क्या bihar election 2020 में BJP की हार 2015 में ही तय हो गई थी?

bihar election 2020 में बाबू साहब वाले इस बयान को टीवी चैनलों ने कमोबेश उसी तरह हाईलाइट किया जैसे उन्होंने प्राइम टाइम में सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने से पहले सुशांत सिंह की मौत मामले में किया था। बिहार से बाहर कई जानकार सुशांत सिंह राजपूत मौत मामले में बीजेपी की सियासत को अब भी मास्टरस्ट्रोक मानते हैं। बिहार के फॉरवर्ड वोटर खास कर राजपूतों को गोलबंद करने की अनूठी कवायद जिसने तेजस्वी की हार को एक तरह से निश्चित कर दिया।
अब सवाल है क्या आरजेडी और जेडीयू वाकई इन चुनौतियों के लिए तैयार नहीं थे। अगर आप बिहार में पिछली बार हुए एसेंबली चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो पता चलता है कि….
2020 एसेंबली चुनाव में मोदी और बीजेपी की चुनौती को लालू ने 2015 में ही पहचान लिया था, और इसकी काट के लिए मुकम्मल इंतजाम किए थे।
पिछले एसेंबली चुनाव में बिहार के नतीजे को ज्यादा बेहतर तौर पर समझने की जरूरत है। 1947 से 1988 तक 41 सालों में बिहार में पांच ब्राह्मण, चार राजपूत, दो कायस्थ, एक भूमिहार और एक मुस्लिम मुख्यमंत्री हुए। 1989 में लालू ने बिहार में मंडलवाद की नई लालू रेखा खींची, जिसके बाद राज्य का नेतृत्व स्थायी तौर पर अगड़ी जातियों के हाथों से फिसल कर पिछड़ी जातियों के पास आ गया।
2015 में क्या हुआ था ?
2015 में बीजेपी ने एलजेपी और हम के साथ मिलकर ( फॉरवर्ड-दलित) पिछड़ी जातियों के आधिपत्य को चुनौती दी। जवाब में आक्रामक रणनीति के तहत जेडीयू और आरजेडी ने चुनाव में अगड़ी जातियों की बहुलता वाली सीटों पर भी बड़ी तादाद में पिछड़ी जातियों के कैंडिडेट्स को टिकट दिया। नतीजा ये हुआ कि 2015 चुनाव में बिहार में अगड़ी जातियों की तादाद एसेंबली में 79 से घटकर 51 रह गई। यानी 33 फीसदी से घटकर उनका प्रतिनिधित्व एसेंबली में महज 20 फीसदी के करीब रह गया। बीजेपी अगर अगड़ी जातियों में बड़ी तादाद में अपनी पैठ बना भी लेती है तब भी सूबे की सियासत में उसकी जमीन पहले से काफी छोटी रह गई है।
बिहार में मुख्यमंत्री कौन बनाता है ?
