है।

15 साल का लालू राज अगर जंगलराज था और नीतीश कुमार का राज्य रामराज्य तो प्रधानमंत्री ने सासराम की रैली मे ये क्यों कहा कि हमें तो नीतीश कुमार जी के साथ काम करने का सिर्फ तीन-चार साल ही मौका मिला।

बीजेपी कह रही है कि चुनाव बाद नीतीश कुमार सीएम होंगे, लेकिन पोस्टर और प्रचार में सिर्फ मोदी ही नजर आते हैं, नीतीश नहीं।  नीतीश के साथ वो साझा घोषणापत्र जारी नहीं करती, न ही सीएम कैंडिडेट को अपने प्रचार में जगह देती है। इतना करने के बाद, उम्मीद थी कि पार्टी नीतीश से नाराज वोटरों को लुभाने के लिए अलग नैरेटिव पेश करेगी, लेकिन पहले दौर के चुनाव के बीच में ही बीजेपी ने जंगलराज वाले नीतीश के एजेंडा को ही कबूल कर लिया। ये वो एजेंडा है जिसे नीतीश कुमार 2005 से अब तक बड़ी कामयाबी के साथ हर चुनाव में पेश करते आए हैं, लेकिन इस बार ये एजेंडा वोटरों को लुभा नहीं रहा, उन्हें नाराज कर रहा है।  तेजस्वी की रैलियों में लाखों की भीड़ उमड़ रही है, वहीं नीतीश की रैलियों में इतने कम लोग उन्हें सुनने आ रहे हैं कि कैमरा मैन को बताना पड़ता है कि कैमरा जनता की ओर नहीं सिर्फ मंच की ओर घुमाए रखे।   

बीजेपी अब राज्य के मुद्दों पर बात कर रही है, वो उस नीतीश कुमार के एजेंडे पर चल रही है, जिसे वो हरगिज फिर से सीएम बनते नहीं देखना चाहती….वो पहली बार सीएम कैंडिडेट की दावेदारी पेश करने वाले 31 साल के युवा से नहीं लड़ सकती तो उसके पिता के तीस साल पुराने शासन की याद जनता को दिला रही है।  अब इसे बिम्ब समझें या प्रतीक … जेल में बंद लालू, रैलियां कर रहे नीतीश से ज्यादा ताकतवर हैं।

 चुनाव में जीत किसकी होगी ये दस नवंबर को पता चलेगा लेकिन ऐसा लग रहा है कि पहले दौर की वोटिंग के दौरान ही एक पार्टी ने चुनाव में अपनी हार कबूल कर ली है।

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