वापस जाने की जिद पर क्यों अड़े हैं मजदूर?
केन्द्र सरकार तमाम घोषणाएं कर रही हैं, लॉकडाउन खुलने के भी संकेत मिल रहे हैं, कई राज्यों में औद्योगिक प्रतिष्ठान और दफ्तर खुलने लगे हैं, ट्रेनें भी चलने लगी हैं, फिर भी मजदूरों का पलायन क्यों नहीं रुक रहा है? आखिर जान जोखिम में डालकर भी घर वापसी की जिद पर क्यों अड़े हैं प्रवासी मजदूर? अगर घर पर खाना होता, रोजगार होता, तो फिर दूसरे राज्यों में आने की जरुरत ही क्या पड़ती? जहां रह रहे हैं, वहां कुछ दिन और रुकने में क्या हर्ज है? गांव में कौन सा खजाना गड़ा है, या रोजगार धरा है? इनकी वजह से कई राज्यों में कोरोना के मामले भी बढ़ गये हैं। आखिर ये लोग अपने प्रदेश, घर-परिवार को खतरे में क्यों डालना चाहते हैं?
इस सवालों के जबाव भी मौजूद हैं। कुछ बुद्धिजीवियों के मुताबिक ये सब बिहार, यूपी के इमोशनल लोग हैं। काम बंद का मतलब छुट्टी समझते हैं, और छुट्टी में एक दिन भी घर-परिवार से दूर रहना इन्हें गवारा नहीं। इन्हें मरने का भी ख़ौफ नहीं, अगर ऐसी नौबत आ भी जाए तो अपने गांव में, अपनी जमीन पर मरना चाहते हैं। कुछ का ये भी मानना है कि इनके पास काफी पैसे हैं, क्योंकि ट्रकवालों या टैंकर वालों को 3 से 5 हजार रुपये देकर घर लौट रहे हैं, लेकिन इतनी अक्ल नहीं है कि इस पैसे से कुछ दिन और रुक जाएं और लॉकडाउन खुलने का इंतजार करें। दिक्कत ये है कि ये सारे जवाब अपने घर में आराम से बैठे लोगों, मीडिया हाउस के न्यूजरुम में बैठे पत्रकारों और कथित रुप से इनका दर्द समझनेवाले बुद्धिजीवियों से मिले हैं। मजदूरों से किसी ने पूछा ही नहीं, सिर्फ उनकी तस्वीरें लीं। इस स्थिति पर कवि धूमिल की ये पंक्तियां सटीक लगती हैं –
लोहे का स्वाद
लुहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो, जिसके मुंह में लगाम है।
– धूमिल
क्यों वापस लौट रहे हैं मजदूर?
- राजस्थान, चंडीगढ़, कर्नाटक और तमिलनाडु में फंसे सैकड़ों प्रवासी मजदूरों को मकान मालिकों ने घर से निकाल दिया, क्योंकि वो मकान का भाड़ा नहीं चुका पाए थे। मजबूरन ये लोग पैदल ही अपने राज्य की ओर निकल पड़े। इनमें से कुछ ने झारखंड के कोविड कंट्रोल रुम में इस बात की जानकारी दी, जिसके बाद झारखंड सरकार सक्रिय हुई और संबंधित राज्यों के अधिकारियों से बात की। अधिकारियों ने मकान मालिकों से बात कर कुछ मजदूरों को वापस बुला लिया, लेकिन बाकी रास्तों पर हैं, जिन्हें रोकने की कोशिश की जा रही है।
- ये वो वाकया है जिसकी जानकारी सरकार और मीडिया को हो गई, लेकिन सड़क पर चलनेवालों में कईयों के पैदल निकलने की यही वजह नहीं रही होगी ? क्या ये अकेली ऐसी घटना है और महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब, गुजरात आदि में फंसे मजदूरों के साथ ऐसा नहीं हुआ होगा ?
- कर्नाटक सरकार ने रियल इस्टेट लॉबी के दबाव में मजदूरों को वापस ले जानेवाली ट्रेनें कैंसल कर दीं। बाद में विपक्ष और सामजिक संगठनों के हो-हंगामा करने पर ट्रेनों को जाने की अनुमति दी। क्या इससे प्रवासी मजदूरों में ये संदेश नहीं गया कि बिल्डरों के साथ-साथ राज्य सरकारें भी उन्हें बंधुआ बनाकर रखना चाहती हैं? कि सरकारों पर भरोसा करके बैठे नहीं रहा जा सकता ?