अगड़ी जातियों की 28सीटों की ये कमी यादव और मुस्लिम विधायकों ने पूरी की। यादव विधायकों की तादाद 39 से बढ़कर 61 हो गई, जबकि मुस्लिम विधायकों की तादाद 19 से बढ़कर 24 हो गई। बिहार की राजनीति का सबसे कम बहस किया जाने वाला तथ्य ये है कि यहां किस पार्टी की सरकार बनेगी और कौन मुख्यमंत्री बनेगा ये राज्य की सबसे बड़ी आबादी मुसलमान ही तय करते हैं। यही वजह है कि तीस साल से लालू और 15 साल से नीतीश की सियासत मुस्लिम वोटर के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। निष्कर्ष ये कि 2015 चुनाव के जरिए आरजेडी और जेडीयू ने जहां बीजेपी से मुकाबले के लिए अगड़ी जातियों के खाते में आने वाली सीटों की तादाद कम कर दी, वहीं मुस्लिम वोटर की ताकत में इजाफा कर दिया। ये दोनों फैक्टर बीजेपी के खिलाफ जाते हैं।
केंद्र की पार्टियों का कद कम करने की रणनीति
सोची-समझी रणनीति के तहत केंद्र में बीजेपी को चुनौती देने वाली राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को मजबूत किया गया। फॉरवर्ड कोटे की ज्यादातर सीटें कांग्रेस को दे कर उसे अगड़ों खास कर ब्राह्मणों की आरजेडी बनाने की कवायद की गई। नतीजा ये हुआ कि 2005 में 9 और 2010 में स्रिर्फ 4 सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने 2015 में 41 में से 27 सीटें जीत लीं, ये बीजेपी की 53 सीटों की करीब आधी है। बिहार की सियासत में अपना वर्चस्व जेडीयू आरजेडी ने 2015 चुनाव में कुछ इस तरह कायम कर लिया कि आज के दिन केंद्र की दो सबसे बड़ी पार्टियां बीजेपी और कांग्रेस की सीटें जोड़ दें तो वो जेडीयू- आरजेडी के आधी के करीब ही पहुंचती है।
जेडीयू ने 2017 में बीजेपी के साथ सरकार बना कर जहां खुद को इनकमटैक्स, ईडी और सीबीआई की संभावित परेशानी से बचा लिया, वहीं 2019 में लोकसभा चुनाव साथ लड़कर भी कैबिनेट में मंत्रिपद न लेकर बीजेपी से इतनी दूरी भी बनाए रखी जो बिहार की सियासत में बने रहने की अनिवार्य शर्त है।
चुनाव का मुद्दा किस पार्टी ने तय किया ?
चुनाव में नैरेटिव सेट करने की विपक्ष की ताकत को अक्सर कम करके आंका जाता है। 25 सितंबर को चुनाव आयोग ने बिहार में चुनाव की तारीखों का ऐलान किया। आठ दिन पहले , 17 सितंबर को आजाद भारत में पहली बार प्रधानमंत्री के जन्मदिन को सियासी विरोधियों ने #NationalUnemploymentDay ,#राष्ट्रीय_बेरोजगारी_दिवस के तौर पर मनाया।
18 सितंबर को जब फेसबुक पर प्रधानमंत्री ने जन्मदिन की शुभकामना के लिए लोगों को धन्यवाद दिया तो कमेंट करने वाले 39k में से कुछ ने उन्हें बेरोजगारी दिवस की याद दिलाई।
इसी दिन पीएम का अगला पोस्ट बिहार में कोसी रेल मेगा ब्रिज को लेकर आया। बेरोजगारी पर बात करके तेजस्वी ने जहां जाति और आरक्षण को केंद्र में रखने वाली लालू की आरजेडी को अलग पहचान देने की कोशिश की, वहीं पहली बार बिहार के चुनाव को मौजूदा मुद्दों से जोड़ कर राजनीति की धारा को पुरानी पीढ़ी से खींच कर नई पीढी की ओर लाने की कोशिश भी की है। कास्ट नैरेटिव के परसेप्शन वॉर में लीड लेने के लिए तेजस्वी ने मल्लाह जाति की अस्मिता को आवाज दे रहे मुकेश सहनी और दलितों के एक समूह के नेता के तौर पर अपनी पहचान तलाश रहे जीतन राम मांझी को दरकिनार कर एनडीए की शरण में जाने को मजबूर कर दिया।
ये बिहार की राजनीति का ही असर है कि जातिवादी पार्टी इस बार रोजगार के मुद्दे पर लड़ रही है और राष्ट्रवादी एनडीए जातिवाद पर।
बिहार की सियासत में एलजेपी जैसी हाशिए की पार्टियां अक्सर खुद को किंग मेकर के तौर पर प्रोजेक्ट करती हैं, लेकिन हकीकत ये है कि 2015 में वाम दलों से लेकर मांझी की हम, समाजवादी पार्टी, और ओवेसी की AIMIM से ज्यादा वोट जनता ने NOTA को दिया था। चुनावी जीत की संभावना के नजरिए से एलजेपी इस बार के चुनाव की सबसे ओवर रेटेड पार्टी है।