- डोमेस्टिक वर्कर्स राइट्स यूनियन के मुताबिक घरेलू काम करनेवालों में से 87% को उनकी अप्रैल की सैलरी नहीं मिली है। साथ ही इन्हें मई और जून में भी काम पर वापस नहीं आने को कहा गया है। कईयों को अंदेशा है कि दुबारा जाने तक नौकरी हमेशा के लिए छूट चुकी होगी।
- आपको क्या लगता है, 8 से 10 हजार कमानेवाले इन लोगों के पास कितनी बचत होगी, कि वो दो महीने का मकान-भाड़ा चुका सकें और घर बैठकर परिवार को खिला सकें? इनके पास बाल-बच्चों के साथ वापस लौटने के अलावा क्या चारा है?
- इसी संस्था के मुताबिक जिन अपार्टमेंट्स में 200 घरेलू कामगार थे, वहां लॉकडाउन में ढील के बाद भी सिर्फ 50 को काम करने की इज़ाजत मिली, वो भी मकान मालिकों के अपने रिस्क पर। जो गये भी उन्हें एक से ज्यादा घरों में काम करने की अनुमति नहीं दी गई।
- एक कामवाली बाई 3-4 घरों में काम करती है, तब जाकर उसे 10 से 12 हजार रुपये मिलते हैं। अगर काम मिले भी और महीने भर बाद की पगार सिर्फ ढाई-तीन हजार रुपये हो, तो भला कौन काम कर सकता है और कैसे अपना पेट पाल सकता है? इनके पास वापस अपने गांव लौटने के सिवाय कोई और चारा है?
- सेंटर फॉर लेबर रिसर्च (CLRA) के एक सर्वे के मुताबिक, लॉकडाउन के दौरान महाराष्ट्र में 59% और गुजरात में 92% मजदूरों को उनका वेतन नहीं मिला। गुजरात के 61% मजदूरों ने मालिकों के व्यवहार में परिवर्तन की शिकायत की।
- इसी का परिणाम है कि महाराष्ट्र के संगठन एकता परिषद के एक सर्वे के मुताबिक, बेरोजगारी और आर्थिक अनिश्चितता के खतरों को जानते हुए भी यहां फंसे प्रवासी मजदूरों में से 95% वापस अपने गांव लौटना चाहते हैं।
क्या है मजदूरों का नजरिया
ऊपर के तथ्यों से आपको इस प्रश्न का जवाब तो जरुर मिल गया होगा कि क्यों जान जोखिम में डालकर भी प्रवासी मजदूर अपने घर लौटना चाहते हैं। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। इनके लिए जहां अपने वर्तमान में जीना मुश्किल हो रहा है, वहीं भविष्य से भी कोई उम्मीद नहीं है। इस वजह से भी इनका इतनी तेजी से पलायन हो रहा है। प्रवासी मजदूरों को साफ दिख रहा है कि –
- जब काम नहीं करेंगे तो पैसे नहीं मिलेंगे। और जब तक लॉकडाउन रहेगा, काम नहीं मिलेगा।
- लॉकडाउन कब खत्म होगा, इसकी कोई डेडलाइन नहीं है। जब तक कोरोना है, लॉकडाउन बढ़ता रहेगा।
- लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी काम मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
- दूसरे राज्यों की सरकारों को हमसे कोई मतलब नहीं है, क्योंकि हम ना तो उनके प्रदेश के नागरिक हैं, ना उनके वोट बैंक।
- परदेस में हमारी आवाज उठानेवाला, हमारी मदद करनेवाला कोई नहीं।
- पुलिस और प्रशासन हमारे लिए नहीं हैं। ये मजदूरों पर लाठी चला सकती है, उन्हें जेल में डाल सकती है, लेकिन मिल-मालिकों, ठेकेदारों, कंपनियों के मालिकों को गिरफ्तार नहीं कर सकती, ताकि हमारा बकाया पैसा भी मिल सके।
- कोरोना का खौफ यहां भी है और वहां भी। ऐसे में परदेस में क्यों मरें, जिससे परिवार के लोग मुंह भी ना देख सकें, कोई काठी भी ना दे सके?
जब पेट खाली हो, जेब खाली हो, परदेस में वास हो और मौत सिर पर मंडरा रही हो, तो किसी को भी अपने वतन, अपने गांव, अपने परिवार की याद आएगी। इसे सरकारी घोषणाओं, फूड पैकेटों और भीख की तरह मिल रहे खाने से नहीं रोका जा सकता। इसलिए इन्हें रोकिये मत, अपने घर जाने दीजिए। इन्हें अच्छी तरह पता है कि सरकार, प्रशासन, पुलिस, अधिकारी और कई सभ्य लोग इन्हें कीड़े-मकोड़े से ज्यादा नहीं समझते। ये सड़कों पर मरें, झुग्गियों में मरें या क्वारंटीन सेंटर में, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए अगर मरना ही है, तो अपने गांव में मरें, जहां किसी को उनकी परवाह तो है, किसी को उनकी जरुरत, उनका इंतजार तो है।